23 अप्रैल। अंबरीश जी से पहली बार मेरी मुलाकात 2003 में दिल्ली में राइट टु एज्युकेशन (NFRA) के राष्ट्रीय समन्वय के मंच पर हुई थी। तब से आज तक वह मेरे बहुत करीबी मित्र और आंदोलन के साथी रहे। उनके जाने से हमारी व्यक्तिगत भी और संगठनात्मक क्षति भी हुई है।
“इस देश में राष्ट्रपति का बेटा और चपरासी का बेटा एक ही स्कूल में पढ़े” ऐसी समान शिक्षा प्रणाली के हक में और शिक्षा के बाजारीकरण के खिलाफ हमेशा डटकर खडे़ रहनेवाले अंबरीश तब से हमारे साथ वैचारिक रूप से जुड़ गये थे।
हम महाराष्ट्र और गुजरात के सीमावर्ती क्षेत्र में सतपुड़ा की पर्वत शृंखला में बसे आदिवासी समुदायों के साथ उनके नैसर्गिक संसाधनों के हकों की लड़ाई लड़ते आ रहे हैं और ग्रामीण इलाकों में किसानों को उनकी फसल का सही दाम दिलाने तथा किसानों की सम्पूर्ण कर्जा मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे हैं।
2004 से अंबरीश हमारे साथ इस कार्य को राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक आंदोलन का रूप देने के लिए जुडे़ और महाराष्ट्र तथा गुजरात के आदिवासी गांवों में घूमकर उन्होंने संगठन को और मजबूत करने में योगदान दिया।
गुजरात में जब नरेंद्र मोदी की सरकार थी, 23 मार्च 2004 को भगतसिंह के शहादत दिवस पर हमने फासीवाद के खिलाफ गांव गांव में सायकल यात्रा निकालने का तय किया तब डेडियापाड़ा में हम लोगों को गुजरात पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। हमारे सुमन भाई वसावा को प्रिवेंशन अगेंस्ट एंटी सोशल मूवमेंट के नाम पर नर्मदा जिले से उठाकर सीधे पोरबंदर जेल में 49 दिन रखा गया था, तब लोक संघर्ष मोर्चा द्वारा गांधीनगर तक कूच करके और मोदीजी को आमने सामने सवाल जवाब करके इस अन्याय के विरोध में आवाज उठाने में उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। मुकुल सिन्हा, सूरत के बाबूभाई देसाई और एडवोकेट दीपक चौधरी को लोक संघर्ष मोर्चा के साथ जोड़ने और गुजरात में फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में उनका काफी योगदान रहा।
“आदिवासी समुदायों के जल, जंगल, जमीन पर हक की लड़ाई इस जागतिक बाजार व्यवस्था और पूंजीवादी व्यवस्था से और मजबूती से लड़ने के लिए गांव स्तर के कार्यकर्ताओं को वैचारिक रूप से और सक्षम बनाना होगा” यह मानते हुए अंबरीश जी ने इन गांवों में अभ्यास वर्ग, प्रशिक्षण शिविर चलाये और लोक संघर्ष मोर्चा की लड़ाई को और मजबूत किया।
अंबरीश जी को गुजरात और महाराष्ट्र में संगठन के सघन क्षेत्र के गांवों का हर व्यक्ति दोस्त मानता था तथा एक गहरा रिश्ता लोगों के साथ उनका बना रहा।
अंबरीशजी ने अपनी निजी समस्या के कारण फिर दिल्ली जाना तय किया और उसके बाद व्यापक स्तर पर अनेक सस्थाओं के साथ मिलकर राइट टु एजुकेशन की लड़ाई मजबूत की। आज की तारीख में जब देश में शिक्षा के सांप्रदायीकरण और निजीकरण करने की कोशिश हो रही है, अंबरीश जी के काम का महत्त्व और भी अधिक समझ में आता है। गांव स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता से लेकर बुद्धिजीवी साथियों को जोड़ना और इस लड़ाई के लिए तैयार करना यह उनकी खूबी थी। पक्के वामपंथी होने के बावजूद हमारे जैसे कई समाजवादी साथियों के वे करीबी दोस्त रहे।
कोविड से संक्रमित होने के बाद अंबरीश जैसे साथी को ऑक्सीजन न मिलने से हम सबसे विदा होना पड़ा, यह बात इस देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की घोर बदहाली को ही दर्शाती है।
जब अंबरीश के अचानक हमेशा के लिए विदा होने की खबर आई तो लोक संघर्ष मोर्चा की सक्रियता वाले हर गांव में सन्नाटा छा गया। बहुत ही दुखभरी घड़ी है।
इस कोरोना की त्रासदी में कई साथियों के अचानक हमारा साथ हमेशा के लिए छोड़ जाने की खबर स्तब्ध कर देती है।
– प्रतिभा शिंदे
लोक संघर्ष मोर्चा