क्या भारत भी श्रीलंका की राह पर जा रहा है?

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कार्टून साभार


— डॉ सुरेश खैरनार —

कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए!
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए!
न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए!
खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए!
वे मुतमईन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए!
तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की,
ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए!
जिए तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरे तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए!

ह ग़ज़ल भोपाल के हिंदी और उर्दू में शायरी करनेवाले शायर दुष्यंत कुमार ने 1970 के बाद देश की स्थिति को लेकर लिखी थी। उन्होंने इस तरह की काफी ग़ज़लें लिखी हैं! इसी तरह दिनकर, फिराक गोरखपुरी, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, बाबा नागार्जुन जैसे साहित्यकार थे जिन्होंने जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के समय अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया! आज लगभग वैसी ही स्थिति देश में बनती जा रही है!

दो दिन पहले असम के नौगांव नाम की जगह पर महँगाई के खिलाफ एक धरने में नुक्कड़ नाटक कर रहे, भगवान शिव का भेष धारण किये एक कलाकार को धार्मिक विश्वास के साथ खिलवाड़ करने के अपराध में (विहिप और बीजेपी की युवा इकाई भारतीय युवा जनता की तकरार के कारण) धारा 295 के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया।

उस नाटक में शिव और पार्वती एक दोपहिया वाहन पर सवार होकर चल रहे हैं। और शिव पार्वतीजी से कहते हैं कि पेट्रोल की कीमत बढ़ने के कारण हम अब दोपहिया वाहन पर सफर नहीं कर सकते हैं। इस संवाद के कारण, असम में महँगाई के खिलाफ चल रहे आंदोलन को बदनाम करने के लिए आस्था का सहारा लिया जा रहा है। लेकिन शुतुरमुर्ग की तरह और कितने समय रेत में सर गड़ाकर रहोगे?

सच कहूँ तो इस कानून का उल्लंघन संघ अपनी स्थापना के समय से ही कदम-कदम पर कर रहा है। भारत हजारों सालों से विश्व के सभी धर्मों के लोगों का रहवास है, और उनमें से कोई भी कहीं जाने वाले नहीं हैं! इसी देश में पैदा हुए और इसी देश में मरने वाले हैं! लेकिन 1925 से, अपनी स्थापना के बाद से ही, संघ ने विधिवत हिंदू संगठन के नाम पर धार्मिक ध्रुवीकरण की जिस राजनीति को गति देने की शुरुआत की और भारत विभाजन की नौबत आयी, उसके लिए मुस्लिम लीग के बराबर उसका भी योगदान है! अन्यथा हिंदू बहुतायत से मुसलमानों को न्याय नहीं मिलेगा यह तर्क देने के लिए जिन्ना के पास और क्या कारण था?

मुस्लिम लीग 1906 में स्थापित होती है। उसी की देखादेखी हिंदू महासभा और 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई और इन्होंने द्विराष्ट्र सिद्धांत को अमली जामा पहनाने का उद्यम शुरू किया। द्विराष्ट्र की उनकी हिमायत के संदर्भ गोलवलकर और सावरकर की लिखी किताबों में उपलब्ध हैं। इनके सौ साल के इतिहास को खँगालने से हाथ में क्या आता है? हिंदुत्ववादियों और मुस्लिम लीगियों की मिलीभगत आजादी के आंदोलन के पूरे इतिहास में दीखती है।

जब कांग्रेसी और समाजवादी भारत छोड़ो आंदोलन में जेलों तथा भूमिगत आंदोलन में व्यस्त थे तो उस समय मुस्लिम लीगियों के साथ सिंध, बंगाल प्रांतों में हिंदू महासभा के सहभागी होने के कारण क्या हैं? और दोनों के भारत की आजादी के आंदोलन से अलग रहने के कारण क्या हैं? आज इन्हें देशभक्ति का पेटेंट लेने का नैतिक अधिकार है?

और अब धार्मिक सौहार्द बिगाड़ने से रोकनेवाले कानून की आड़ में विरोधियों को सतानेवाले लोगों ने, धर्म के नाम पर सतत धार्मिक ध्रुवीकरण करने की राजनीति के अलावा कोई और काम किये हैं? इस कानून का इनके द्वारा उल्लंघन किये जाने के आजादी के बाद पचहत्तर साल के इतिहास में न जाने कितने उदाहरण हैं! इस कानून का उल्लंघन करने का हिसाब-किताब देखने से पता चला है कि सबसे ज्यादा अपराध संघ और संघ की विभिन्न इकाइयों ने किये हैं!

और अब सरकारों के खिलाफ लोगों की प्रतिक्रियाओं पर, सत्ताधारी पार्टी के कारिंदे आस्था की आड़ लेकर, अपने दल की नाकामी को छुपाने के लिए, आंदोलनकारियों को डराने-दबाने-कुचलने के लिए इस तरह के हथकंडेअपनाने की चालाकी कर रहे हैं!

इसी बीजेपी ने कांग्रेस की सरकारों के समय गैस के सिलेंडर के साथमहँगाई के खिलाफ प्रदर्शन किये थे। वर्तमान समय में भारत के मंत्रिमंडल में शामिल स्मृति ईरानी के, सड़क पर धरना-प्रदर्शन करने के फोटो उपलब्ध हैं। और अटल बिहारी वाजपेयी जी के बैलगाड़ी पर बैठकर संसद भवन जाने के भी फोटो उपलब्ध हैं!

और सबसे हैरानी की बात यह कि वर्तमान समय में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी 1972-73 के समय गुजरात में महँगाई के खिलाफ नव निर्माण आंदोलन में सचिव की हैसियत से शामिल हुए थे, यह भी सार्वजनिक जानकारी में है! क्योंकि हम भी उस समय उस आंदोलन के समर्थकों में से एक थे। और उस आंदोलन को मनीषी जानी से लेकर रविशंकर महाराज का आशीर्वाद हमने अपनी आँखो से देखा है!

और सबसे अहम बात यह कि वर्तमान भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक हैसियत प्राप्त होने के लिए ऐतिहासिक बिहार आंदोलन ही तो जिम्मेदार है! खुद आंदोलन के और मुख्यतः बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद राम मंदिर का आंदोलन करनेवाले कौन लोग हैं? उसके भी फोटो और आडियो-वीडियो रेकॉर्ड मौजूद हैं!

भारतीय जनता पार्टी को गलतफहमी हो गयी है कि वह इस देश पर हमेशा राज करेगी! यह गलतफहमी श्रीमती इंदिरा गांधी को भी हो गयी थी। जर्मनी में हिटलर नाम के सनकी तानाशाह को भी यह गलतफहमी थी! और उसे अपनी खुद की पिस्तौल से अपनी कनपटी पर गोली मारकर आत्महत्या करनी पड़ी थी! 30 अप्रैल 1945 ! सिर्फ 77 साल पुरानी बात है। इतिहास सिर्फ जुगाली करने के लिए नहीं होता है। इतिहास में की गयी गलतियों से सीखना पड़ता है।

पिछले तीस-चालीस सालों से यही संघ, बीजेपी और उनके आक्टोपस जैसे संगठनों ने सिर्फ और सिर्फ धार्मिक आस्था की आड़ में संपूर्ण देश में तथाकथित रथयात्राओं, कारसेवा तथा विभिन्न आंदोलनों के समय हमारे देश में सहिष्णुता के प्रतीक भगवान राम की एक बाहुबली वाली प्रतिमा बनाकर, देश भर में उनके चित्रों से लेकर मूर्तियों और हनुमानजी तथा अन्य देवों का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने के लिए किया है! तब कोई धार्मिक विश्वास के साथ खिलवाड़ नहीं हुआ?

और अब महँगाई के खिलाफ या किसी नाटक-सिनेमा में इन्हीं प्रतीकों का इस्तेमाल करते हैं तो बीजेपी और उससे जुड़े अन्य संगठनों को लगता है कि हमारे धार्मिक विश्वास के साथ खिलवाड़ हो रहा है! हिंदू धर्म के एकमात्र ठेकेदार यही लोग बन गये हैं। जैसे इन सभी देवी-देवताओं और प्रतीकों का पेटेंट सिर्फ बीजेपी और उसके समर्थकों ने करा लिया है! फिर कोई महुआ या अन्य कोई भी व्यक्ति अपनी बात कहने का अधिकार नहीं रखता है?

अभी आपातकाल की घोषणा (25 जून 1975) के 47 साल होने के सिर्फ दो हफ्ते हो रहे हैं। और उसी आपातकाल और सेंसरशिप का हवाला देकर, सत्ताधारी पार्टी के नेतृत्व से लेकर गली-मुहल्ले के कार्यकर्ताओं ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खूब कशीदे पढ़े।

कितने पाखंडियों से भरी हुई जमात है। इन्हें थोड़ी भी लाज-शर्म नहीं है कि अपनी ही पार्टी की प्रवक्ता एक धर्म संस्थापक को लेकर कितनी अभद्र टिप्पणी करती है। फिर इन्हें धार्मिक विश्वास को ठेस पहुँचने की शिकायत करने का क्या नैतिक अधिकार है?

उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे वाली कहावत की तरह आए दिन लोगों के रोजमर्रा के सवालों को लेकर अगर कोई व्यक्ति, संगठन या राजनीतिक दलों ने आंदोलन किया तो उसे सराहना तो दूर की बात है उल्टे आस्था के नाम पर केस थोपे जा रहे हैं। संघ और बीजेपी की इकाइयों को गलतफहमी होगी कि इस तरह से पुलिस-प्रशासन की मदद लेकर वे कोई भी आंदोलन रोक सकते हैं! तो फिर भारत का श्रीलंका होना दूर नहीं है! आखिरकार सर्वसामान्य नागरिकों की अभिव्यक्तियों को धार्मिक या आस्था के डंडे दिखाकर रोक सकते हैं तो रोक कर दिखा दो! लोगों के गुस्से को जितना ज्यादा दबाओगे उससे दोगुनी ताकत से वह उफान पर आएगा और यही श्रीलंका में हो रहा है। धार्मिक ध्रुवीकरण से अब लोगों को ज्यादा दिन बेवकूफ नहीं बना सकते।


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