प्रेमचंद की अंतिम यात्रा और बनारस

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— शंभू नाथ —

प्रेमचंद की शवयात्रा में कितने व्यक्ति थे और ’आज’ तथा अमृत राय में कौन ज्यादा प्रामाणिक है, इनसे कुछ अन्य सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। बनारस छोड़िए, उत्तर प्रदेश में कितने पुल, विश्वविद्यालय, महत्वपूर्ण सड़कें और अस्पताल प्रेमचंद के नाम पर हैं?
रवींद्रनाथ की जयंती पर जितना उत्साह बंगाल की गली–गली, शहर–शहर में दिखता है उसका कितना प्रतिशत प्रेमचंद की जयंती पर उत्तर प्रदेश या अन्य हिंदी प्रदेशों में दिखता है?

प्रेमचंद की जन्मभूमि लमही को रवींद्रनाथ की जन्मभूमि कोलकाता के जोड़ासांको की तरह कितनी इज्जत मिली हुई है, वहां कितने उत्साह से कितने सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं? लमही की क्या दशा है?

बनारस ने बुद्ध को देखा है, कबीर को देखा है। बुद्ध और कबीर निर्भीकता से अपनी बातें सारनाथ–वाराणसी में कह सके थे और किसी ने उनकी क्षति नहीं की। यह वाराणसी का गौरव है! फिर इसी बनारस में दयानंद सरस्वती के साथ काशी के पंडितों ने शास्त्रार्थ (1869) में जो बुरा सलूक किया, वह भी इसी शहर की घटना है।

बनारस में प्रेमचन्द, प्रसाद, रामचंद्र शुक्ल जैसे लेखकों की एक उज्ज्वल परंपरा है, फिर हजारी प्रसाद द्विवेदी के साथ जो घटित हुआ, वह भी इसी शहर की घटना है!

प्रेमचंद की शवयात्रा में कितने व्यक्ति थे 25 या 100, यह गिना जा सकता था। इसी पर शर्म आनी चाहिए कि इतने महान कथाकार की अंतिम यात्रा में शामिल लोग गिने जा सकते थे! क्या श्री व्योमेश शुक्ल ने कभी दूसरे प्रदेशों के उसी दौर के महान साहित्यकारों की शवयात्रा में जन समुद्र की बात सुनी है?

हिंदी साहित्यकार हिंदी प्रदेशों में कितने सम्मान से देखे जाते रहे हैं और आज भी उनका कितना सम्मान है, यह किसी से छिपा नहीं है। 55 करोड़ की हिंदी आबादी में हिंदी के कितने साहित्यिक पाठक हैं और पुस्तकों की कितनी प्रतियां छपा करती हैं या ऑनलाइन पढ़ी जाती हैं, यह भी किसी से छिपा नहीं है।

कोई भी साहित्यिक आंदोलन, भक्ति आंदोलन तक यहां के लोगों को उतना नहीं छू पाया, जितना मंदिर के घंटे सुने गए , अबूझ मंत्रोच्चार सुने गए और आजकल फिल्मी धुन पर भजन या धार्मिक प्रवचन सुने जाते हैं!

हमारे महान प्राचीन कवि और महान आधुनिक साहित्यकार हमारी सांस्कृतिक आँखें हैं और जो समाज अपने महान साहित्यकारों की परवाह नहीं करता, उसे अंधा होने में देर नहीं लगती!

इस बिंदु पर हिंदी समाज के लोगों को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए कि उन्होंने भोगी महंतों– प्रवचनकर्ताओं को ज्यादा सम्मान दिया या कवियों–साहित्यकारों को?

हमें प्रेमचंद से संबंधित अभिमतों के संसार में अब दूसरे कमल किशोर गोयनका की जरूरत नहीं है। हालांकि गोयनका जी ने मेहनत से उनकी कई दुर्लभ रचनाएं ढूंढ़ी हैं, उनकी इस बात की हम सराहना करते हैं!


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