— परिचय दास —
।। एक ।।
वैश्विक परिदृश्य में इन दिनों जो बदलाव तेज़ी से घटित हो रहे हैं, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि राजनीति अब खुले तौर पर अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रही है। यह नया संतुलन—या असंतुलन—केवल महाशक्तियों की रणनीतियों में ही नहीं दिखता बल्कि विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के व्यवहार में भी दिखाई दे रहा है। अंतरराष्ट्रीय संबंधों की पारंपरिक धारणा यह थी कि अर्थव्यवस्था स्थिर हो तो राजनीति अपने-आप संयत रहती है परन्तु वर्तमान समय में समीकरण उलट चुके हैं। राजनीतिक हित अब आर्थिक निर्णयों का मार्गदर्शन कर रहे हैं; कहीं-कहीं उन्हें नियंत्रित भी कर रहे हैं। सोचने की बात यह है कि ऐसा क्यों हुआ और भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश के लिए इसका क्या अर्थ है।
अमेरिका और यूरोप लंबे समय तक वैश्विक आर्थिक संरचना के नियामक माने जाते रहे पर आज वे देश अपने अंदरूनी राजनीतिक दबावों और बदलती प्राथमिकताओं के कारण आर्थिक वैश्वीकरण के पहले जैसे संरक्षक नहीं रह गए हैं। अमेरिका में संरक्षणवाद, यूरोप में असंतोष, मध्य-पूर्व में तनाव, और एशिया में उभरते सामरिक गठजोड़—ये सब मिलकर वैश्विक अर्थव्यवस्था को बार-बार झकझोर रहे हैं। परिणामत: अंतरराष्ट्रीय व्यापार, निवेश, आपूर्ति- शृंखला और नौकरियों तक का आधार राजनीतिक निर्णयों पर अधिक निर्भर होता जा रहा है। इससे यह स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था अब अपने मूल तर्क से नहीं बल्कि राजनीतिक इच्छा-शक्ति और सामरिक आकांक्षा से संचालित हो रही है।
भारत इस बदलते समय में एक दोहरे दबाव का सामना कर रहा है। एक ओर वह वैश्विक मंच पर उभरती शक्ति के रूप में अपनी भूमिका को मजबूत करना चाहता है; दूसरी ओर उसे अपने आंतरिक आर्थिक ढांचे को स्थिर और सुदृढ़ रखना है। यह समय भारत को उस कठिन प्रश्न की ओर ले जा रहा है—क्या स्वावलंबन केवल नारा भर है या इसे एक वास्तविक नीति-ढांचे में बदलना है? जब वैश्विक राजनीति शक्तिशाली देशों को नए समीकरण बनाने पर मजबूर कर रही है तब भारत के लिए आत्मनिर्भरता का अर्थ केवल घरेलू उत्पादन बढ़ाना नहीं, बल्कि रणनीतिक निर्णयों की वह क्षमता अर्जित करना है जो उसे वैश्विक अस्थिरता से सुरक्षित रख सके।
यह स्थिति भारत की अर्थव्यवस्था को नए प्रकार की चुनौतियाँ प्रदान कर रही है। ऊर्जा सुरक्षा, तकनीकी साझेदारी, रक्षा समझौते, विद्युत उपकरणों से लेकर दवाई तक की आपूर्ति—इन सब पर राजनीतिक संबंधों का प्रभाव पहले से कहीं अधिक दिखाई दे रहा है। उदाहरण के लिए, कोई भी तकनीकी साझेदारी अब केवल उद्योग की जरूरतों पर नहीं बल्कि उस देश के प्रति राजनीतिक विश्वास पर निर्भर है। यह विश्वास तोड़ने या कमजोर होने पर बड़े-से-बड़े निवेश रुक जाते हैं। स्पष्ट है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था अब शुद्ध गणितीय समीकरण नहीं बल्कि राजनीतिक भावनाओं, जोखिमों और गठबंधनों की पहेली बन चुकी है।
यहाँ एक गहरी चिंता का पहलू भी उभरता है—क्या विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाएँ इस राजनीतिक जाल में फँस जाएँगी? यदि राजनीति हर आर्थिक निर्णय को प्रभावित करेगी तो उन देशों के लिए अवसरों का क्षरण होगा जिनके पास बड़े सामरिक लाभ नहीं हैं। इस संदर्भ में भारत का स्थान संवेदनशील है। भारत न तो पूर्णत: पश्चिमी खेमे में है, न ही एशियाई गठजोड़ों की कठोर परिधि में। यह स्थिति राजनीतिक रूप से स्वतंत्र तो है पर आर्थिक रूप से चुनौतीपूर्ण भी। भारत को कदम-कदम पर यह तय करना होगा कि वह किस दिशा में झुकाव रखे और यह झुकाव उसके आर्थिक हितों को कितना सुरक्षित रखेगा।
भारत के भीतर भी इस बदलाव का प्रभाव दिखाई देता है। जब वैश्विक राजनीति उथल-पुथल से गुजर रही हो तब घरेलू नीतियों का स्थिर होना और अधिक आवश्यक हो जाता है। निवेशक, उद्योग, किसान, श्रमिक—सभी स्थिरताओं की तलाश में रहते हैं। किन्तु वैश्विक राजनीति की अनिश्चितता घरेलू फैसलों को भी प्रभावित करती है। ऊर्जा मूल्यों का बढ़ना, निर्यात-आयात पर दबाव, विदेशी निवेश में सावधानी—ये सभी संकेत बताते हैं कि राजनीतिक परिवर्तन आर्थिक जीवन के हर स्तर को प्रभावित कर रहे हैं।
भारत को यह समझने की ज़रूरत है कि यदि राजनीति अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रही है, तो यह परिस्थिति मात्र एक चुनौती नहीं—बल्कि एक अवसर भी हो सकती है। यह अवसर है अपनी प्राथमिकताओं को नए ढंग से गढ़ने का। आत्मनिर्भरता का अर्थ सिर्फ उत्पादन में वृद्धि नहीं बल्कि तकनीकी क्षमता, वैज्ञानिक तैयारी, रणनीतिक सोच और सामाजिक-आर्थिक संतुलन को मजबूत करना भी है। दुनिया जब अस्थिर हो तब वही देश सुरक्षित रह पाते हैं जो अपने आधारभूत ढांचे को सुदृढ़ रखते हैं और बाहरी आघातों से स्वयं को बचा लेते हैं।
इस प्रक्रिया का एक सांस्कृतिक पक्ष भी है जो अक्सर अनदेखा रह जाता है। जब राजनीति और अर्थव्यवस्था मिलकर नई संरचनाएँ बनाती हैं तब समाज की सोच, भाषा, कला, साहित्य और सांस्कृतिक आन्दोलन भी प्रभावित होते हैं। आर्थिक संकटों के समय साहित्य में बेचैनी आती है; राजनीतिक दबावों के समय अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य की सीमाएँ बदलती हैं; और राष्ट्र की सामूहिक स्मृति में नए प्रश्न उठते हैं। भारत जैसे विविध और बहुधर्मी समाज में इस बदलाव का प्रभाव और भी गहरा हो सकता है। यह समय केवल अर्थशास्त्रियों या नेताओं के लिए नहीं बल्कि विचारकों, लेखकों और बौद्धिक समुदाय के लिए भी निर्णायक है जो समाज के मानसिक तापमान को समझते और लिखते हैं।
राजनीति का अर्थव्यवस्था पर हावी होना कोई आकस्मिक घटना नहीं—बल्कि वैश्विक असंतुलन का अनिवार्य परिणाम है और भारत के लिए यह वह क्षण है जब उसे स्पष्ट रूप से अपनी राह चुननी है। यह राह न तो अंधे वैश्वीकरण की होगी, न ही कट्टर राष्ट्रीय आर्थिक सीमाओं की बल्कि एक ऐसी नीति की होगी जिसमें राजनीति और अर्थव्यवस्था—दोनों एक-दूसरे को संतुलित करते हुए आगे बढ़ें। यही वह मार्ग है जो भारत को भविष्य की अनिश्चितताओं में स्थिर रख सकता है और उसे एक समर्थ, विवेकवान और सम्मानित राष्ट्र के रूप में स्थापित कर सकता है।
।। दो ।।
आर्थिक और राजनीतिक घोषणाएँ केवल सरकारी बयान या नीति-संशोधन भर नहीं होतीं; वे समाज के सबसे गहरे स्तरों तक पहुँचकर लोगों के जीवन, उनकी आकांक्षाओं, उनके सांस्कृतिक स्वभाव और सामाजिक संरचना को बदल देती हैं। एक घोषणा कभी अकेले नहीं आती—इसके साथ परिवर्तन का एक अदृश्य जाल आता है जो जन-जीवन के भीतर धड़कने लगता है। इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि सरकार द्वारा की गई आर्थिक-राजनीतिक घोषणाओं का प्रभाव किस सूक्ष्म रूप में आम जनता, सांस्कृतिक आंदोलनों और सामाजिक परिदृश्य पर उतरता है।
आर्थिक घोषणाएँ आम जनता के जीवन में सीधे हस्तक्षेप करती हैं। जब किसी क्षेत्र में सब्सिडी घटती है या कोई नई राहत योजना आती है या कर-संरचना बदली जाती है—इन सबका असर दैनिक जीवन पर दिखने लगता है। उदाहरण के लिए, महँगाई बढ़ने या घटने की घोषणा केवल आंकड़ों का उतार-चढ़ाव नहीं होती; यह बाजार की धड़कनों को बदल देती है। जब खाद्य सामग्री, ईंधन, बिजली या परिवहन महँगा होता है तो परिवारों की प्राथमिकताएँ बदलती हैं~ वे किन आवश्यकताओं को पूरा करेंगे और किन इच्छाओं को टालेंगे। ऐसी घोषणाएँ मध्यम वर्ग की जीवनशैली, गरीब वर्ग की जीविका और युवाओं की आकांक्षाओं तक में अंतर पैदा करती हैं। किसी आर्थिक राहत योजना से गरीबों को तत्काल सहारा मिलता है परंतु उसी राहत का राजनीतिक संदेश अलग दिशा में बहता है~जिससे यह स्पष्ट होता है कि आर्थिक घोषणाएँ केवल अर्थशास्त्र नहीं बल्कि समाजशास्त्र का भी हिस्सा हैं।
राजनीतिक घोषणाएँ समाज के मनोविज्ञान को गहराई से प्रभावित करती हैं। जब कोई सरकार बड़े सुधारों, सुरक्षा नीतियों या नए राजनीतिक दृष्टिकोण की घोषणा करती है तो यह लोगों की पहचान, उनके आत्मविश्वास और राष्ट्र के प्रति उनके भाव को बदल देती है। राजनीति जब स्थिरता का वादा करती है, जनता के भीतर विश्वास बढ़ता है; जब राजनीति टकराव या ध्रुवीकरण की घोषणा करती है, समाज की चेतना अलग दिशाओं में खिंचने लगती है। सार्वजनिक विमर्श बदल जाता है—लोग किस विषय पर बातचीत करते हैं, किस विषय पर चिंता करते हैं, किस विषय पर गर्व महसूस करते हैं—इन सब पर राजनीतिक घोषणाओं का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। एक राजनीतिक संदेश पूरी पीढ़ियों की भाषा और संस्कृति में प्रवेश कर सकता है और उनकी सोच की दिशा निर्धारित कर सकता है।
आर्थिक-राजनीतिक घोषणाएँ सांस्कृतिक आंदोलनों को भी मोड़ देती हैं। संस्कृति हमेशा स्थिर नहीं होती; वह समय के साथ बदलती है। जब किसी नीति के कारण नौकरियों की उपलब्धता बढ़ती या घटती है तो प्रवास की गति बदलती है—इससे बोलियाँ, रीति-रिवाज, उत्सव और स्थानीय परंपराएँ प्रभावित होती हैं। एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में लोगों का आना-जाना सांस्कृतिक मिश्रण का कारण बनता है; यह मिश्रण साहित्य, कला और संगीत में नई धुनें पैदा करता है। इसी तरह, जब कोई राजनीतिक घोषणा राष्ट्रीय चेतना को उभारती है तब सांस्कृतिक आंदोलनों का स्वर अधिक मुखर या अधिक सजग हो जाता है। जब समाज आर्थिक संकटों से गुजरता है तब साहित्य में असुरक्षा, संघर्ष और विरोध के स्वर बढ़ते हैं; जब आर्थिक समृद्धि आती है तब कला में आत्मविश्वास और उत्सवधर्मी भाव बढ़ता है।
संस्कृति और राजनीति का संबंध अत्यंत सूक्ष्म है। जिस समाज में आर्थिक चुनौतियाँ बढ़ती हैं, वहाँ सांस्कृतिक आत्मविश्वास अक्सर कमज़ोर होता है; लोग परंपराओं में अधिक आश्रय खोजने लगते हैं और आधुनिकता के प्रति अनिश्चितता बढ़ती है। वहीं, जब आर्थिक स्थिरता आती है, लोग भाषा, साहित्य, कला और संस्कृति में नई प्रयोगधर्मिता अपनाने लगते हैं। राजनीतिक घोषणाएँ किस दिशा में समाज को ढकेल रही हैं, यह सांस्कृतिक आंदोलनों की धड़कन सुनकर समझा जा सकता है।
सामाजिक परिदृश्य पर इसका प्रभाव कई स्तरों पर दिखाई देता है। एक घोषणा से वर्गों का पुनर्गठन होता है—कौन उन्नति करेगा और कौन पीछे रह जाएगा। सामाजिक गतिशीलता बदलती है। गरीबों के लिए राहत योजनाएँ केवल भूख मिटाने का साधन नहीं होतीं; वे सामाजिक आत्मसम्मान का निर्माण करती हैं। वहीं, उच्च वर्ग या मध्यम वर्ग के लिए आर्थिक नीतियाँ नई प्रतिस्पर्धाओं, नए अवसरों या नए तनावों को जन्म देती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, उद्यमिता—ये सभी क्षेत्र आर्थिक-राजनीतिक घोषणाओं से दिशा प्राप्त करते हैं। इससे समाज में नए समूह बनते हैं, नए संघर्ष पैदा होते हैं, नए गठजोड़ उभरते हैं।
यह प्रभाव सार्वजनिक नैतिकता और सामाजिक व्यवहार में भी उतरता है। जब सरकार आत्मनिर्भरता या विकास पर जोर देती है, समाज में मेहनत, कौशल और उद्यमिता को लेकर नया विश्वास पैदा होता है। जब सरकार सुरक्षा या राष्ट्रवादी नीतियों की घोषणा करती है, तब समाज का राजनीतिक स्वभाव बदलने लगता है—लोग अधिक सतर्क, अधिक भावनात्मक या अधिक संवेदनशील हो सकते हैं। इस प्रकार घोषणा केवल काग़ज़ पर लिखी नीति नहीं होती; वह लोगों की चाल, बोलचाल, सोच और कल्पना तक बदल देती है।
ये घोषणाएँ सामाजिक विभाजन को कम या अधिक करने की क्षमता भी रखती हैं। यदि आर्थिक नीतियाँ न्यायपूर्ण हों, तब समाज में संतुलन बढ़ता है; यदि नहीं, तो असमानता का विस्तार होता है। यही विस्तार सामाजिक विश्वास को तोड़ सकता है और सांस्कृतिक सामंजस्य को कमजोर कर सकता है। राजनीति जब आर्थिक निर्णयों को नियंत्रित करती है, तब यह देखना आवश्यक है कि उसका उद्देश्य समावेशी है या विभाजक।
आर्थिक और राजनीतिक घोषणाएँ केवल व्यवस्था की भाषा नहीं बोलतीं; वे जीवन की भाषा बोलती हैं। वे उस अंधरे को रोशन कर सकती हैं जिसमें आम जनता अपने भविष्य को खोजती है और वे उस उजाले को भी धुंधला कर सकती हैं जिसमें समाज अपनी पहचान ढूँढता है। हर घोषणा के पीछे एक दृष्टि होती है—और वही दृष्टि तय करती है कि समाज किस दिशा में बढ़ेगा। जनता की स्मृति, संस्कृति की संवेदना और समाज की संरचना—ये सब इस दृष्टि के अनुसार बदलते हैं। इसीलिए राजनीतिक और आर्थिक घोषणाओं को केवल समाचार की तरह नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के बीज की तरह समझना चाहिए, जिनसे भविष्य की फसल उगेगी—समृद्ध, संतुलित और सामूहिक या फिर असमान, तनावपूर्ण और विखंडन से भरी हुई।
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.

















