
।। एक ।।
कांशीराम की पुण्यतिथि पर बहुजन राजनीति के अर्थ को फिर से समझने की ज़रूरत है। वे उस भारत से निकले व्यक्ति थे जो जाति की परछाइयों में पिस रहा था पर उन्होंने उन्हीं परछाइयों को पहचान का उजाला बना दिया। उनका सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने वंचितों को ‘करुणा’ नहीं, ‘शक्ति’ में रूपांतरित किया। पर आज जब उनकी विरासत का राजनीतिक रूप बहुजन समाज पार्टी के रूप में सामने है, तो प्रश्न उठता है — क्या यह पार्टी अब भी वही ऊर्जा, वही वैचारिक साहस, वही सामाजिक पुनर्संरचना की आकांक्षा रखती है?
बहुजन समाज पार्टी एक समय भारत की सबसे प्रभावशाली सामाजिक-राजनीतिक परियोजना थी। उसने दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को एकजुट कर सत्ता के केंद्र तक पहुँचने का सपना नहीं बल्कि वास्तविकता गढ़ी। 1995 से 2012 के बीच बसपा ने उत्तर प्रदेश की राजनीति को निर्णायक रूप से बदल दिया। पर कांशीराम के जाने और मायावती के एकमात्र नेतृत्व के स्थायी हो जाने के बाद यह आंदोलन पार्टी में सिमट गया और पार्टी धीरे-धीरे व्यक्ति-केन्द्रित सत्ता में बदल गई। जो आंदोलन “बहुजन” की आवाज़ था, वह “मायावती” की छवि में सीमित हो गया।
राजनीतिक दृष्टि से बसपा की सबसे बड़ी कमजोरी उसकी संगठनात्मक जड़ता है। वह अब आंदोलन नहीं केवल चुनावी मशीन बनकर रह गई है। दलित मतदाता, जो कभी कांशीराम के “बहुजन हिताय” के आह्वान पर एकजुट होता था, अब कई हिस्सों में भाजपा, सपा, यहाँ तक कि कांग्रेस तक में बिखर चुका है। भाजपा ने दलित गौरव और ‘सुविधानुसार प्रतिनिधित्व’ की रणनीति से बसपा के आधार को भीतर से खोखला कर दिया है। सपा ने यादव-मुस्लिम समीकरण के साथ पिछड़ों को आकर्षित किया और बसपा के लिए राजनीतिक जगह संकरी होती गई।
रणनीतिक दृष्टि से मायावती की सबसे बड़ी चूक यह रही कि उन्होंने सामाजिक परिवर्तन के नैरेटिव को प्रशासनिक छवि से बदल दिया। कांशीराम का नारा था “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” — पर मायावती के दौर में यह “व्यक्तिगत नेतृत्व” में बदल गया। यह वही बिंदु है जहाँ से पार्टी ने अपनी आत्मा खो दी।
आज के समय में बहुजन राजनीति की पुनर्रचना की संभावनाएँ हैं पर वह पुराने प्रतीकों से नहीं, नए सामाजिक गठबंधनों से निकलेंगी। दलित राजनीति अब सिर्फ उत्पीड़न के अनुभव पर नहीं बल्कि अवसरों, शिक्षा और शहरी अस्मिता के प्रश्नों पर आधारित है। बसपा ने इन नए मुद्दों पर लगभग मौन साध रखा है। दूसरी ओर, भाजपा ने ‘समावेशी हिंदुत्व’ के नाम पर दलित प्रतीकों को अपने विमर्श में समाहित कर लिया है — चाहे वह अंबेडकर हों, संत रविदास या सुहेलदेव।
फिर भी, कांशीराम की जयंती पर यह मानना भूल होगी कि उनकी राजनीति अप्रासंगिक हो गई है। आज जब जाति-संरचना फिर से अपने नए रूपों में लौट रही है — जब आरक्षण, सामाजिक सम्मान और राजनीतिक प्रतिनिधित्व जैसे सवाल फिर प्रखर हैं — तब कांशीराम का विचार और भी ज़रूरी हो जाता है। फर्क बस इतना है कि अब उनके विचार को भाषणों में नहीं, रणनीति और संगठन में जीवित करना होगा।
बसपा का भविष्य अब इस बात पर निर्भर करेगा कि वह अपने भीतर कितनी वैचारिक आत्मालोचना कर पाती है। क्या वह कांशीराम के ‘बहुजन’ को पुनः सामाजिक आंदोलन बना पाएगी या चुनावी प्रासंगिकता की दौड़ में एक स्मारक पार्टी बन जाएगी? यदि मायावती नेतृत्व साझा करने, नए चेहरे आगे लाने और डिजिटल युग की राजनीतिक भाषा अपनाने में सक्षम होती हैं तो बसपा फिर से एक नैरेटिव रच सकती है पर यदि यह केंद्रीकरण जारी रहा तो आने वाले चुनावों में बसपा की भूमिका प्रतीकात्मक से अधिक नहीं रह जाएगी।
कांशीराम का सपना सत्ता में हिस्सेदारी का नहीं था बल्कि सत्ता के अर्थ को बदलने का था। आज उनकी जयंती पर यही सबसे बड़ा प्रश्न है — क्या बहुजन समाज पार्टी उस दृष्टि को पुनः जीवित कर सकती है या वह उस दृष्टि की समाधि के रूप में दर्ज होगी? राजनीति बदल सकती है, पर विचार तभी जीवित रहते हैं जब वे अपने समय से संवाद करते हैं। बहुजन राजनीति के लिए यही संवाद अब जीवन-मृत्यु का प्रश्न बन गया है — एक आंदोलन जो अपने निर्माता से बहुत दूर चला गया है, उसे या तो पुनः जनता से जुड़ना होगा या इतिहास उसे स्मारकों की ठंडी ईंटों में संचित कर देगा।
।। दो।।
आज की मीडिया रिपोर्ट्स और उपलब्ध स्रोतों के आधार पर मायावती के व्याख्यान का विश्लेषण करें तो उन्होंने अपने आज के व्याख्यान में आक्रामक रुख अपनाया है — उन्होंने सपा और कांग्रेस पर आरोप लगाये हैं कि वे कांशीराम की जयंती की “राजनीतिक नकल” कर रहे हैं, जबकि उन्होंने खुद कभी सम्मान नहीं दिखाया। इस आरोपोक्ति ने यह संदेश दिया कि बसपा अभी भी कांशीराम की असली प्रतिनिधि है और अन्य दलों की नीयत पहचान रही है।
उनका यह भाषण दावेदारी की भूमिका निभाने का संकेत है — वह यह दिखाना चाहती हैं कि बसपा ही वह पार्टी है जो ‘विरासत’ की ज्योति को जलाए रख सकती है। इससे उनका उद्देश्य दो-तरफा है:
अपने समर्थकों को पुनर्स्थापित विश्वास देना कि बसपा अब भी सक्रिय और नेतृत्व करने वाली पार्टी है। विरोधियों पर यह दबाव डालना कि वे केवल नकल-नुमा श्रद्धांजलि उठा रहे हैं, न कि वास्तविक सम्मान।
मायावती ने विशेष रूप से यह मुद्दा उठाया कि सपा ने कई संस्थाओं, नामों, जिला-निर्माण आदि में कांशीराम के नाम को या स्मृति को पीछे धकेलने या बदलने का काम किया है। यह एक रणनीति है — वह अपने विरोधियों को ‘असत्यापनकर्ता’ की भूमिका देना चाहती हैं, ताकि उनका भाषण सामरिक अंग बन सके, न कि केवल स्मरणोत्सव।
इसके अलावा, इस व्याख्यान में यह संभावना बहुत अधिक है कि उन्होंने नई संगठनात्मक योजनाएँ और आगे के रोडमैप का संकेत भी दिया हो। मीडिया रिपोर्ट्स संकेत देती हैं कि पार्टी कार्यकर्ताओं को तैयार किया जा रहा है, बड़े रैली के रूप में इसे शक्ति प्रदर्शन के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा।
उनका यह रुख दो तरह की छवि को स्थापित करता है — एक, जो विरोधियों को कटु आलोचना करती है; और दूसरी, जो खुद को निष्क्रिय नहीं, बल्कि सक्रिय पुनरुत्थानकर्ता के रूप में पेश करती है। सफल भाषण तब माना जायेगा जब यह केवल विरोधियों की आलोचना न हो, बल्कि नए सामाजिक एवं विकास-आधारित एजेंडे को भी प्रस्तुत कर सके — जैसे शिक्षा, रोज़गार, सम्मान, न्याय आदि।
यह रैली कांशीराम की पुण्यतिथि पर आयोजित की गई है, जो कि BSP की राजनीतिक और वैचारिक विरासत का प्रतीक आयोजन है। BSP पिछले कई वर्षों से चुनावों में महत्वपूर्ण झटका झेल चुकी है — विधानसभा और लोकसभा में सीटें और वोट शेयर दोनों में गिरावट आई है। इस रैली को “शक्ति प्रदर्शन” के रूप में देखा जा रहा है — यह संदेश देना कि BSP अभी भी अपना सामाजिक आधार (खासकर दलित, पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक) बरकरार रखना चाहती है और 2027 के विधानसभा चुनावों के लिए तैयार हो रही है।
इस रैली में मायावती और उनके भतीजे अकाश आनन्द को एक मंच पर लाया जाना, पार्टी नेतृत्व और संगठनात्मक बदलाव की ओर संकेत माना जा रहा है।
रैली / मायावती के भाषण से सामने आए , ये प्रमुख तत्त्व :
मायावती ने अन्य दलों को आरोप दिया कि वे सिर्फ दिखावे के लिए संविधान हाथ में उठाते हैं, जबकि असल काम नहीं करते।
सपा (अखिलेश यादव) की PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) राजनीति को उन्होंने “झूठ” करार दिया।
उन्होंने कांग्रेस और बीजेपी को भी निशाने पर लिया और कहा कि ये दोनों ही बहुजन समाज को शोषित करती हैं।
मायावती ने कहा कि केवल BSP ही वह पार्टी है जो द्रष्टा व आदर्श रूप से कांशीराम और अम्बेडकर के विचारों पर चलती है।
रैली का स्वरूप “श्रद्धा ~ कार्यक्रम” बताया गया है—मतलब यह सिर्फ रैली नहीं, एक यादगार आयोजन भी है।
पार्टी का ये भी संदेश है कि वह गठबंधन में नहीं जाएगी बल्कि स्वावलंबी लड़ाई लड़ेगी।
बड़ी संख्या में पुलिस/सुरक्षा बल तैनात किए गए हैं — आयोजन की गंभीरता और संभव चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए।
मंच पर चुनिंदा “छह खास नेता” बैठाए जाने का निर्णय, यह दिखाता है कि पार्टी नेतृत्व में नए चेहरे और संगठनात्मक पुनर्संरचना की तैयारी है।
“आई लव BSP” पोस्टर, दीवारों पर लिखावट आदि, ये सभी आयोजन से पहले की मजबूत तैयारियों / जनसमूह जुटाने की रणनीति दर्शाते हैं।
यह रैली BSP को एक प्रतीकात्मक पुनरुत्थान का अवसर देती है — यह दिखाने का कि पार्टी अभी भी अस्तित्व में है, अपना कद मध्य दिखा सकती है”। यदि समर्थकों की आमद अच्छी हुई है तो यह दलील बढ़ रही है कि BSP को कम आंकना ठीक नहीं।
BSP का सबसे मजबूत आधार दलित समुदाय रहा है; लेकिन वर्षों से उसमें खिसरााव हुआ है, विशेषकर नए दल जैसे Azad Samaj Party के उदय से।
इस रैली में दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों को दिशा दिखाने की कोशिश की गई, ताकि ये वर्ग फिर से BSP की ओर लौटें।
यह रैली 2027 की तैयारी की शुरुआत कही जा सकती है। अगर यह सफल हुई, तो BSP को चुनावी मोर्चे पर आत्मविश्वास मिल सकता है।
यदि वोट शेयर में बढ़ोतरी नहीं हुई या समर्थन जुटाने में कमी हुई, तो यह संकेत हो सकता है कि BSP की चुनौतियाँ अभी भी जटिल हैं।
BSP द्वारा यह स्पष्ट करना कि वह किसी गठबंधन में नहीं जाएगी, एक अलग राजनीतिक स्थिति प्रदर्शित करता है। यह विरोधी दलों को रणनीति बदलने पर मजबूर कर सकता है।
यदि संगठनात्मक स्तर पर कमज़ोरी है (कार्यकर्ता, तंत्र, वित्तीय संसाधन), तो रैली का उत्साह जमीन पर असर न दे पाए।
मीडिया और विपक्ष द्वारा यह कहा जाना कि यह सिर्फ दिखावा है, यदि रैली के बाद सब मौखिक और प्रतीकात्मक बनी रहे।
जनता (विशेषकर युवाओं) को जोड़ पाने की चुनौती — केवल भाषणों और प्रतीकात्मक आयोजनों से जनता अपेक्षित सक्रियता महसूस नहीं कर सकती।
।। तीन।।
9 अक्टूबर 2025 को लखनऊ में आयोजित बहुजन समाज पार्टी (BSP) की विशाल रैली ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती की वापसी का स्पष्ट संकेत दिया है। यह आयोजन पार्टी के संस्थापक कांशीराम की पुण्यतिथि पर हुआ और इसे ‘शक्ति प्रदर्शन’ के रूप में देखा गया।
रैली में मायावती और उनके भतीजे आकाश आनंद ने पहली बार एक साथ मंच साझा किया। आकाश आनंद को पार्टी का राष्ट्रीय संयोजक नियुक्त किया गया है और इस मंच पर उनकी उपस्थिति को पार्टी में युवाओं के नेतृत्व के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
मायावती ने समाजवादी पार्टी (SP) के PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) गठबंधन को “झूठा” और “नाटक” बताया। उन्होंने भारतीय संविधान की अहमियत पर जोर देते हुए आरोप लगाया कि कुछ नेता इसे केवल दिखावे के लिए हाथ में लेकर नाटक कर रहे हैं। आपात काल लगाए जाने को उन्होंने गलत बताया।
रैली में लगभग 5 लाख लोगों की उपस्थिति की उम्मीद थी। सुरक्षा के लिए 2,100 से अधिक पुलिसकर्मियों की तैनाती की गई, जिसमें PAC और RAF की कंपनियाँ शामिल थीं। साथ ही, ट्रैफिक प्रबंधन के लिए भी विशेष इंतजाम किए गए थे। यह रैली BSP के लिए आगामी 2027 विधानसभा चुनावों की तैयारी का पहला कदम मानी जा रही है। पार्टी ने इस आयोजन को ‘श्रद्धा सुमन कार्यक्रम’ के रूप में प्रस्तुत किया, जो कांशीराम की विचारधारा को पुनः स्थापित करने का प्रयास है। हालांकि रैली में भारी भीड़ और उत्साह देखा गया, BSP को आगामी चुनावों में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है:
SP का PDA गठबंधन BSP के परंपरागत वोट बैंक में सेंध लगा सकता है। भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद की उभरती दलित राजनीति BSP की दलित नेता की छवि को चुनौती देती है।
विपक्ष की सक्रियता: BJP और कांग्रेस जैसे दल भी दलित वोट बैंक को अपने पक्ष में करने के लिए सक्रिय हैं। मायावती की लखनऊ रैली BSP के लिए एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक संकेत है। यह पार्टी की सक्रियता और आगामी चुनावों के लिए रणनीति की शुरुआत को दर्शाता है। हालांकि, BSP को अपनी पुरानी ताकत को पुनः स्थापित करने और नए गठबंधनों के बीच अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए कठिन संघर्ष करना होगा।
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