हिंदी और बाजार

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— नरेश गोस्वामी —

ई बार लगता है कि जैसे हिंदी कोई भाषा नहीं बल्कि एक विराटता है। उसके साथ राष्ट्रीयता और विशाल भौगोलिकता इस कदर जुड़ी है कि उसके किसी एक पक्ष पर विचार करना ही मुश्किल हो जाता है। अकसर हिंदी या तो अंग्रेजी का प्रतिलोम बनकर रह जाती है या फिर देसी-सामंती मध्यवर्ग की भीरु अहम्मन्यता की सत्ता अभिव्यक्ति। हिंदी के बाहर खड़ी ठोस संरचनाओं को इस चिंतन में लगभग अनदेखा कर दिया जाता है। आमतौर पर हमारे चिंतन की सारी ऊर्जा भाषा पर विचार करने में ही खप जाती है और हम उस समुदाय के बारे में सोचना ही भूल जाते हैं जो इस भाषा को सोचता और बरतता है।

बात हिंदी समुदाय की बनावट से शुरू करें। आज हिंदी की दुनिया उस तरह से इकहरी नहीं रह गयी है जैसी आजादी के बाद के वर्षों में हुआ करती थी; जब ‘धर्मयुग’ या ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ की प्रसार संख्या लाखों में हुआ करती थी और शिक्षित होने का अनिवार्य मतलब कविता या कहानी में रुचि लेना होता था। उस समय (और यह बात आज भी काफी हद तक सही है) यह शिष्ट और संभ्रांत समुदाय सरकारी या पक्की नौकरियों के इर्द-गिर्द संगठित था। समाज का आम कामकाजी आदमी इस समुदाय का नागरिक नहीं था। लेकिन उसकी अपनी लोक संस्कृति थी। उसके साहित्य में नल-दमयंती या राजा हरिश्चंद्र के किस्से थे। ऋतुओं के आगमन, फसल चक्र और खेती-बाड़ी से जुड़े गीत थे। उसकी भाषा स्कूल या विश्वविद्यालय में उपजी और संस्कारित भाषा नहीं थी। प्रसाद या प्रेमचंद को दिवंगत हुए भले ही अस्सी साल से ज्यादा हो गये हों और आज वे भले ही सारे हिंदी समुदाय के नायक जैसे लगते हों पर वे तब भी आम ग्रामीण या बनते हुए शहरी मध्यवर्ग के प्रतिनिधि नहीं थे।

हिंदी समुदाय एक तरह की आत्मरति का शिकार है। उसके लिए बाहर का कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है। वह कुछ जानना या सीखना नहीं चाहता। जाति और वर्ण की श्रेणीबद्धता में यह समुदाय इस कदर उलझा है कि किसी नये आदर्श के बारे में सोचने की ऊर्जा उसके पास नहीं है।

दूसरी बात यह है कि उसके पास ऐसा कुछ नहीं है जो दूसरों को दिया जा सके। वह एक हद दर्जे का अहम्मन्य और आत्मकेंद्रित समाज है। इसलिए वह दुख, सुख या विलाप की भाषा में ही सोच सकता है और इसके चलते वह साहित्य ही रच पाता है। आत्मालोचन उसके जीन में है ही नहीं।

हिंदी में साहित्य के अलावा कुछ भी भौगोलिक नहीं है और यह बात सिर्फ रचना तक सीमित नहीं है। आधुनिक ज्ञान के अनुशासन भी उसने आयात ही किये हैं। वह मूलतः एक ऐसा समाज है जिसका विज्ञान, तकनीक या मानव कल्याण के क्षेत्र में कोई मौलिक योगदान नहीं है।

समाज का व्यवस्थित अध्ययन पश्चिम के ज्ञानशास्त्र की उपज है और हमारा अवचेतन पश्चिम का स्थायी उपनिवेश बन चुका है। प्राच्यवाद की झोंक में कुछ लोग भारत के अध्यात्म और दर्शन के आधार पर पश्चिमी श्रेष्ठता से भिड़ने की सोचते हैं। लेकिन वे इस बात की तरफ ध्यान नहीं देते कि उनका भौतिक जीवन खुद पश्चिम से आयी तकनीक पर टिका है।

यहां गौर करने की बात यह है कि हिंदी समुदाय आज भी इन मानसिक संरचनाओं में फँसा है जबकि इक्कीसवीं सदी के तकनीक केंद्रित और वित्त प्रधान पूंजीवाद ने उसे चारों तरफ से घेर लिया है। आज अगर हम हिंदी पट्टी में पिछले दो-ढाई दशक में आए बदलावों पर नजर नहीं डालेंगे तो हमारा विश्लेषण विलाप से आगे नहीं बढ़ पाएगा।

हिंदी समुदाय सिर्फ एक भाषा बोलने के कारण समांगीकृत समुदाय नहीं हो जाता। बेशक हिंदी पट्टी के कई करोड़ लोग एक ही भाषा का प्रयोग करते हों परंतु सतह के नीचे जाकर पड़ताल करें तो इस समुदाय के भीतर कई परतें हैं। हिंदी समुदाय की सरंचना में एक स्तर साहित्यिक और उच्च शिक्षित नागरिकों का है। हिंदी के अतीत, वर्तमान और भविष्य के अधिकतर विश्लेषण, आकलन और विमर्श इसी वर्ग के विश्व-बोध और गतिविधियों पर टिके होते हैं। लेकिन पिछले दो दशकों में हिंदी के सामाजिक भूगोल में एक नया पठार उभरा है और यह पठार उन नागरिकों का पर्यावास है जिन्होंने सिर्फ उच्च शिक्षा तथा सरकारी नौकरियों या कृपाओं के माध्यम से दृश्यता हासिल नहीं की है।

यह नागरिक समूह नौवें दशक के आरंभ में लागू की गयी नयी आर्थिक नीतियों के जटिल घात-प्रतिघातों के बीच पनपा और फला-फूला है। सामाजिक आचरण में रूढ़िवादी, व्यवहार में सामंती और जीवन शैली में उपभोक्तावादी इस समूह के लिए हिंदी की दशा के बारे में सोचना फिजूल की बात है। वह रात-दिन पैसा कूटने, घर बनाने, बच्चों को कामयाब बनाने और आधुनिक सुविधाओं के स्वप्नों या उन्हें हासिल करने की जुगत में लगा रहता है। उसे न हिंदी को लेकर गर्व है न उसे बचाने या संवारने की चिंता। हां, अलबत्ता अंगरेजी में पारंगत न होने की हीनता-ग्रंथि उसमें जरूर है। अपने बच्चों को वह हैसियत के अनुसार इंग्लिश मीडियम स्कूलों में भेजने लगा है। बच्चों के मुँह में ‘जॉनी जॉनी यस पापा’ या ‘ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार’ सुनकर यह नागरिक वर्ग लहालोट हो जाता है और अपने जीवन की सार्थकता पर चैन और संतुष्टि की एक लंबी सांस लेता है।

पहले की तरह यह वर्ग सामाजिक विज्ञानों को फालतू की चीज मानता है। इतिहास, राजनीति या समाजशास्त्र उसे जानने लायक लगते ही नहीं क्योंकि यह वर्ग अपने बारे में सोचना जरूरी नहीं समझता। उसके लिए कमाई और सामाजिक रुतबा सबसे बड़े पुरुषार्थ हो गये हैं। इस वर्ग का दिमाग छोटे-बड़े धर्म-गुरुओं के हाथों में है। धर्म और संस्कृति को अपनी समझ से नहीं बल्कि टीवी के धारावाहिकों या भगवती जागरण के माध्यम से जानता है। इस वर्ग की चिंता कुछ ऐसी है कि ‘ये ईलु ईलु क्या है’।

दिल्ली की ज्यादातर अनियोजित और घनी बस्तियों में इन ढाई-तीन दशक के दौरान कई तरह के अनौपचारिक काम-धंधे पनपे हैं। उदाहरण के लिए, यहां कपड़ों की रंगाई-पुताई, इलेक्ट्रानिक उपकरणों के पुर्जे बनाने या उन्हें एसेंबल करने का काम व्यवस्थित रूप ले चुका है। ऐसा नहीं है कि इन उद्यमों में लगे सारे लोग अमीर बन गये हैं। ज्यादातर लोग जीवन स्तर के आसपास ही मँडराते हैं। परंतु उनकी रुचि भी एक सफल उपभोक्ता बनने में ही ज्यादा होती है। मौका मिलते ही वे या तो भगवती जागरण कराते हैं या माता के बुलावे पर वैष्णो देवी के लिए निकल पड़ते हैं।

फिल्मी गीतों की तर्ज पर ढाले गये भजनों पर थिरकते इस वर्ग के लिए भाषा कोई मसला नहीं है। यह वर्ग बाजारवाद से जनमा है और उसी से निर्देशित-अनुकूलित होता है। ऐसे में सवाल यह बचता है कि हिंदी की चिंता में दुबले होनेवाले लोग कौन हैं?

समाज के वृहत्तर फलक को सामने रखें तो हिंदी अब सिर्फ कविता-कहानी या सामाजिक चिंतन की भाषा नहीं रह गयी है। वह अब बाजार की भाषा बन चुकी है। और बाजार के लिहाज से देसी बुद्धिजीवी वर्ग खुद ही हाशिये पर चला गया है। वह अगर अब भी खुद को प्रासंगिक बनाये हुए है तो सिर्फ अपनी नैतिक या वैचारिक प्रखरता के कारण, वरना राज्य और समाज की मुख्यधारा में उसकी कोई जगह बाकी नहीं बची है।

उदार अर्थव्यवस्था और बाजार ने जिन लालसाओं, सपनों और सुख की आकांक्षाओं को जन्म दिया है आज की हिंदी उन्हीं के इर्द-गिर्द बन रही है। इसलिए कभी वह ‘लिव लाइफ खुल के’ हो जाती है तो कभी ‘ये दिल मांगे मोर’ हो जाती है। यह खिलंदड़पन निश्चय ही सरकारी हिंदी की मनहूसियत से उबारता है लेकिन वह हमें अपने समाज की बुनियादी असमानताओं, बेरोजगारी, कूढ़मजगता और निजी स्वार्थों को किसी भी कीमत पर हासिल करने की महीन व स्वीकृत हो चुकी व्यवस्था पर सवाल खड़ा करने की कुव्वत नहीं देता। हिंदी अब इसी बाजार का पहिया है। अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि बाजार महज पैसे का लेनदेन नहीं होता, वह समाज के मानस में एक समूची संस्कृति के रूप में पैठ बनाता है।

चीजों की लालसा पैदा करने के लिए उन्हें सामान्यता के बासीपन से निकालकर चमकदार बनाना पड़ता है। हिंदी के सिक्के में जो चमक आजकल दिखाई दे रही है वह बाजार की चमक है। बाजार ने उसे अपना पहिया इसलिए बनाया है ताकि वह हिंदी पट्टी के विशाल उपभोक्ता वर्ग तक पहुंच सके।

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