— अव्यक्त —
1 नवंबर, 1931 की सुबह थी. लंदन में गुलाबी ठंड पड़ने लगी थी. कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के पेम्ब्रोक कॉलेज में एकदम सुबह से ही भीड़ जुटने लगी थी. यहां महात्मा गांधी बोलने आनेवाले थे. गांधी को यहां सुनने आनेवाले प्रमुख लोगों में ब्रिटिश इतिहासकार जेम्स एलिस बार्कर, ब्रिटिश राजनीति-विज्ञानी और दार्शनिक गोल्ड्सवर्दी लाविज़ डिकिन्सन, प्रसिद्ध स्कॉटिश धर्मशास्त्री डॉ. जॉन मरे और ब्रिटिश लेखक एवलिन रेंच इत्यादि शामिल थे.
गांधी के सहयोगी महादेव देसाई के मुताबिक गांधी की यह वार्ता अपने तय समय से कई घंटे अधिक समय तक चली थी. इस बैठक में गांधी खुलकर बोल रहे थे. बोलते-बोलते एक स्थान पर उन्होंने कहा, “मैं यह जानता हूं कि हर ईमानदार अंग्रेज़ भारत को स्वतंत्र देखना चाहता है, लेकिन उनका ऐसा मानना क्या दुःख की बात नहीं है कि ब्रिटिश सेना के वहां से हटते ही दूसरे देश उसपर टूट पड़ेंगे और देश के अंदर आपस में भी भारी मार-काट मच जाएगी? …आपके बिना हमारा क्या होगा, इसकी इतनी अधिक चिंता आपलोगों को क्यों हो रही है? आप अंग्रेज़ों के आने से पहले के इतिहास को देखें, उसमें आपको हिंदू-मुस्लिम दंगों के आज से ज्यादा उदाहरण नहीं मिलेंगे. …औरंगज़ेब के शासन-काल में हमें दंगों का कोई हवाला नहीं मिलता.”
उसी दिन दोपहर को कैम्ब्रिज में ही ‘इंडियन मजलिस’ की एक सभा में गांधी ने और स्पष्ट तरीके से कहा- ‘जब भारत में ब्रिटिश शासन नहीं था, जब वहां कोई अंग्रेज़ दिखाई नहीं देता था, तब क्या हिंदू, मुसलमान और सिख आपस में बराबर लड़ ही रहे थे?
हिंदू और मुसलमान इतिहासकारों द्वारा दिए गए विस्तृत और सप्रमाण विवरणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि तब हम अपेक्षाकृत अधिक शांतिपूर्वक रह रहे थे. और ग्रामवासी हिंदुओं और मुसलमानों में तो आज भी कोई झगड़ा नहीं है. उन दिनों तो उनके बीच झगड़े का नामो-निशान तक नहीं था.
स्वर्गीय मौलाना मुहम्मद अली, जो खुद एक हद तक इतिहासकार थे, मुझसे अक्सर कहा करते थे कि “अगर अल्लाह ने मुझे इतनी ज़िंदगी बख्शी तो मेरा इरादा भारत में मुसलमानी हुक़ूमत का इतिहास लिखने का है. उसमें दस्तावेज़ी सबूतों के साथ यह दिखा दूंगा कि अंग्रेज़ों ने गलती की है. औरंगज़ेब उतना बुरा नहीं था जितना बुरा अंग्रेज़ इतिहासकारों ने दिखाया है, मुग़ल हुक़ूमत इतनी खराब नहीं थी जितनी खराब अंग्रेज़ इतिहासकारों ने बताई है.”
ऐसा ही हिंदू इतिहासकारों ने भी लिखा है. यह झगड़ा पुराना नहीं है. यह झगड़ा तो तब शुरू हुआ जब हम ग़ुलामी की शर्मनाक स्थिति में पड़े.”
गांधी ने अपनी पहली किताब हिंद स्वराज में ही इसपर विस्तार से लिखा था कि भारत का इतिहास लिखने में तत्कालीन विदेशी इतिहासकारों ने दुर्भावना और राजनीति से काम लिया था. मुग़ल बादशाहों से लेकर टीपू सुल्तान तक के इतिहास को तोड़-मरोड़कर हिंदू-विरोधी दिखाने की कोशिशों का गांधी कई बार पर्दाफाश कर चुके थे.
लेकिन औरंगज़ेब के बारे में जो सबसे बड़ी बात महात्मा गांधी को खींचती थी, वह थी औरंगज़ेब की सादगी और श्रमनिष्ठा. 21 जुलाई, 1920 को ‘यंग इंडिया’ में लिखे अपने प्रसिद्ध लेख ‘चरखे का संगीत’ में गांधी ने कहा था, “पंडित मालवीयजी ने कहा है कि जब तक भारत की रानी-महारानियां सूत नहीं कातने लगतीं, और राजे-महाराजे करघों पर बैठकर राष्ट्र के लिए कपड़े नहीं बुनने लगते, तब तक उन्हें संतोष नहीं होगा. उन सबके सामने औरंगज़ेब का उदाहरण है, जो अपनी टोपियां खुद ही बनाते थे.”
इसी तरह 20 अक्तूबर, 1921 को गुजराती पत्रिका ‘नवजीवन’ में उन्होंने लिखा, “जो धनवान हो वह श्रम न करे, ऐसा विचार तो हमारे मन में आना ही नहीं चाहिए. इस विचार से हम आलसी और दीन हो गए हैं. औरंगज़ेब को काम करने की कोई ज़रूरत नहीं थी, फिर भी वह टोपी सीता था. हम तो दरिद्र हो चुके हैं, इसलिए श्रम करना हमारा दोहरा फर्ज है.”
ठीक यही बात वह 10 नवंबर, 1921 के ‘यंग इंडिया’ में भी लिखते हैं, “दूसरों को मारने का धंधा करके पेट पालने की अपेक्षा चरखा चलाकर पेट भरना हर हालत में ज्यादा मर्दानगी का काम है. औरंगज़ेब टोपियां सीता था. क्या वह कम बहादुर था?”
लेकिन औरंगज़ेब के बारे में जो सबसे अद्भुत बात गांधी ने कही थी, वह कही थी उड़ीसा के कटक की एक सार्वजनिक सभा में जिसमें खासतौर पर वकीलों और विद्यार्थियों ने भाग लिया था.
इसमें गांधी ने इशारा किया था कि अंग्रेज़ों के शासनकाल में भारतीय मानसिक रूप से ग़ुलाम हो गए और उनकी निर्भीकता और रचनात्मकता जाती रही. जबकि मुग़लों के शासन में भारतीयों की स्वतंत्रचेतना और सांस्कृतिक स्वतंत्रता पर कभी आंच नहीं आई.
24 मार्च, 1921 को आयोजित इस कार्यक्रम में महात्मा गांधी के शब्द थे, “अंग्रेज़ों से पहले का समय ग़ुलामी का समय नहीं था. मुग़ल शासन में हमें एक तरह का स्वराज्य प्राप्त था. अकबर के समय में प्रताप का पैदा होना संभव था और औरंगज़ेब के समय में शिवाजी फल-फूल सकते थे. लेकिन 150 वर्षों के ब्रिटिश शासन ने क्या एक भी प्रताप और शिवाजी को जन्म दिया है? कुछ सामंती देशी राजा जरूर हैं, पर सब-के-सब अंग्रेज़ कारिंदे के सामने घुटने टेकते हैं और अपनी दासता स्वीकार करते हैं.”
सादगी और श्रमनिष्ठा के प्रतीक वे औरंगज़ेब जिनके राज में कभी दंगे नहीं हुए. और औरंगज़ेब की सादगी के बरक्श हमारे कुछ नेताओं की सज-धज चीथड़ों में लिपटे भारत के फटेहाल ग़रीबों को मुंह भी चिढ़ाती हो सकती है. क्या आज के हमारे शासकों के दरबार में बीरबल जैसा कोई मुंहफट दरबारी हो सकता है, जो सच बोलने में जरा भी घबराता न हो? क्या यह वही जनक और याज्ञवल्क्य का भारत है?