भारत की भाषा-समस्या और डॉ. लोहिया

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Hindi Diwas

Mastram Kapoor

— मस्तराम कपूर —

ह बात सर्वविदित है कि डॉ. राममनोहर लोहिया अंग्रेजी को हटाने और उसकी जगह पर भारतीय भाषाओं को लाने के लिए प्रतिबद्ध थे। वे अंग्रेजी की जगह हिंदी को नहीं लाना चाहते थे, जैसा कि कुछ लोग प्रचार करते हैं। उन्होंने एक बार तो गांधीजी के शब्दों का इस्तेमाल करते हुए यहाँ तक कहा था कि अंग्रेजी हटे, हिंदी चाहे जहन्नुम में जाए। अंग्रेजी को हटाने से भी उनका अभिप्राय था कि शिक्षा, प्रशासन, न्याय आदि का अंग्रेजी माध्यम हो और यह काम भारतीय भाषाओं में ही हो। संक्षेप में, भाषा-समस्या के संबंध में डॉ. लोहिया के विचार 23 फरवरी, 1965 के मुख्यमंत्री सम्मेलन के अवसर पर लिखे उनके लेख में इस प्रकार हैं-
1. भाषा की स्थापना से पहले उसे विकसित करने की बात करना दुशाले में छुरी की तरह है। स्थापना पहले होती है, फिर भाषा विकसित होती है।

2. माध्यम के रूप में अंग्रेजी के इस्तेमाल से आथक मामलों के काम का नतीजा कम निकलता है, शिक्षा के मामले में ज्ञानार्जन कम होता है और खोज नहीं के बराबर होती है। प्रशासन में अक्षमता बढ़ती है और गैर- बराबरी तथा भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। अंग्रेजी विदेशी भाषा है और राष्ट्रीय स्वाभिमान को चोट पहुँचाती है, यह बात इस बात की तुलना में मामूली है कि वह आथक प्रगति में बाधक है, गैर-बराबरी बढ़ाती है और थोड़े से लोगों के शासन का हथियार है।

3. देश के जो हिस्से जीवन के सभी क्षेत्रों से अंग्रेजी के माध्यम को खत्म कराना चाहते हैं, उन्हें अंग्रेजी को बनाए रखनेवाले हिस्सों के साथ शांतिपूर्ण होड़ करने की छूट होनी चाहिए। 5 से 10 साल में इसके नतीजे सामने आ जाएँगे और तब हिंदी क्षेत्र फिर से अंग्रेजी अपना लेंगे या फिर अहिंदी क्षेत्र अंग्रेजी छोड़ देंगे।

4. केंद्र और राज्यों के बीच पत्राचार की भाषा की बात का बतंगड़ बनाया गया है। । यह पंत्राचार केंद्र के कारोबार का 1 प्रतिशत भी नहीं है। । केंद्र के कारोबार में प्रशासन, शिक्षा, न्याय, उद्योग, रेलवे, परिवहन जैसे काम शामिल हैं।

5. अपने यहाँ से अंग्रेजी को हटाने का फैसला करना होगा। सिर्फ सूबाई स्तर पर अंग्रेजी को हटाना बेमतलब होगा और भ्रम पैदा कर्नेवाली स्थिति से नुकसान भी होगा… मिसाल के लिए, अगर बिहार अंग्रेजी खत्म करने का फैसला करता है तो उसे अपनी प्रादेशिक सीमा के अंदर सभी विभागों से, चाहे वे केंद्रीय हों या सूबाई, अंग्रेजी को हटाना चाहिए। इसके बिना अर्थव्यवस्था, शिक्षा और प्रशासन का सड़ना जारी रहेगा। 6. तमिलनाडु या बंगाल या बिहार अथवा उत्तर प्रदेश पर अंग्रेजी थोपना घोर अत्याचार होगा। इसी तरह तमिलनाडु या बंगाल को अपने यहाँ हिंदी बिलकुल न रखने की छूट होनी चाहिए।

7. लोगों ने नीतियों पर तीन आवेश की बातें की हैं। आशा है, हिंदी क्षेत्र ऐसा तीव्र भावावेश तमिल या बंगाल के विरुद्ध कभी नहीं करेंगे। ये और दूसरे लोग सोचने लगेंगे कि भाषा के बारे में वर्तमान स्थिति इसलिए है कि यही मद्रास् और कलकत्ता ब्रिटिश सरकार के अड्डे थे और क्या उन्हें भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने की बजाय उनका साथ देना चाहिए था?

8. धीरे-धीरे या अंततोगत्वा हिंदी की स्वीकृति के लिए दिए जानेवाले सभी तर्क भ्रमपूर्ण या झूठे साबित हुए हैं।

राममनोहर लोहिया (23 मार्च 1910 – 12 अक्टूबर 1967)

यह जो खयाल किया जाता था कि तमिलनाडु, केरल या बंगाल की नई पीढ़ी हिंदी सीख रही है, वहीं पुरानीं पीढ़ी की अपेक्षा ज्यादा गुस्से से हिंदी विरोधी है, इसलिए पुराने तरीकों पर चलते रहना बेकार है। गैर-हिंदी हलकों में हिंदी की लाजमी पढ़ाई फौरन बंद होनी चाहिए। तमिलनाडु जैसे इलाकों के लिए इसका और कोई मतलब नहीं होगा, सिवा इसके कि जो वस्तुस्थिति है, उसे मान लेना। इसी तरह जिस किसी सार्वजनिक कामकाज में हिंदी एक निरर्थक पुछल्ले के रूप में रहकर काम कर रही है, उसे वहाँ से हटा देना चाहिए। भाषा-समस्या पर लोहियाजी के ये विचार उनके संघर्ष का निचोड़ हैं।

वे अंग्रेजी के स्थान पर भारतीय भाषाओं को लाने के लिए कोई भी समझौता करने को तैयार थे। वे केंद्र को द्विभाषी या बहुभाषी बनाने को भी रजामंद थे। वे अखिल भारतीय नौकरियों में अहिंदी क्षेत्रों को एक निश्चित अवधि के लिए शत-प्रतिशत आरक्षण देने को भी तैयार थे। शिक्षा के माध्यम के बारे में उनकी धारणा यह थी कि भारतीय भाषाओं में विज्ञान और मानविकी के सभी विषयों की शिक्षा दी जा सकती है। विज्ञान की तो और भी आसानी से, क्योंकि उसकी अधिकतर भाषा प्रतीकों और चिह्नों की होती है। सत्येन बोस् जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक ने एक ‘अंग्रेजी हटाओ’ सम्मेलन में शिरकत कर र इस सुझाव का समर्थन किया था, बल्कि उन्होंने कलकत्ता में इसका प्रयोग भी करना चाहा था; किंतु वहाँ के बुद्धिजीवियों के विरोध के कारण उन्हें यह काम बंद करना पड़ा था।

उनके अंग्रेजी हटाओ’ नारे का अब भी लोग-बाग गलत अर्थ र्थ लेते लेते हैं। उन्होंने कई बार स्पष्ट किया कि न तो अंग्रेजी हटाओ का मतलब हिंदी लाओ है और न अंग्रेजियत हटाओ। अगर इसका मतलब कोई यह लेता है कि औरतें लिपस्टिक न लगाएँ या भरत नाट्यम, कत्थक आदि के अलावा कोई विदेशी नृत्य यहाँ न चले या यहाँ

तलाक की व्यवस्था न हो। वे चाहते थे कि हमारी भाषाओं में इतनी क्षमता होनी चाहिए कि वे पवित्रता और छिनाली दोनों के काम बराबर कर सके।

उन्होंने ‘हिंदी बनाम अंग्रेजी’ शीर्षक लेख में कहा कि यदि सरकारी और सार्वजनिक काम ऐसी भाषा में चलाए जाएँगे, जिसे देश के करोड़ों आदमी न समझ सकें तो एक प्रकार का जादू-टोना होगा। पिछले छह दशकों से हमारे देश का काम जादू-टोंने की गुप्त विद्या से ही चलता रहा है। जनता तो जनता, राजनेता भी समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है। वे अंतरराष्ट्रीय संधियों पर हस्ताक्षर कर आते हैं और बाद में उन्हें पता चलता है कि गलत मसौदे पर दस्तखत क्र आए।

लगता है कि जादू-टोना करनेवाले भी कहीं बाहर बैठे हैं। किसी समय एक नास्तिक रूसी मेहमान ने कहा था कि भारत को देखकर उन्हें ईश्वर पर विश्वास हो गया; क्योंकि उसका काम कैसे चलता है, यह कहना मुश्किल है, सिवा इसके कि उसे ईश्वर ही चला रहा है। लोहियाजी की एक और महत्त्वपूर्ण प्रस्थाप्ना यह थी कि विदेशी भाषा में देश का सारा काम् चलेगा तो न तो शिक्षा में प्रगति होगी, न शासन ठीक काम करेगा, न गरीबी दूर होगी और न गैर-बराबरी कम होगी। पिछले साठ

सालों के अनुभव ने इस प्रस्थापना को 100 फीसदी सच सिद्ध कर दिया है। सन् 1960 के दशक में 27 करोड़ लोग (आबादी का 75 प्रतिशत) 3 आने रोज पर गुजारा करते थे। आज 84 करोड़ लोग (आबादी का 78 प्रतिशते) 20 रुपए रोज पर गुजारा करते हैं और आज के 20 रुपए सन् 1960 के 3 आने के बराबर यदि हम कीमतों में सौ गुना वृद्विध मान लें, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता। शिक्षा की स्थिति यह है कि 80 प्रतिशत बच्चे माध्यमिक स्तर से पहले स्कूल छोड़ देते हैं।

इसकी मुख्य वजह यह है कि वे अंग्रेजी में फेल हो जाते हैं। इस पर भी हमारे शिक्षा विशेषज्ञ पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाने पर जोर देते हैं। गुप्त भाषा में शासन चलने के कारण जनता का अंकुश तो शासकों पर रहता नहीं, परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार की खुली छूट मिलती है। पिछड़ेपन में जहाँ हमारा देश 178 देशों की सूची में 136वें स्थान पर है और भुखमरी में 88 देशों की सूची में 66वें स्थान पर, वहीं भ्रष्टाचार में वह दूसरे या तीसरे नंबर पर है। अगर स्विस बैंकों में जमा भ्रष्टाचार के धन के

हिसाब से देखें तो वह एक नंबर पर है और उसके नीचे के चार देश मिलकर भी उस्की बराबरी नहीं कर सकते। डॉ. लोहिया ने यह आशंका प्रक्ट की थी कि तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे प्रदेशों के अंग्रेजी-प्रेम और भारतीय भाषाओं के विरोध के चलते लोग एक दिन उस पर यह आरोप लगाएँगे कि चूँकि इन प्रांतों ने 200 सालों तक गुलामी का स्वागत किया, इसलिए वे अंग्रेजी नहीं छोड़ना चाहते। लगता है, इस बात को खुलकर कहने का
समय आ गया है।

लोहिया ने यह भी कहा था कि अंग्रेजी गैर-बराबरी को बढ़ानेवाली है। आज हमारे देश में इंडिया और भारत का विभाजन स्पष्ट है। एक तरफ है ‘शाइनिंग इंडिया’ और दूसरी तरफ है ‘गरीब भारत’। एक तरफ है शिक्षा,

स्वास्थ्य, परिवहन और विश्राम की पाँच-सितारा व्यवस्था और दूसरी तरफ नरक जैसी स्थितियाँ, जमीन- आसमान का अंतर। इस पर तुर्रा यह कि संविधान में समता लाने के लिए बनी आरक्षण की योजना का विरोध अंग्रेजी पढ़े-लिखे तबके ने किया।

लोहिया ने एक लेख ‘सामंती भाषा बनाम लोकभाषा’ में लिखा-“अंग्रेज़ी हिंदुस्तान को ज्यादा नुकसान इसलिए नहीं पहुँचा रही है कि वह विदेशी है, बल्कि इसलिए कि भारतीय प्रसंग में वह सामंती है। आबादी का सिर्फ 1 प्रतिशत छोटा सा अल्पमत अंग्रेजी में ऐसी योग्यता हासिल कर पाता है कि वह उसे सत्ता या स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करता है। इस छोटे से अल्पमत के हाथ में जन-समुदाय पर अधिकार और शोषण का हथियार है – अंग्रेजी।”

इसी सामंती भाषा में सारा कामकाज पिछले 60 सालों में चला, जिसका परिणाम यह हुआ कि हमारे यहाँ लोकतंत्र तो मजाक बनकर रह गया है और खानदानी राज के रूप में सामंती व्यवस्था ने जड़ें जमा ली हैं। साथ

ही उसके प्रभाव के कारण सभी पाटयों में परिवारवाद घुस गया है। जिस राष्ट्रीय एकता के नाम पर यह भाषा पंचानबे-छियानबे प्रतिशत जनता पुर (जो अंग्रेजी नहीं जानती) थोपी गई, उसकी स्थिति यह है कि एक-तिहाई भारत पर बागियों का कब्जा है और एक-तिहाई भारत अंग्रेजी-प्रेम के कारण अपना अलग संघ बनाने की सोच रहा है। अंग्रेजी के एक प्रसिद्ध साप्ताहिक ने इस विचार प्र कुछ स्मयु पहले अपना विशेषांक निकाला था। इसके अलावा एक प्रांत का व्यक्ति दूसरे प्रांत में नौकरी क्रने या बसने में अपनी जान को खतरा महसूस करता है। दक्षिणी भारत् और तटीय क्षेत्र, जो ब्रिटिश साम्राज्य के आश्रय में समृद्ध हुए, उत्तर और मध्य भारत से इसलिए अलग होना चाहते हैं, क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह करने के दंड के कारण वे आथक दृष्टि से पिछड़े रहे हैं।

“अंग्रेजी के वर्चस्ववाली भाषा नीति का सबसे शर्मनाक परिणाम यह हुआ है कि हमें बौद्धिक गुलामी ने जकडू लिया है। शिक्षा विदेशी बाजार के लिए पढ़े-लिखे गिर्मिटिया तैयार कर रही है। साहित्य (अंग्रेजी में) विदेशी बाजार की रहस्य-रोमांच और सेक्स की माँग की पूत के लिए लिखा जा रहा है। विचार और वैज्ञानिक खोजों में विश्व को हमारा योगदान नहीं के बराबर है। चीन और जापान को छोड़ो, हम कोरिया और वियतनाम जैसे छोटे देशों के मुकाबले में नहीं हैं; क्योंकि ये देश भाषा की गुलामी से मुक्त हैं। सन् 1948 में भारत चीन की हर बात में बराबरी पर था। आज वह हमसे हर बात में दो गुना आगे है। हमारे शिक्षामंत्री कहते हैं, हम पाँच साल में उसकी बराबरी पर आ जाएँगे। किंतु अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व के चलते यह कयामत् तक नहीं होगा।”

ये बातें डॉ. लोहिया ने सन् 1962 में कही थीं जब भारत की आबादी 32 करोड़ थी। उन्होंने लिखा कि “औद्योगिकीकरण करने के लिए भारत को 10 लाख इंजीनियरों और डॉक्टरों की तथा 1 करोड़ मिस्त्रियों और

कारीगरों की जरूरत हैं। जो यह सोचता है कि यह चीज अंग्रेजी के माध्यम से बनाई जा सकती है, वह या तो धूतं है या मूर्ख। आज की जनसंख्या में डॉक्टरों-इंजीनियरों की संख्या 35 लाख और मिस्त्रियों-कारीगरों की 4 करोड होनी चाहिए। एक अनुमान के अनुसार, इस समय भारत में डॉक्टरों की संख्या करीब 1 लाख है। इंजीनियरों की भी इतनी ही होनी चाहिए। जहाँ 10 प्रतिशत बच्चे कॉलेज की शिक्षा तक पहुँचते हों और 0.001 प्रतिशत स्नातकोत्तर पेशेवर शिक्षक वहाँ इस माँग की पूत कैसे होगी? लेकिन हमें इसकी जरूरत भी क्या है? कुछ लोगों को विदेशों में नौकरियाँ मिल रही हैं, आम जनता जाए जहन्नुम में।”

लोहिया की भाषा नीति ऐकांतिक नहीं थी। उसका संबंध ‘पेट’ और ‘दिमाग’ की सभी समस्याओं से था। हैदराबाद के ‘अंग्रेजी हटाओ’ सम्मेलन में उन्होंने सन् 1962 में कहा था- “सच पूछो तो जब मुल्क का बँटवारा हुआ था तो मुझसे गलती हुई थी। एक गलती अंग्रेजीवाले मामले में हो गई। जब संविधान में यह कलम रखी जा रही थी, तभी मुझे सोच लेंना चाहिए था। लेकिन उस वक्त ज्यादा नहीं सोचा। उस् वक्त ज्यादा यह सोचा कि कारखानों को पंचायती बना लो, रोटी का दाम ठीक-ठाक कर लो, मजदूरी ठीक करो। लेकिन लड़ते-लड़ते देखा कि सिर्फ आथक माँगों के लिए लड़ने से काम नहीं चलेगा, क्योंकि पेट और मन ये दोनों तो जुड़े हैं और अगर

पेट को सुधारना चाहते हो तो मन को सुधारना जरूरी है। डॉ. लोहिया के लिए भाषा समग्र जीवन की प्राण-शक्ति थी। नोम चोम्स्की जैसे कुछ विद्वान् भी आज उसे कुछ-कुछ समझने लगे हैं। अगर भारत के सत्ताधारी और उनके पिछलग्गू बुद्धिजीवी उन्हें नहीं समझ सके तो इसमें क्या आश्चर्य?

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