(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)
अरब कबीलों में निरंतर युद्ध के बीच में वे सभी मक्का के निकट काबा के मंदिर में पूजापाठ और बलिदान करते थे। कुर्रेश लोगों ने राष्ट्रीय तीर्थ पर कब्जा कर लिया था और उस पूजा-स्थल पर हाशमी लोगों का अधिकार हो गया था, जो उस कबीले का अत्यंत महत्त्वपूर्ण कुटुंब था। इसी कारण हाशमी लोगों को राष्ट्रीय सम्मान और आदर प्राप्त था, जो व्यापार में प्राप्त लाभ के अतिरिक्त था। इस परिस्थिति में हाशमी लोगों ने अरब कबीलों की एकता का आह्वान किया और एक नए धर्म का उदय हुआ, जिसने सभी देवताओं को हटा कर उसके स्थान पर एक ईश्वर को आराधना का केंद्र माना।
हजरत मुहम्मद के कठोर एकेश्वरवाद में उस एकता की अभिलाषा ने मूर्त रूप ग्रहण किया। इसके आधार पर उनके पारस्परिक झगड़े खत्म हुए और उन पड़ोसी राष्ट्रों में स्वागत हुआ जहाँ कैथोलिक ईसाई संप्रदाय की असहनशीलता से लोग परेशान थे। फारस, मेसोपोटामिया, सीरिया, फिलस्तीन और मिस्र में मैगाई रहस्यवादियों, यहूदी अनुदारवादियों और ईसाई धर्मान्धता से धार्मिक रूप से अस्पष्टता और गड़बड़ी व्याप्त थी। कठोर रीति-रिवाजों ने धर्म का स्थान ग्रहण कर लिया था। आडंबरपूर्ण धार्मिक व्यवहार के कारण भक्ति खत्म हो गई थी। कट्टर धार्मिकता से विश्वास नष्ट हो गया था और ईश्वर देवदूतों, संतों और महंतों की भीड़ में खो गया था। नए धर्म का नारा था ‘केवल एक-ईश्वर है’। इस विश्वास को सहनशीलता से कोमल बना दिया गया था। पीड़ित जनसमूहों ने इस नए धर्म का उत्साहपूर्ण ढंग से स्वागत किया और बौद्धिक दिवालियेपन तथा आध्यात्मिक अव्यवस्था से उत्पन्न सामाजिक विघटन के समुद्र में उसने उद्धार करनेवाले जहाज का काम किया।
एक-ईश्वरवाद की ऐतिहासिक घोषणा को अरब के कारवाँ व्यापारियों ने जारी किया, जो युद्ध और विश्वासों के विनाशकारी द्वंद्व से अलग थे और आर्थिक रूप से संपन्न थे और जिनमें अदम्य आध्यात्मिक उत्साह था जबकि उनके पुराने और अधिक सभ्य पड़ोसी देशों में यथास्थिति, पतन और विघटन का संकट उत्पन्न हो गया। एक-ईश्वर में विश्वास के सुदृढ़ प्रचार ने सैनिक राज्य के लिए आधारभूमि तैयार कर दी जिसमें धार्मिक, नागरिक, न्यायिक और प्रशासनिक सभी कार्यों को एक संगठन के भीतर संगठित किया गया। सरासेनी योद्धाओं के इस एकतावाद ने नवीन सामाजिक व्यवस्था की नींव रखी जो प्राचीन सभ्यताओं के खँडहरों के विनाश के बाद महान् रूप से सामने आई। इस प्रकार के धर्म का आकर्षण उन लोगों के लिए अधिक था जो धार्मिक मतभेदों के कारण पीड़ित थे। नए धर्म ने आत्मा की स्वतंत्रता पर जोर दिया और उसे माननेवालों को समान रूप से संरक्षण प्रदान किया। इस्लाम का उदय धार्मिक दमन के विरुद्ध पीड़ित लोगों के संरक्षण के रूप में हुआ।
सहनशील स्वभाव, विश्वव्यापी भावना और लोकतांत्रिक नीति तथा इस्लाम धर्म के एक-ईश्वरवाद के सिद्धांत अरब देश की भौगोलिक स्थिति की देन थे। उसके चारों ओर वहाँ के स्थानीय निवासियों का निरंकुशता से दमन होता था और विदेशी आक्रमणों से उनकी लूटपाट होती थी, लेकिन अरब के लोगों ने अपनी स्वतंत्रता की रक्षा की थी। मिस्र और फारस में जिन लोगों का दमन होता था और ईसाई संप्रदाय के दमन के जो शिकार थे, वे भाग कर शरण लेने के लिए अरब क्षेत्र में जाते थे और वहाँ अपने विश्वासों के अनुसार आचरण करने की उन्हें स्वतंत्रता थी। जब असीरियाई साम्राज्य पर फारस की विजय हो गई तो बेबीलोन के बलिदान स्थलों पर मैगी लोगों का अधिकार हो गया और प्राचीन सबीयन पुजारी अपने प्राचीन विश्वास और ज्योतिष के ज्ञान के साथ अरब क्षेत्र में सुरक्षा के लिए चले गए। इसके पहले असीरियाई आक्रमणकारियों से बचने के लिए इजरायल की संतानों ने अरब में शरण ली थी। सभी हिब्रू मसीहाओं, जान दी बैपटिस्ट तक ने अरब के रेगिस्तान में जीवन बिताया और वहीं साधना की तथा अपने विचारों का प्रचार किया। सिकंदर के आक्रमण ने असीरियाई लोगों पर हुए आक्रमण का बदला लिया। उस समय जोरोस्टर के कट्टर अनुयायी भी, जो अपने विश्वासों को यूनानी धार्मिक अंधविश्वासों से बचाना चाहते थे और जो उनकी पवित्रता की रक्षा करना चाहते थे, अरब रेगिस्तान के स्वतंत्र वातावरण में गए और वहाँ उन्होंने बेबीलोन के अपने विरोधियों से सहयोग किया।
पूर्व के रहस्यवादी धार्मिक मतवादों- ब्रह्मज्ञानवादियों और प्रत्यक्ष ज्ञानवादियों के मिश्रित विचारों- और यूनानी अध्यात्मवाद तथा ईसाई धार्मिक कथाओं, सभी का प्रचलन अरब के रेगिस्तान में स्वतंत्रतापूर्वक हुआ। अन्त में कैथोलिक ईसाई संप्रदाय के लोग भी, जो नस्टोरियाई, जैकोबाइट और यूरीचियन विचारों के मतभेदों को मानते थे, यूनानी ईसाई संप्रदाय की धर्मान्धता से बचने के लिए और अपने विश्वासों को सादगी से मानने के लिए अरब क्षेत्र में पहुँचे थे। विभिन्न धार्मिक विश्वासों के लोगों ने अरब क्षेत्र में प्राप्त स्वतंत्रता के कारण एक-दूसरे के मतवादों को समझने की कोशिश की और उन्हें यह देखने का अवसर मिला कि उनमें कौन-सी बात समान थी। सहनशीलता के शांत वातावरण में उनके विचारों में परस्पर मतभेद खत्म हुए और एक-दूसरे के प्रति कठोर रवैया अपनाने की भावना दूर हुई और उन लोगों के उपदेशों की समान भावनाओं का प्रभाव बद्दूओं पर भी हुआ।
संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि मरुस्थल के असभ्य समझे जानेवाले लोगों को प्राचीन धर्मों की सब अच्छाइयों का उत्तराधिकार मिला और उनमें एक-ईश्वर में निष्ठा और विश्वास की भावना सुदृढ़ हो गई। ईश्वर अथवा अल्लाह महान् है, वह स्वर्ग और पृथ्वी पर सर्वशक्तिमान है और उसने मानव-जाति के कल्याण के लिए समय-समय पर अपनी सत्ता मसीहाओं के द्वारा प्रकट की है। इस्लाम का यही सार तत्त्व है, जो अरब जाति की आध्यात्मिक चेतना के रूप में हजरत मुहम्मद के पहले से व्याप्त थी और उसी आधार पर हजरत मुहम्मद ने अपने नए धर्म की आधारशिला रखी थी। इस्लाम की भावना की खोज हजरत मुहम्मद ने नहीं की थी और न उन्हें उसका ईश्वरीय आदेश प्राप्त हुआ था। वह इतिहास का ऐसा उत्तराधिकार था जो अरब राष्ट्र को प्राप्त हुआ था। हजरत मुहम्मद की महानता और उनकी योग्यता इस बात में थी कि उन्होंने उस उत्तराधिकार के महत्त्व को समझा और अपने देशवासियों को उसके प्रति सचेत किया।
अरब लोगों को सर्वशक्तिमान एक-ईश्वर की भावना प्राप्त हो चुकी थी, लेकिन अपनी आदतों और अपने-अपने कबीलों के हितों के कारण वे बहुदेववाद के अनुसार देवताओं की पूजा करते थे। पुराने धर्मों के सार्थक निष्कर्षों के आधार पर उन्हें इतिहास का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ और उसके कारण ही उन्होंने परंपरागत बहुदेववादी पूजा-आराधना में परिवर्तन किया था। इस उद्देश्य के लिए महान् प्रयास की आवश्यकता थी और मक्का उसका केंद्र-बिंदु था जहाँ पर पुराने विश्वासों पर आक्रमण करने की आवश्यकता थी।
अरब कबीलों में व्याप्त स्वतंत्रता की भावना और पारस्परिक विनाशकारी युद्धों में लिप्त कबीलों ने मक्का में अपने झगड़ों को सुलझाया और आपस में सुलह की। सभी व्यापार-मार्ग वहाँ मिलते थे। विकेंद्रित अरब कबीलों के आर्थिक हितों की एकता ने उनमें आध्यात्मिक एकता मक्का में स्थापित की। सभी अरब कबीले मक्का पहुँचने पर काबा में आराधना करते थे। उनमें से प्रत्येक के अपने विश्वास के अनुसार अलग-अलग प्रतीक थे। काबा के मंदिर में तीन सौ साठ मूर्तियाँ थीं जिनमें मानव, पक्षी और शेर आदि की मूर्तियाँ शामिल थीं। लेकिन कुर्रेश कबीला सबसे समृद्ध था और हाशमी कुनबे के लोगों का काबा के मंदिर पर अधिकार था। यह स्वाभाविक था कि नए विश्वास की नवीन भावना को, जिससे आर्थिक हितों के आधार पर राष्ट्रीय एकता बढ़ सकती थी, राष्ट्र के हृदय-स्थल मक्का और काबा में सजग रूप से स्थापित किया जाय। इसी आधार पर हाशमी कुटुंब के लोगों ने नए धर्म का उपदेश करना शुरू किया।
एक बार जब हाशमी कुनबा और कुर्रेश कबीले ने नए धर्म को स्वीकार कर लिया तो अरब के सभी कबीलों ने भी उसका पालन किया। जिन लोगों का मक्का के व्यापार पर नियंत्रण था, वे पूरे अरब के राष्ट्र के लोगों में नए धर्म और विश्वास का आसानी से प्रचार कर सकते थे। लेकिन अपने अंधविश्वासों के कारण कुर्रेश लोगों ने अपनी जाति के लोगों का दमन करना शुरू किया। उन्हें इस बात की भी आशंका थी कि काबा के मंदिर में गड़बड़ी करने से मक्का से व्यापारिक केंद्र हट जाएगा। मदीना ने हजरत मुहम्मद द्वारा प्रचारित धर्म का समर्थन किया और एकता के लिए उनके आह्वान का दूसरे क्षेत्रों में भी प्रभाव पड़ा। एक के बाद एक परिवार कुर्रेश अनुदारवाद से अलग होने लगे और उन लोगों ने क्रांतिकारी हाशमी लोगों का समर्थन करना शुरू किया। कुछ समय बाद ही कुर्रेश लोगों ने अपने निष्कासित बिरादरी के लोगों के सामने समर्पण कर दिया और उसके बाद इस्लाम के मसीहा और सिपहसालार के झंडे पर उन्हीं का अधिकार हो गया।
हजरत मुहम्मद के अनुयायियों द्वारा मक्का पर अधिकार करते ही यह हुक्म जारी किया गया कि मक्का के पवित्र नगर पर किसी अविश्वासी व्यक्ति को आने न दिया जाय। नए धर्म को पूरे अरब राष्ट्र पर लागू किया गया और उसका मुख्य हथियार आर्थिक असहयोग का भय था। काबा के मंदिर से सभी मूर्तियाँ हटा दी गयीं और उसे हजरत मुहम्मद के खुदा अथवा अल्लाह का एकमात्र पूजा-स्थल बना दिया गया। एक बार नए धर्म के झंडे के फहराये जाने के बाद पूरी अरब जाति उसके नीचे जमा हो गयी। यह उल्लेखनीय है कि नए धर्म की घोषणा से पहले ही अरब लोगों के दिमाग में अचेतन रूप से उसका प्रभाव पड़ चुका था। उनके आर्थिक हितों के कारण ही नए धर्म की स्थापना आवश्यक हो गयी थी।