कुछ वर्ष और बीते। धीरे-धीरे सीमित संघराज्य की कल्पना का भी परित्याग कर अब इकबाल विशुद्ध पाकिस्तानवादी बन गए। बंबई में ‘बांबे क्रानिकल’ में दी गयी अपनी एक मुलाकात में सर मोहम्मद इकबाल कहते हैं : “यह बात सही है कि मेरे विचार को इस देश के लोग ठीक तरह नहीं समझ सके हैं।”
उनसे आगे पूछा जाता है, “आप (भारतीय) राष्ट्रीयता की कल्पना के क्यों विरोधी हो गए हैं?” इसपर सर इकबाल कहते हैं : “राष्ट्रीयता के बारे में मेरे विचारों में निश्चित रूप से परिवर्तन आया है। मैं जब कॉलेज में पढ़ता था तो मैं साहसी राष्ट्रवादी था जो कि मैं आज नहीं हूं। मेरे विचार में जो परिवर्तन आया है, वह चिंतन की परिपक्वता का द्योतक है। दुर्भाग्य से मेरा बाद का जो लेखन है, वह हमारा फारसी में होने के कारण इस देश के लोग उसे नहीं समझ पा रहे हैं।”
आगे वे कहते हैं : “मेरी राय में राष्ट्रीयता की कल्पना इस्लाम के ऊँचे आदर्श के खिलाफ है। इस्लाम कोई मामूली क्रीड नहीं है। वह एक सामाजिक व्यवस्था है, संहिता है, कोड है। इस्लाम ने रंग और वंश की समस्या को हल किया है। इस्लाम लोगों का मन एक दिशा में मोड़ना चाहता है। इस्लाम ने अभिजात ढंग से मानव जाति की एकता और आध्यात्मिक समता का विचार सृजित किया है। आज राष्ट्रीयता के जो माने हैं और उसपर जो अमल हो रहा है, उससे उपरोक्त आदर्श की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होगी। राष्ट्रीयता के खिलाफ मेरा यही आक्षेप है।”
यह था राष्ट्रीयता के बारे में मोहम्मद इकबाल के चिंतन में परिवर्तन। इतना ही नहीं, उनका सामाजिक दृष्टिकोण भी अब परिवर्तित हो गया था। राउंड टेबल कांग्रेस के समय यानी 1931 में इकबाल साहब ने ‘लिवरपुल पोस्ट’ के लिए भेंटवार्ता में महिलाओं के बारे में कई सवाल पूछे गए थे। तब उन्होंने पर्दा प्रथा का खुलकर समर्थन किया। उन्होंने कहा कि “महिला एक पवित्र और सर्जनशील शक्ति है और सर्जनशील शक्ति को हमेशा छिपकर रहना चाहिए। पर्दा पौर्वात्य महिलाओं के लिए इज्जत और प्रतिष्ठा का सवाल है।”
बहुपत्नीत्व के बारे में जब उनसे सवाल किया गया तो उसका भी एक माने में उन्होंने समर्थन किया। उन्होंने कहा, “एक पत्नीत्व हमारा आदर्श हो सकता है, लेकिन वर्तमान स्थिति में इसमें परिवर्तन लाया जा सकता है। इस्लाम में बहु-पत्नीत्व कोई स्थायी और आदेशात्मक नियम नहीं है। मुस्लिम विधि के अनुसार प्रशासन, यानी सरकार इस छूट देनेवाली व्यवस्था को बदल सकती है अगर उसकी राय में सामाजिक जीवन के लिए यह खतरा हो।” मुस्लिम विवाह-विच्छेद के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि इसमें महिलाओं के साथ कोई अन्याय नहीं है। मुस्लिम विधि में शादी एक सौदा है, कांट्रेक्ट है और यह सौदा करते समय विवाह संबंधों के विच्छेद के बारे में समान प्रावधान रखा जा सकता है। (लैटर्स एण्ड राइटिंग्ज आफ इकबाल : पृ.56-60 और 64-67)
इकबाल जानते थे कि मोहम्मद अली जिन्ना स्वाभिमानी और चरित्र संपन्न नेता हैं। पाकिस्तान आंदोलन के लिए उनका नेतृत्व आवश्यक है। लेकिन जिन्ना एकतावादी थे। उनके साथ किए गए पत्र-व्यवहार के जरिए उन्होंने जिन्ना साहब के विचारों को स्वतंत्र मुस्लिम राज्य की दिशा में मोड़ने का अथक प्रयास किया। आगे चलकर जिन्ना साहब को उन्होंने स्पष्ट सलाह दी कि हमें जिन प्रांतों में मुसलमान अल्पसंख्यक हैं उन मुसलमान अल्पसंख्यकों को फिलहाल भुला देना चाहिए और पश्चिमोत्तर तथा पूर्व हिंदुस्तान में स्वतंत्र मुस्लिम राज्यों के निर्माण पर ही अपनी शक्ति केंद्रीत करनी चाहिए। 1937 तक जिन्ना साहब पर इकबाल के विचारों का कोई असर नहीं हुआ था। संयुक्त हिंदुस्तान और संघराज्य की कल्पना को त्यागने के लिए उनका मन तैयार नहीं हो रहा था। लेकिन इकबाल साहब चैन से नहीं बैठे। अंत में उनके पाकिस्तानवाद को जिन्ना ने स्वीकार कर लिया।
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