— हेमंत —
आज भी सवाल यही है। आठ साल पहले भी सवाल यही था – ‘लालू और नीतीश’ या कि ‘लालू या नीतीश’? आज इस सवाल की गूंज और उससे ज्यादा अनुगूंज सिर्फ बिहार की जमीन पर नहीं, बल्कि देश राष्ट्रीय फलक पर तीव्र और व्यापक है। अगर नीतीश कुमार और लालू प्रसाद इसे सिर्फ अपनी पार्टी या अपने गठबंधन की राजनीति का सवाल मानते हैं, तो इसका जवाब खुद उनको देना है- अकेले भी या फिर साथ होकर। अगर वे इस सवाल को सिर्फ सत्ता-राजनीति का सवाल मानते हैं और या बनाये रखना चाहते हैं, तो इसका मायने है कि वे इस सवाल के लिए खुद को परीक्षार्थी मानते हैं और खुद को परीक्षक भी बनाए रखना चाहते हैं। तब तो उन्हें अपने किसी भी जवाब को सही ठहराने के लिए यह भी बताना होगा कि अतीत में यह जवाब सही साबित हुआ या कि गलत, और क्यों? लेकिन इससे ‘दीगर’ सवाल यह है कि क्या वे ‘लालू और नीतीश’ या कि ‘लालू या नीतीश’ के सवाल को सिर्फ अपनी सत्ता-राजनीति तक सीमित समझते हैं या मानते हैं? अब तक खुद उनके या उनके साथी-सहयोगियों या उनके द्वारा पालित-पोषित ‘सेकेंड लाइनर’ नेताओं (जनता उन्हें छुटभैये नेता कहती है) के मार्फत जो भी ‘जवाब’ वक्त की दीवार पर लिखे नजर आते हैं, और उनकी जो ‘छवि’ या छवियां(!) प्रकट हो रही हैं, उनसे यह नजर नहीं आता है कि उन्हें इस ‘दीगर’ सवाल से कोई वास्ता है। उलटे, नीतीश और लालू की ‘छवियों’ और उनके प्रतिद्वन्द्वी नेताओं द्वारा निर्मित ‘छाया-छवियों’ में कोई खास फर्क नजर नहीं आता।
कई प्रतिद्वन्द्वी राजनीतिज्ञ और रणनीतिज्ञ (प्रशांत किशोर इसके ताजा उदाहरण हैं) ऐसे हैं, जो अपनी छवि के लिए नीतीश-लालू को कभी दोस्त और कभी दुश्मन बनाने की अपनी ‘स्ट्रैटजी’ को ‘सिद्धांत’ मानते हैं। ऐसे स्वनामधन्य प्रभुओं द्वारा नित रचित ‘छवियों’ के खेल-व्यापार (इसे आजकल राजनीति में ‘खेला’ कहा जाने है!) के प्रति क्या नीतीश और लालू सचेत हैं? क्या उन्हें यह दिख रहा है अथवा नहीं? अव्वल तो आज यह भी स्पष्ट नहीं कि वे इसे देखना चाहते भी हैं या नहीं।
जहां तक बिहार की जनता के देखने और दृष्टि का सवाल है, ‘नीतीश और लालू’ का सवाल सिर्फ आने वाले कल का सवाल नहीं है। ‘नीतीश या लालू’ का सवाल भी सिर्फ बीते कल का सवाल नहीं था।
ये दोनों सवाल सिर्फ चुनावी गणित के सवाल भी नहीं हैं। ये ऐसे सवाल भी नहीं हैं कि जिनके सत्ता-राजनीति की चुनावी-रणनीति के किसी एक सत्र की परीक्षा में आने पर अगले सत्र में उनके पुनः न पूछे जाने की गारंटी हो। दिलचस्प लेकिन दयनीय तथ्य 2015 से अब तक हासिल जवाब से भी जुड़ा हुआ है। एक सत्र की चुनावी गणित की परीक्षा में जिस जवाब को सही माना गया, उसे अगली परीक्षा में भी सही ठहराया जाएगा, इसकी कोई भी गारंटी नहीं। इसलिए इन दोनों सवालों का सिर्फ चुनावी हार-जीत से जुड़े जवाब खुद नीतीश-लालू को या पटना-दिल्ली के मोदी द्वय (सुशील मोदी और नरेंद्र मोदी) को कितना भी फायदेमंद नजर आयें, सिर्फ बिहार नहीं, बल्कि पूरे देश के लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है।
20वीं सदी के अंतिम दशक से लेकर 21वीं सदी के दो दशक तक, यानी 30-32 साल में हुए दर्जनों चुनाव इसके गवाह हैं। आगे भी यही होगा। इसे नीतीश और लालू समझते हैं या समझेंगे, इसकी उम्मीद किसी को हो या न हो, बिहार की जनता को है।
यह सिर्फ ‘बिहार’ के बिहारी भारतीय नहीं, बल्कि देश के किसी बंगाली भारतीय, मराठी भारतीय, या उत्तर भारतीय या दक्षिण भारतीय जन-गण की लोकतांत्रिक फितरत है कि वे अपने राजनेताओं के प्रति उदार होते हैं – वे राजनेताओं को बिन मांगे भी माफ कर देनेवाले होते हैं। बिहार के संदर्भ में, यह बिहारी जनता की खामी नहीं, बल्कि उसकी ‘लोकतंत्र’ की उस समझ की खासियत है, जो देश की ‘पहली’ आजादी और ‘दूसरी’ आजादी के आंदोलन की सफलता-विफलता से पनपी और विकसित हुई है।
इसे और स्पष्ट समझना हो, तो एक उदाहरण से समझा जा सकता है। सत्ता-राजनीति में कभी सिरतोड़ बहुमत पाकर भी अगली बार विपक्ष में रहने की मजबूरी ढोनेवाले नेता अक्सर सत्तापक्ष के नेता के किसी ‘अच्छे’ काम पर भी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहते हैं- ‘अस्सी चूहे खाके बिल्ली चली हज को।’ दूसरी बार मुख्य विपक्ष कहलाने लायक ‘वोट’ न पानेवाले विपक्षी नेता भी जनता की इस समझ को समझने-स्वीकारने को तैयार नहीं होते कि लोकतंत्र ऐसी ‘हज-यात्रा’ है, जिसमें अस्सी चूहे खानेवाली बिल्ली भी शामिल हो सकती है।
नेता कहें या न कहें जनता उनके अवगुण को चित्त नहीं धरती। वह अस्सी चूहे मारनेवाली बिल्ली जैसे नेताओं को माफ कर हज-यात्रा को स्वीकृति दे देती है। यानी वह उन्हें कभी सिंहासन से उतार कर सड़क पर ले आती है और कभी सड़क से उठाकर फिर सिंहासन पर बिठाती है। इसमें जनता की यह ‘समझ’ काम करती है कि लोकतंत्र में अस्सी चूहे खाकर हज पर निकली ‘बिल्ली’ इसे अपनी अस्सी चूहे खाने-पचाने की अपनी ताकत की स्वीकृति न माने।
कोई बिल्ली अपनी हज-यात्रा को पुराने गुनाहों के ‘पश्चाताप’ जैसा ‘दिखावा’ या ‘पाखंड’ करती है, तो इसे महसूस करते हुए भी जनता बिल्ली की ‘हजयात्रा’ को रोकने जैसी प्रवृत्ति को अपने मन में जगह बनाने नहीं देती। वह सत्तापक्ष सहित विपक्ष की ऐसी बिल्लियों को परखती रहती है, लेकिन सजा देने या माफ करने के पार के अपने ‘लोकतांत्रिक मूल्य’ को नहीं छोड़ती। उसे जिस नेता के पश्चाताप में पाखंड नजर आता है, उसे सिंहासन से उतार कर भी सड़क पर बैठने-चलने का मौका देती है, और जिसका पश्चाताप ‘प्रायश्चित’ में तब्दील होता दीखता है, उसे सड़क से पुनः सिंहासन पर बैठाने या बैठने को कहने में भी संकोच नहीं करती।
इस परिप्रेक्ष्य में नीतीश और लालू की जो ‘छवि या छवियां’ प्रकट हैं या प्रस्तुत की जा रही हैं, उनसे क्या यह महसूस होता है कि ये छवि या छवियां बिहारी जनमानस की लोकतांत्रिक समझ को पहचानती हैं? उसका सम्मान करती हैं?
बिहार की सत्ता-राजनीति का इतिहास गवाह है कि श्रीयुत श्रीकृष्ण सिंह, अनुग्रह नारायण सिंह से लेकर सत्येन्द्र नारायण सिंह, जगन्नाथ मिश्र और भागवत झा आजाद, कर्पूरी ठाकुर और अब्दुल गफूर से लेकर लालू प्रसाद और नीतीश कुमार तक की राजनीतिक यात्राओं में उन सबके ऐसे कई ‘पड़ाव’ रहे हैं, जहां उनके निजी जीवन के छोटे-बड़े ‘पोखर’ निर्मित हुए। उनके हताश-निराश प्रतिद्वंद्वी मित्र और मित्र प्रतिद्वंद्वियों, दोनों ने उन पोखरों को खंगाला, कीचड़ निकाला और उछाला। वे पोखर आज तक भी कितने सूखे हैं, साफ हैं या गंदे हैं, इसका ‘हिसाब’ जनता को है, लेकिन वह इन पोखरों की ‘किताब’ उलटने में रुचि नहीं रखती। हालांकि उन पोखरों का हिसाब-किताब लेकर इस पाले से उस पाले में जानेवाले नेताओं को वह पहचानती है।
ये नेता जब-तब अपने दोस्त या दुश्मन नेताओं के निजी जीवन की विकृतियों में रस लेने की अपनी निजी आदत को सार्वजनिक शगल बनाने की कोशिश करते हैं। इसको जनता सुनती है और जब-तब इस शंका में घिरती है कि क्या नेताओं के ‘पब्लिक फेस’ और ‘प्राइवेट फेस’ के इस फर्क को आधार बनाकर अपने समाज के ‘भविष्य’ का निर्धारण करना उचित होगा?
जीवन में कई विकृतियां हैं, कई तरह के पाखंड हैं, लेकिन समाज को अपना भविष्य खुद तय करने के लिए इन विकृतियों को दबाना कितना उचित होगा? सवाल यह भी है कि बार-बार कुरेदने की आदत को हवा देने की राजनीतिक कोशिशों पर कब तक ताली बजाते या गलियाते बैठे रहा जाए?
नेताओं का देश-समाज के राजनीतिक-सामाजिक जीवन में जितना भी बौद्धिक और नैतिक योगदान हो, भौतिक योगदान होता ही है। उसके बिना दूसरे योगदानों की कोई जमीन नहीं बनती। लेकिन अगर किसी नेता को भौतिक योगदान तक सीमित रखेंगे तो खतरा यही होता है कि अपने समाज का राजनीतिक और सामाजिक जीवन ‘सूअरबाड़े’ जैसा बनेगा – बना रहेगा। सो किसी भी स्तर के हर राजनीतिक ‘मुखिया’ से जनता यह अपेक्षा रखती है कि वह देश-प्रदेश के राजनीतिक जीवन में कहीं भी ‘सूअरबाड़े’ बनाने की कोशिश हो, तो उसको रोके। सिर्फ तब न रोके, जब उसके अपने जीवन का बखिया उधेड़े जाने का डर पैदा हो। तब तो वह आत्मरक्षा की कोशिश मानी जाएगी, उससे यह संदेश (मैसेज) नहीं मिलेगा कि देश-प्रदेश के राजनीतिक जीवन को सूअरबाड़ा बनाना उसकी निजी प्रवृत्ति नहीं है। सार्वजनिक जीवन की महत्ता के लिए इसे शुरू से रोका जाना चाहिए।
अक्सर सत्तापक्ष या विपक्ष के मुखिया खुद अपने प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ ‘जैसे को तैसा’ तर्ज पर बखिया उधेड़ो अभियान चलाते हैं। या फिर अपने पक्ष के समर्थकों (छुटभैये नेताओं-प्रवक्ताओं) को ऐसा करते देख चुप रहते हैं। यह मौन उनके समर्थन का लक्षण बन जाता है। बखिया उधेड़ो अभियान को हवा देते – विकृति में रस लेते – उनके चेहरे अक्सर इसको उचित ठहराने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि ‘लोकतंत्र’ में वे खुद निरापद नहीं हैं, आदमकद नहीं हैं।
बिहार में विकसित लोकतंत्र की अब तक की जनता की समझ तो यही है कि नीचे रहकर ऊपर थूकोगे तो खुद पर छींटे पड़ेंगे। और, ऊपर होकर नीचे थूकोगे तो खुद को खुद इतना बौना कर लोगे कि दूसरे का थूक अपने पर गिरते रोक नहीं पाओगे।
पिछले 30-35 सालों में लालूजी के आसपसस जमा होनेवालों और नीतीशजी के आसपास जमा होनेवालों में ऐसे लोगों की कमी नहीं रही, जो प्रदेश में मुखिया बननेवाले या मुखिया बनने की अपनी दावेदारी को डंके की चोट पर सार्वजनिक करनेवाले लगभग सभी नेताओं को बदनाम या पतित दिखाते रहे हैं। इनमें ऐसे लोगों की भी कमी नहीं, जो आज उनकी तरफ हैं, जिनकी कल धज्जियां उड़ाई जाती थीं। ऐसी ‘करतूतों’ में निहित, रंग-बिरंगे निर्गंध या बदबू फैलानेवाले फूलों को पिरोने वाले धागे जैसे राजनीतिक सूत्र को पहचानें, तो वह यही होगा कि ये लोग अपना रास्ता साफ करने के लिए किसी भी प्रतिद्वंद्वी नेता को किनारे करने में अपने मुखिया से दो कदम आगे रहते हैं। इसके लिए वे लोग किसी को बदनाम और पतित करने का अपना राजनीतिक झाड़ू अपने मुखिया से भी अधिक दृढ़ चरित्र के प्रतिद्वंद्वी नेता पर फेरने से भी बाज नहीं आते।
अपने व्यक्तित्व के साथ अपने दायित्व के चरित्र और मान को ऐसे लोगों से बचाने का दायित्व कल भी लालूजी और नीतीशजी के हाथ था और आज भी है। क्या इस मायने में ‘लालूजी’ और ‘नीतीशजी’ अपनी कल की अलग-अलग छवि की तुलना में आज की साथ-साथ की छवि में जनता को ऐसा ‘बदलाव’ या विकास दिखा सकते हैं, जो उनके एक-दूसरे के पूरक होने का एहसास पुख्ता करे?
नब्बे के दशक में लालू और नीतीश एक दूसरे के पूरक होने का आभास देकर बिहार के आधुनिक ‘चंद्रगुप्त’ और ‘चाणक्य’ के रूप में चर्चित हुए थे। लेकिन बिहार के जिस उज्ज्वल इतिहास का वे निमित्त थे, उस इतिहास के साथ उन्होंने पिछले 40-45 सालों में क्या और कैसा बर्ताव किया, यह सामने है। इसलिए जनता, भले चाहती हो, पर यह समझती है, तथा लालू और नीतीश से भी यह समझने की अपेक्षा करती है कि बीते इतिहास की किसी भी तरह की व्याख्या हो – वह व्याख्या गलत हो या सही हो – उसकी पुनरावृत्ति नहीं हो सकती। हां, उससे नया और बेहतर भावी इतिहास रचने की सीख मिल सकती है।
यहां बीते इतिहास और भावी इतिहास के बीच ‘वर्तमान’ के इस तथ्य को रेखांकित करना प्रासंगिक होगा कि ‘विकास’, ‘सामाजिक न्याय के साथ विकास’ और ‘विकास के लिए सुशासन’ के हर राजनीतिक ‘कंसेप्ट’ और ‘मॉडल’ के केंद्र में आज ‘बाजार’ है, समाज नहीं। अब किसी भी विकास-मॉडल की सफलता-विफलता का पैमाना भी बाजार हो गया है, समाज नहीं रहा। पहले के कंसेप्ट या मॉडल में ‘समाज’ के एक कोने में ‘बाजार’ हुआ करता था। अब ‘बाजार’ में ‘समाज’ को समेट देने का कंसेप्ट विकसित हो चुका है। ‘बाजार की राजनीति’ में इस कंसेप्ट पर आधारित ‘विकास-मॉडलों’ में होड़ है। सो ‘राजनीति के बाजार’ में प्रसारित इन मॉडलों के अनुरूप ही राजनेताओं की ‘छवि’ उकेरी जा रही है।
छवि उकेरने की इस कोशिश से नीतीश और लालू की संयुक्त छवि उकेरने की कोशिश कितनी अलग और सही है? यह नीतीश जी और लालू जी को खुद तय करना है, घोषित करना है। जनता को इसकी प्रतीक्षा है। वह इसके लिए लालू-नीतीश के छुटभैये सहयोगियों की ‘समझ’ पर भरोसा नहीं कर पाती, क्योंकि वे समझते नहीं कि राजनीति के नाम पर दूसरों के कपड़े उतारोगे तो तुम्हें भी नंगा करके घुमा दिया जाएगा। उन्हें ऐसा करने से रोकने और मर्यादा में रखने की राजनीतिक जिम्मेदारी – ‘पटना’ में सत्तापक्ष और ‘दिल्ली’ में विपक्ष होने के नाते – लालू-नीतीश दोनों की कल भी थी और आज भी है।
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