गांधी और सरला देवी : एक उपन्यास के झरोखे से

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— संजय गौतम —

पने पहले ही उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाइपास’ से बेहद चर्चित हुईं, ख्यात उपन्यासकार अलका सरावगी का यह आठवाँ उपन्यास है- गांधी और सरला देवी चौधरानी। गांधी अलका सरावगी के मन में बार-बार आते हैं। वह ‘कलिकथा वाया बाइपास’ में भी अमोलक के रूप में उपस्थित हैं। अलका सरावगी जिन्हें अपना गुरु मानती हैं, यानी अशोक सेकसरिया के निकट बैठकर भी हम गांधी को अपने स्तर पर जीते हुए व्यक्ति के निकट होने का अनुभव करते थे। उनका दरवेशी, फकीरी अंदाज और बौद्धिक तीक्ष्णता अपने आप लोगों को खींच लेती थी और उसमें गांधी का कुछ न कुछ अंश प्रवाहित कर देती थी। इस उपन्यास में गांधी से ज्यादा सरला देवी चौधरानी हैं। गांधी उतने ही आए हैं, जितना सरला देवी के व्यक्तित्व को, उनके अंतर्द्वन्द्व को कहने बताने के लिए जरूरी है।

सरला देवी चौधरानी कोई मामूली स्त्री नहीं थीं। वह ब्रह्म समाज के संस्थापकों में से एक महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर की नतिनी थीं, कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भांजी थी। उनकी माँ स्वर्ण कुमारी देवी स्वयं उपन्यासकार थीं। उनके पति पं. रामभज दत्त चौधरी पंजाब के जाने-माने संपादक और नेता थे। उनके पिता जानकी नाथ घोषाल 1901 में बंगाल कांग्रेस के अग्रणी नेता थे। उन्हें पंजाब की शेरनी कहा जाता था। उनका पालन पोषण कला, संस्कृति, विचार से समृद्ध परिवेश में हुआ। देवेंद्रनाथ ठाकुर परिवार की यह परंपरा थी कि वहाँ लड़कियों को विदा नहीं किया जाता था, बल्कि लड़के घरजमाई बनकर रहते थे। एकसाथ सैकड़ों लोगों का खाना बनता था। घर की महिलाएं कोई कामकाज नहीं करती थीं। सारा काम नौकर चाकरों के जिम्मे था। यहाँ तक कि जन्म लेने के बाद बच्चों को दूध पिलाने का कार्य भी धाय माँ और पालन-पोषण दाइयों के जिम्मे था। लेकिन सरला देवी के पिता जानकीनाथ ने जिदपूर्वक अलग रहने का निर्णय लिया। वह घरजमाई बनकर नहीं रहे।

अलका सरावगी

सरला देवी चौधरानी बौद्धिक प्रतिभा के साथ ही कला संगीत में प्रवीण थीं। बंकिम चंद्र के ‘वंदेमातरम’ गीत की पहली दो पंक्तियों का संगीत रचा रवींद्रनाथ ठाकुर ने। शेष पंक्तियों का संगीत रचने को दिया सरला देवी को। उन्होंने ही शेष पंक्तियों का संगीत रचा। बंकिमचंद्र से भी उनकी निकटता थी। उन्होंने अपने अन्य गीतों का संगीत भी सरला को रचने को कहा। सरला के लेख रवींद्रनाथ के लेखों से टक्कर लेते थे। सरला ने अपने जीवन को अलग तरह से जीने का निर्णय लिया। उन्होंने 24 अक्टूबर 1901 को कोलकाता में कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रदर्शनी में विभिन्न प्रांतों से आयी लड़कियों के साथ ‘उठो ओ भारत लक्ष्मी’ समूह गान का नेतृत्व किया। उन्होंने बंगाल में ‘प्रतापादित्य उत्सव’ और ‘उदयादित्य उत्सव’ का संचालन कराया, ‘भारती’ पत्रिका का संपादन किया, अनेक लेख लिखे, कविताएं रचीं। उस समय विवाह जल्द हो जाता था, लेकिन उन्होंने विवाह न करके नौकरी के लिए अकेले जाने का निर्णय लिया। यह निर्णय न उनकी माँ को अच्छा लगा, न परिवार के अन्य सदस्यों को। नाना देवेंद्रनाथ ठाकुर ने तलवार से उनका विवाह करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और नौकरी करने मैसूर गयीं। वहाँ एक साल रहने के बाद कोलकाता वापस आयीं और स्वदेशी तथा स्त्री जागरण के सामाजिक कार्यों में जुट गयीं। तैंतीस वर्ष की अवस्था में उनका विवाह पंजाब के सामाजिक कार्यकर्ता, संपादक पंडित रामभज दत्त चौधरी से हुआ और वह लाहौर पहुंच गईं। पति पत्नी दोनों ही सामाजिक कार्यों में लगे रहे। सरला देवी ने इलाहाबाद में 1910 में ‘भारत स्त्री महामंडल’ की स्थापना की।

ऐसी तेजस्विनी और विचारशील महिला को गांधीजी ने 1901 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में गाते हुए सुना और यह उनकी स्मृति में टिका हुआ था। दोबारा मुलाकात हुई लाहौर में, तब जलियांवाला बाग हत्याकांड और रौलट एक्ट की हलचल थी। सरला के पति, गांधी को बार-बार पंजाब आने का न्योता देते रहे, लेकिन गांधी का पंजाब जाना उस समय हो पाया, जब वह जलियांवाला बाग हत्याकांड का विरोध करने के कारण जेल चले गए थे। उनके संपादन में प्रकाशित ‘हिंदुस्तान’ अखबार भी बंद कर दिया गया था।

पंडित रामभज दत्त चौधरी एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। गांधी को उनके घर में ठहराने के लिए व्यवस्था की गयी। सरला देवी ने यह व्यवस्था अकेले सॅंभाली, बहुत अच्छे से, आत्मीयता से गांधी की देखभाल की। गांधी जैसी कि उनकी आदत थी, सरला के जीवन के बारे में, उनके संघर्ष के बारे में जानने की इच्छा की। सरला ने अपने जीवन की कहानी सुनाई।

लेकिन यह उपन्यास सिर्फ सरला के जीवन को बताने के लिए नहीं लिखा गया है। यह गांधी और सरला के परस्पर आकर्षण और मन के भीतर किसी कोने में उठते झंझावात का विरेचन करने के लिए लिखा गया है। पंजाब के मुलाकात में जो निकटता बढ़ी, वह बढ़ती ही गयी। गांधी को सरला में ऐसा तेज और वक्तृता कौशल दिखा कि उन्होंने सरला की संपूर्ण प्रतिभा का उपयोग राष्ट्रीय आंदोलन में करने का निर्णय ले लिया। उन्होंने बार-बार सरला को चरखा कातने, खादी की साड़ी पहनने और स्वदेशी का प्रचार करने के लिए कहा। वह मानते थे कि यदि सरला जैसी उच्च शिक्षित स्त्रियां खादी का प्रचार करेंगी तो सामान्य जन तेजी से खादी और चरखे को स्वीकार करेंगे। पंजाब से लौटने के बाद गांधी लगातार सरला से संवाद करते रहे। एक साल की अवधि में लगभग 80 पत्र लिखे गए। कभी कभी तो दो-दो तीन-तीन पत्र लिख डालते थे। ये सारे पत्र उपलब्ध हैं। इन्हीं पत्रों के आधार पर उपन्यास रचा गया है। सरला के पत्र चार-पाँच ही मिले, क्योंकि इन पत्रों को राजगोपालाचारी की बेटी और गांधीजी की पुत्रवधू द्वारा जला दिया गया। गांधी के पत्रों में ही सरला के मनोभाव झलकते हैं, उनकी पीड़ा झलकती है, दोनों के बीच का अतर्द्वन्द्व झलकता है। इन्हीं बातों को आधार बनाकर, कल्पना से सरला के मनोभावों में रंग भर कर, उनके मन के घात प्रतिघात को मार्मिक एवं बारीक ढंग से उपन्यास में रचा गया है। यही उपन्यास की उपलब्धि है।

गांधी और सरला देवी के संबंध सामान्य नहीं थे। गांधी, सरला की हँसी को देश की संपदा मानते हैं। उन्हें अपनी आध्यात्मिक पत्नी कहते हैं। एक पत्र में वह सरलादेवी को पंडित रामभज दत्त और सबके सामने चूमने की इच्छा व्यक्त करते हैं लेकिन यह भी कहते हैं कि ऐसा करने का उनका कोई इरादा नहीं है। वह अपने पत्रों को रामभजदत्त को पढ़ाने के लिए कहते हैं। दरअसल वह चाहते हैं कि पूरा परिवार चरखा, खादी और अहिंसा के उनके सिद्धांतों में रम जाए और सरलादेवी अपना पूरा समय राष्ट्र को समर्पित कर दें। सरला देवी के बेटे दीपक को साबरमती आश्रम में रखकर आश्रम के नियमों के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था की गयी। सरलादेवी भी आश्रम में आयीं लेकिन सभी के साथ एकमेक नहीं हो सकीं। उनके अकेले अपने कमरे में खाने पर भी कुछ लोगों को आपत्ति थी। रामभज दत्त चौधरी भी गांधी के सिद्धांतों से पूरी तरह सहमत नहीं थे। ऊपर से उनकी पहले की पत्नी से हुई संतान के शादी-विवाह की जिम्मेदारी थी। सरला उनकी शादी गांधी के बताए तरीके से नहीं कर सकती थीं।

गांधी अपने पत्रों में सरला को बहुत शिक्षित करते हैं। विनोदी अंदाज में आने को ला गिवर भी कहते हैं। सरला को गांधी के पत्रों में कभी चांदनी की शीतलता, कभी सुबह की धूप की गुनगुनाहट महसूस होती है तो कभी हद दर्जे की तानाशाही भी। क्यों करे वह यह सब, क्यों गांधी उसे एक पूर्ण स्त्री बनाना चाहते हैं, क्यों गांधी चाहते हैं कि वह सारा घरेलू कामकाज करे, क्यों घरेलू कामकाज करना स्त्री के लिए जरूरी है, स्त्री ही क्यों, पूर्ण पुरुष क्यों नहीं? इन्हीं सब झंझावातों प्रश्नों के बीच प्राय एक वर्ष का समय बीता और फिर रिश्ते में दूरी आ गई। 1923 में सरला देवी के पति पंडित रामभज दत्त चौधरी की मृत्यु हो गई। उसके बाद वह कोलकाता आ गयीं और अपने तरीके से कांग्रेस का, समाज सेवा का कार्य करने लगीं। उन्हें यह लगता रहा कि कांग्रेस के नीति नियामकों में महिलाओं का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है, कांग्रेस ला ब्रेकर के रूप में महिलाओं का इस्तेमाल कर रही है, ला मेकर के रूप में नहीं। उन्होंने 1931 में अलग से महिला कांग्रेस की मांग की। 18 अगस्त 1945 को उनका निधन हुआ। उनके निधन के बाद गांधी जी ने उनके पुत्र दीपक का विवाह अपनी पोती राधा से कराया। बीमारी के समय सरला देवी को आर्थिक संकट भी था, लेकिन स्वाभिमानी होने के नाते किसी से मदद नहीं ली। गांधी के पत्रों में इस बात की चिंता झलकती है।

अलका सरावगी को न तो आलोचक स्त्री-विमर्श की लेखिका मानते हैं न वह स्वयं ही अपने को मानती हैं, लेकिन इस उपन्यास को स्त्री विमर्श के नजरिए से भी पढ़ा जाएगा क्योंकि उनके जजमेंटल (उन्हीं के शब्द) न होना चाहते हुए भी आखिर वे भी पुरुषवादी ही निकले जैसे भाव उपन्यास में हैं। उपन्यास में यह बात उभरकर आयी है कि कांग्रेस आंदोलन का चरित्र मूलतः पितृसत्तात्मक था, इस बात का असर भी गांधी के ऊपर था। विचार करने का विषय यह है कि कोई भी समूह क्या समाज से पूरी तरह ऊपर उठ सकता है, उस समय की बात तो छोड़ दें, आज भी तमाम प्रयासों, आंदोलनों, नियम कानूनों के बावजूद अपनी मूल संरचना में हमारा समाज पितृसत्तात्मक ही बना हुआ है। उस समय के समाज में तो पितृसत्तात्मक होने का एहसास भी नहीं था। लेकिन ऐसे माहौल में भी गांधीजी बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय आंदोलन में स्त्रियों को शामिल करा पाए, क्या यह बड़ी बात नहीं थी!

यह सही है कि यदि परिवार के नजरिए से देखें, पत्नी के नजरिए से देखें, बच्चों के नजरिए से देखें, तो गांधी अनेक बार ज्यादती करते हुए लगेंगे। अपने बीमार बेटे की मृत्यु की आशंका होने पर भी चिकित्सा के अपने प्रयोग जारी रखना, बा को पढ़ने के लिए कहते रहना, मल मूत्र की सफाई के लिए विवश करना, आश्रम में सभी लोगों द्वारा काम करना, अपने बेटे का दिए एक-एक पैसे का हिसाब रखना, उसे परंपरित शिक्षा से दूर रखना, हरिलाल को पढ़ने का अवसर न देकर अपने भतीजे को देना, जिसकी वजह से हरिलाल उनसे दूर होता गया और उसका जीवन अलग ही दिशा में मुड़ कर बर्बाद हो गया, जैसी तमाम घटनाएं हैं जिनमें गांधीजी ज्यादती करते हुए लगते हैं। लेकिन गांधी को ‘गांधी’ बनने के लिए परिवार और परिजनों का इतना बलिदान व त्याग अवश्यंभावी था। और यह प्रायः हर महापुरुष के साथ होता आया है। श्रम और स्वदेशी की प्रतिष्ठा के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते थे। इसलिए उनके व्यक्तित्व को पुरुषवादी कहना एक तरह का सरलीकरण हो जाएगा। हाँ यह जरूर है कि पुरुष संस्कार से कोई भी पूरी तरह कहाँ मुक्त हो पाता है?

सरला देवी चौधरानी ने बांग्ला में अपनी आत्मकथा भी लिखी- ‘जीवनेर झारा पाता’; इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘द मेनी वर्ल्ड्स ऑफ़ सरला देवी अ डायरी’ के नाम से उपलब्‍ध है। कनाडियन इतिहासकार जेराल्डीन फोर्ब्स ने ‘लास्ट लेटर्स एंड फेमिनिस्ट हिस्ट्री’ में उनके पत्रों को रखा है। 2012 में सुधीर कक्कड़ की किताब ‘मीरा एंड द महात्मा’ भी प्रकाशित हुई। इसका हिंदी अनुवाद ‘मीरा और महात्मा’ के नाम से है। इसमें गांधी के आश्रम में आयी मेडलिन जिसे गांधीजी मीरा के नाम से बुलाते थे, का गांधी जी के प्रति आकर्षण उनके जीवन का विशिष्ट चित्र है। गांधी जी का जीवन ही ऐसा है कि उसे अनेक कोणों से देखा और रचा जा सकता है। कल्पना की कम गुंजाइश होते हुए भी समर्थ रचनाकार तथ्यों के बीच अपना रंग भरता है और पाठकों के लिए उस जीवन को, उन क्षणों को जीवंत, मार्मिक और हृदय स्पर्शी बना देता है। इस उपन्यास में हम सरला के जीवन के सिर्फ तथ्यों को ही नहीं जानते बल्कि एक स्त्री के मनोभावों के आरोह-अवरोह दुविधाओं, सामाजिक दबावों को भी सघन रूप से जानते समझते हैं। इस उपन्यास के माध्यम से बांग्ला संस्कृति, रवींद्रनाथ के परिवार के बारे में और राष्ट्रीय आंदोलन की हलचल को भी जान पाते हैं। ब्रह्म समाज एवं आर्य समाज के आंदोलनों के प्रभाव को भी देख पाते हैं। उपन्यास में बहुत सारी बातें, समय समाज की प्रवृत्तियाँ स्मृतियों के प्रवाह में बहती चली आती हैं। और स्वतंत्रता आंदोलन के हमारे बोध को सृजित विकसित करती हैं।

अंत में प्रसिद्ध इतिहासकार और गांधी-अध्येता, प्रो सुधीर चंद्र, जिनकी एक किताब का नाम ही ‘गांधी एक असंभव संभावना’ है, का कथन देना जरूरी लग रहा है, जो उपन्यास की विशेषता को संक्षेप में रेखांकित कर देता है- ‘इतिहासकार और जीवनीकार तथ्यों के मायाजाल में फॅंसे रहते हैं। कुशल कथाकार तथ्यों के पीछे छिपे सत्य के मर्म को उदघाटित कर देते हैं। अलका सरावगी का ‘गांधी और सरला देवी चौधरानी’ इसी का एक और उदाहरण है। ब्रह्मचर्य का व्रत ले चुके महामानव गांधी और असाधारण सौंदर्य और प्रतिभा की धनी सरला देवी चौधरानी के बीच झंझावाती आकर्षण का जैसा बारीक, मार्मिक और संयत वर्णन यहाँ हुआ है कहीं और नहीं मिलेगा। उपन्यास का अंत विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह एक अद्भुत जुगत है उस सब की ओर इशारा कर देने की, जो मूल पाठ में पुरुष गाँधी के विरुद्ध कहा जा सकता था, पर नहीं कहा गया, वह सब जो प्रेम की मर्यादा और आत्मसम्मान ने सरला देवी को और उनके सम्मान में कथाकार को कहने न दिया।’

किताब : गांधी और सरला देवी चौधरानी : बारह अध्याय
लेखक : अलका सरावगी
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
मूल्य : ₹299

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