— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
कनाट प्लेस (अब राजीव चौक) का इन्डियन कॉफी हाउस, जहाँ अब नई दिल्ली का भूमिगत पालिका बाज़ार है, पहले वहाँ पर थियेटर कम्न्यूकेशन बिल्डिंग होती थी, उसकी बगल में यह कॉफी हाउस बना हुआ था। 1976 के आपातकाल में इसे तोड़ दिया गया था। मैं दिल्ली की तिहाड़ जेल में मीसाबंदी था। जेल में सुनने को आया था कि इसको संजय गाँधी के आदेश पर तोड़ दिया गया है, क्योंकि उनको यह खबर दी जाती थी कि यह कॉफी हाउस कांग्रेस सरकार के विरोध का एक बहुत बड़ा अड्डा है। काफी हाउस के टूटने की खबर को जानकर जेल के साथियों को ऐसे लगा था कि मानों हमारा घर गिरा दिया गया है। कनाट प्लेस के टैन्ट हाउस के कॉफी हाउस से सोशलिस्टों का गहरा संबंध रहा है।
1897 के आसपास बरतानिया हुकूमत के समय कॉफी हाउस परंपरा शुरू हुई थी, उस समय कॉफी हाउस में किसी हिंदुस्तानी को जाने की इजाजत नहीं थी। केवन यूरोपियन ही इसमें जा सकते थे। 1936 में इण्डियन कॉफी हाउस की श्रृंखला बनी। दिल्ली में जनपथ के पास से इसकी शुरुआत हुई। कॉफी बोर्ड ने कॉफी की कीमत बढ़ाकर 8 आने (आज के 50 पैसे) कर दी इसके खिलाफ नियमित रूप से कॉफी हाउस आने वालों ने पी. आर. आर. एम. अर्थात् प्राइस राइज रिजिसटॅन्स मूमेन्ट आरंभ कर दिया। दिल्ली के पत्रकार इन्दर वर्मा इसके संयोजक थे। 1950 में कॉफी बोर्ड ने इसे बंद करने का निर्णय ले लिया। यहाँ के कामकारों ने इसके विरुद्ध हड़ताल शुरू कर दी। डॉ. लोहिया ने हड़ताल पर बैठे वर्करों को साथ में चल रहे समाजवादी साथी से पैसे लेकर कामगारों को देते हुए कहा कि केतली कप-प्लेट और अंगीठी का इंतजाम करो और अपना काम शुरू करें। लोहिया जी की प्रेरणा से कामकारों ने सड़क पर कॉफी तैयार कर बेचने का काम शुरू कर दिया। कामगारों ने इण्डियन कॉफी वर्कर कॉपरेटिव सोसायटी की स्थापना कर ली। शुरू में थियेटर कम्यूनेकेशन बिल्डिंग में इसको जगह मिल गई, जगह बहुत कम थी, साथ में खाली पड़ी जगह में 27 दिसंबर 1957 को टैन्ट वाले कॉफी हाउस की स्थापना हुई।
कनाट प्लेस में खालसा टैन्ट हाउस के मालिक एक नामधारी सिक्ख होते थे, उन्होंने किराये पर कॉफी हाउस में टेन्ट लगा दिया। इस कॉफी हाउस में छत के नाम पर कपड़े का टैन्ट लगा रहता था, फर्श के स्थान पर पत्थर की रोड़ी बिछी रहती थी। कॉफी की कीमत चार आने ,(आज के 25 पैसे) तथा बड़े की कीमत भी चार आने थी। छात्र जीवन में, मैं तकरीबन रोजाना कॉफी हाउस जाता था, टेन्ट के नीचे पुरानी साधारण सी मेंजे बिछी रहती थी, उसके चारों ओर हर मेज के साथ 4-6 कुर्सियाँ पड़ी होती थी।
कॉफी हाउस में घुसते ही बांयी ओर नीचे जमीन पर बैठकर दो मोची जूतों की मरम्मत तथा पोलिश का काम करते थे, कॉफी हाउस आने वाले, कॉफी पीने के साथ-साथ अपने जूतों की मरम्मत तथा पोलिश भी करवा लेते थे। अस्थायी रूप से दो स्टालों में दैनिक समाचारपत्रों, पुस्तिकाओं, पत्रिकाओं की बिक्री होती थी एक स्टाल में स्टेशनरी का सामान भी बिकता था, पान का भी एक स्टाल होता था। बाद में दो हो गए थे। कॉफी हाउस के बाहर खुली ईटों की लगभग तीन फुट ऊंची दीवार बनी हुई थी। सुबह से लेकर रात्रि तक कॉफी हाउस खचाखच भरा रहता था, खूब गहमा-गहमी रहती थी। वहाँ का बड़ा रोचक नज़ारा होता था। दिल्ली शहर के हर वर्ग के लोग आते थे, बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकार, कलाकार, नाट्यकर्मी,संगीतकार के साथ-साथ, राजनैतिक कार्यकर्ताओं तथा दिन के वक्त दफ्तर के बाबूओं का हुजूम वहाँ जमा रहता था। कनाट प्लेस जैसे स्थान पर जहाँ बड़े-बड़े नामी महंगे रेस्टोरेंट थे वे साधारण लोगों की पहुँच से बाहर होते थे।
संभ्रांत होटलों और रेस्टोरेंट में जोर आवाज़ में बोलना, अभद्रता का प्रतीक माना जाता था तथा वहाँ के वेटर ऑर्डर लेने के लिए सिर पर खड़े रहते थे तथा बार-बार पूछते थे कि कुछ चाहिए यानि अब बिल चुकाओ और जाओ, परंतु टैन्ट वाले कॉफी हाउस का नज़ारा इससे बिल्कुल उलट होता था। कई ऐसे इंसान होते थे, जो कॉफी हाउस के शुरू होने के पहले ही बाहर की दीवार पर विराजमान होते थे, जब रात्रि को कॉफी हाउस के बंद होने का संकेत अर्थात् बिजली बंद होती थी तब तक वे वहीं पर जमें रहते थे सारे दिन में कोई आपसे यह पूछने वाला नहीं होता था कि आप क्या कर रहे है। कॉफी हाउस दिल्ली का सबसे बड़ा राजनैतिक वैचारिक मुठभेड़ों का अड्डा होता था, कई मेजें बिना रिजर्व किए भी एक प्रकार से रिजर्व होती थी, कम्यूनिस्टों, सोशलिस्टों तथा कुछ पुराने प्रगतिशील कांग्रेसी वहाँ नियमित रूप से आते थे वे अलग-अलग भी तथा सामूहिक ग्रुपों में भी बैठते थे। सम-सामयिकी विषयों पर ज़ोर-शोर से बहस चलती रहती थी। दिल्ली के बाहर से आने वाला लगभग हर सोशलिस्ट नेता, कार्यकर्ता, अगर टैंट वाले कॉफी हाउस न आए तो समझो कि उसका दिल्ली आगमन निरर्थक है। उस समय कम्यूनेकेशन के साधन के नाम पर केवल दैनिक अखबार, पत्र-पत्रिकाएं सरकारी रेडियो ही होते थे। परंतु दिल्ली अथवा देश में आज क्या घटना घटी है उसकी खबर कॉफी हाउस में किसी न किसी के माध्यम से पहुँच जाती थी। दिल्ली के समाजवादियों का दफ्तर तो एक मायने में यही कॉफी हाउस होता था। जब मीटिंग करनी होती थी तो सामने के मैदान में बैठकर चर्चा हो जाती थी। दिल्ली और बाहर से आने वाले किसी सोशलिस्ट को अगर आर्थिक संकट होता था, तो वह कॉफी हाउस आ जाता था, उसको पता था कि सायंकाल वहाँ पर अपने
लोग मिलेंगे। आपस में पैसा इकट्ठा करके साथी की मदद करने का कार्य भी होता था।
कॉफी हाउस की मुंडेर पर एक समाजवादी साथी पूर्णसिंह, काले रंग का मोटे से कपड़े से बना कमीजनुमा कुर्ता तथा ढीला सा पायजामा रूपी पैन्ट पहने रहते थे उनके काले कपड़े के कुर्ते पर स्थायी रूप से सफेद लाल पैंट से पुलिस, सरकार के विरुद्ध लिखा रहता था, वे हाथ में लाल झण्डे को डंडे में लटका कर कभी खड़े होकर तथा कभी बैठकर बीच-बीच में नारे अथवा बोलते रहते थे। कौन सोशलिस्ट अभी तक आया है या नहीं इसकी जानकारी उनसे मिल जाती थी।
कॉफी हाउस कई लोगों तथा संस्थाओं के लिए स्थायी कार्यालय का भी कार्य करता था। दिल्ली के मशहूर मज़दूर नेता जे. एस. दारा नई दिल्ली म्यूनिस्पिल कमेटी वर्कर यूनियन के अध्यक्ष थे, वे अपना दफ्तर कॉफी हाउस में बैठकर ही चलाते थे। दिल्ली सफाई कर्मचारी यूनियन के संस्थापक अध्यक्ष रामरक्खामल जी भी कॉफी हाउस में अपने से मिलने वालों को बुलाते थे। कॉफी हाउस में नियमित रूप से आने वालों में 3-4 लोगों को भुलाया नहीं जा सकता। प्रसिद्ध वकील तथा कांग्रेसी नेता, जो दिल्ली विधान सभा के सदस्य भी रहे थे। कँवरलाल शर्मा जो बहुत जबरदस्त किस्सागो थे, उनके इर्द-गिर्द महफिल जुटीं रहती थी। इसी तरह दिल्ली सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष रहे मास्टर नुरुद्दीन किस्से सुनाने तथा सोशलिस्टों के कॉफी के बिल चुकाने की जिम्मेदारी इन्हीं की रहती थी परंतु मास्टर जी के किस्सागोई में, रोकने टोकने की सख्त मनाही होती थी।
दिल्ली के इतिहास में जगप्रवेश चंद जी का नाम कभी भूलाया नहीं जा सकता, ये कई बार विधायक तथा मुख्य कार्यकारी पार्षद (मुख्यमंत्री, दिल्ली) भी रहे थे। अविवाहित भी थे, ये थे तो कांग्रेसी परंतु नियमित कॉफी हाउस आते थे। टैन्ट वाले कॉफी हाउसके टूट जाने के बाद, एकमात्र इनके प्रयास से बाबा खड़क सिंह मार्ग,कनाट प्लेस पर हनुमान मंदिर के सामने बने हुए दिल्ली सरकार द्वारा संचालित ‘कॉफी होम’ का निर्माण हुआ, मुझे याद है कि जिस दिन कॉफी हाउस की शुरुआत हुई, उन्होंने खुद काउन्टर पर खड़े होकर एक-एक कप कॉफी अपने हाथों से ग्राहकों को दी तथा आखिर में हम चार-पाँच लोगों के लिए जेब से पैसे देकर कॉफी बड़े मंगाकर अपने निजी जीवन के कुछ रंगीन किस्से सुनाकर ठहाके लगाए, मैंने हंस कर कहा ‘जगप्रवेश जी इन तिलों में कुछ तेल था या हम ही आपको मिले है,इन गप्पों को सुनाने के लिए हँसते हुए उन्होंने कहा कि ‘सोशलिस्ट’ कल की बात नहीं है। आज भी जलवा वैसा ही बरकरार है। दिल्ली में बड़े से बड़े पद पर रहकर भी वो कितने विनम, सहज, घुलमिल जाने वाले तथा विशेष रूप से विरोधी पार्टी के कार्यकर्ताओं से पद तथा उम्र का बंधन ढीला करते हुए बर्ताव करते थे। इसी तरह के व्यक्तित्व के धनी सोशलिस्ट नेता ब्रजमोहन तूफान थे, जो मुसलसल कॉफी हाउस आते थे, हिंदुस्तान की सोशलिस्ट तहरीक में उनका बहुत
ऊँचा मुकाम था। जगप्रवेश चंद जी और तुफान साहब में भी गहरी मित्रता थी। तुफान साहब भी अविवाहित थे । तूफान साहब से मिलने पर आंदोलन में मर मिटने का जज्बा पैदा हो जाता था। वो उच्च कोटि के विद्वान, अंग्रेज़ी, हिंदू, उर्दू में उनकी कई किताबें छप चुकी है, उनके भाषण से किसी में भी जोश भर सकता था।निजी जीवन के किस्सों में वो जगप्रवेश चंद जी से भी बहुत आगे थे।
कॉफी हाउस में महिलाएं कम ही आती थी। उन दिनों विदेशों में ‘हिप्पीवाद’ की लहर थी। कॉफी हाउस में भी विदेशी हिप्पी फटे पुराने कपड़े बढ़े हुए बाल दाढ़ी बिना नहाए -धोए, लड़के-लड़कियां भी आते रहते थे, इनके साथ-साथ कुछ हिंदुस्तानी नौजवान भी इसी तरह के फैशन में शामिल होकर कॉफी हाउस पहुँच जाते थे।कॉफी हाउस में एक मजेदार मंजर भी देखने को मिलता था। कॉफी हाउस में चीनी अलग से रक्खी रहती थी। उस पर किसी प्रकार की रोक-टोक नहीं थी। कई महाशय पानी के गिलास में मुफ्त की चीनी मिलाकर पीने का कार्य भी करते रहते थे। कई बार मैंने देखा कि जेब से कटा हुआ निम्बू निकाला, निचौड़ा, चीनी मिलाई शरबत बना कर पी लिया।
टेन्ट वाले कॉफी हाउस के बराबर में थियेटर कम्यूनिकेशन बिल्डिंग थी। कॉफी हाउस के साथ इसका भी गहरा रिश्ता था। बिल्डिंग में कई तरह की संस्थाओं के दफ्तर चलते थे। भू.पू. प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर की पत्रिका ‘यंग इण्डिया’ का दफ्तर भी इसमें था, वहाँ पर काम करने वाले तथा आने जाने वाले लोग चन्द्रशेखर जी के साथ कॉफी हाउस आते रहते थे। भू.पू. संसद सदस्य सुभद्रा जोशी का सांप्रदायिकता विरोधी संगठन का दफ्तर भी वहीं पर था। ‘अखिल भारतीय नशाबंदी परिषद् का कार्यालय भी इसी भवन में था। जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष भू.पू. प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई थे तथा महामंत्री रूपनारायण जी, रूप जी दिल्ली के बहुत ही आदरणीय सोशलिस्ट नेता थे। वो कॉफी हाउस नियमित रूप से आकर शिकायत करते थे कि नशाबंदी दफ्तर के बरामदे में शराब की खाली बोतलें पड़ी होती है सबसे पहले मुझे उन्हें उठवाना पड़ता है क्योंकि उन दिनों रेस्टोरेंट में शराब पीने पर बंदिश लगी हुई थी। एक बार रूप जी ने एक प्रमुख पत्रकार से कहा कि शराब बंदी परिषद् का सालाना सम्मेलन होने वाला है आप एक प्रस्ताब लिख दो पत्रकार महोदय ने कहा बेशक रूप जी बस एक कार्य कर दो। एक बोतल मंगवा दो, फिर देखो पीकर में कैसा जानदार प्रस्ताव लिखूँगा।
कॉफी हाउस में साधारण कार्यकर्ताओं के साथ-साथ अनेकों राष्ट्रीय नेता भी कॉफी हाउस में आते रहते थे। लोकसभा, राज्यसभा में बने नये-नये सदस्य जब दिल्ली आते थे तो कनाट प्लेस में घूमने के साथ-साथ कॉफी हाउस भी आते थे। शुरुआती दौर में डी.एम. के नेता श्री अन्नादुराई, कम्युनिस्ट नेता भूपेश गुप्त,सोशलिस्ट नेता सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी, बम्बई के सोशलिस्ट मज़दूर नेता पीटर अल्वारिस, सोशलिस्ट नेता हरिविष्णु कायन्य, जनसंघ के प्रो. बलराज मधोक, भू.पू. प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल जो उस समय नई दिल्ली नगर पालिका के चैयरमेन थे। कांग्रेस के प्रसिद्ध वकील एवं भू.पू. केंद्रीय मंत्री हंसराज भारद्वाज इत्यादि होते थे। मैंने दो बार डॉ. राममनोहर लोहिया को कॉफी हाउस आते देखा था। प्रथम बार डॉ॰ साहब के साथ विश्व प्रसिद्ध पेंटर मकबूलफिदा हुसैन, जो कि नंगे पैर थे तथा प्रो॰ रमा मित्रा, साहित्यकार श्रीकांत वर्मा, प्रसिद्ध काटूर्निस्ट राजेन्द्र पुरी थे। दूसरी बार, हैदराबाद से आए हुए बदरी विशाल पित्ती, दिल्ली के प्रसिद्ध वकील प्राणनाथ लेखी तथा मनीराम बागड़ी (भू.पू् संसद सदस्य) उर्मिलेश झा (निजी सचिव) इत्यादि थे। डॉ॰ साहब के कॉफी हाउस में आते ही हलचल बढ़ जाती थी। उनकी मेज के इर्द-गिर्द जमघट हो जाता था। कॉफी हाउस के कामगारों को जैसे ही पता चलता कि डॉ॰ लोहिया आये है वे अपना काम छोड़कर डॉ॰ साहब को नमस्कार करने तथा उनके पैर छूने का प्रयास करते थे परंतु डॉ॰ साहब पैर छूने को सख्ती से मनाई करते थे। उस समय मौजूद अन्य पार्टियों के लोग बड़ी बेसब्री से डॉ॰ साहब से जानकारी लेने का प्रयास करते थे, डॉ॰ साहब केसाथ आए समाजवादी बातचीत को रोकने का प्रयास करते थे ताकि डॉक्टर साहब इत्मीनाम से काफ़ी पी सके।
12 अक्टूबर 1967 को डॉ॰ साहब के देहावसान के बाद उनकी शवयात्रा कनाट प्लेस होकर कॉफी हाउस के सामने से गुजरने लगी तो सारा काफी हाउस सड़क पर बाहर आकर नतमस्तक होकर उनको नमन करने लगा। काफी हाउस के वर्करों ने शवयात्रा के वाहन को रोकर एक बड़े फूलों के चक्र के साथ अश्रुपूरित नयनों के साथ अपनी श्रद्धाजंलि अर्पित की थी। कॉफी हाउस में कई दिनों तक डॉ॰ साहब पर चर्चा होती रही जो पहले आलोचक भी थे, वो भी अब इनकी प्रासंगिकता को अनिवार्य मान रहे थे।