— राजकुमार जैन —
कातिल कोरोना ने जो वज्र प्रहार मुझ पर किया, उस नुकसान की भरपाई तो किसी भी तरह नहीं हो पाएगी। तुलसी शर्मा 12 मई को लगभग दस दिन मौत से लड़ते हुए हार गए। छोटे बेटे ने खबर दी कि पापा नहीं रहे, सुनते ही शून्य हो गया। अकसर मरहूम को यह कहकर श्रद्धांजलि दी जाती है कि इनकी कमी कभी पूरी नहीं हो पाएगी। ज्यादातर ये कोरे अल्फाज़ होते हैं, लिखने की एक बनी-बनाई इबारत। पर कभी-कभी लिखने और बोलने वाले की यह आंतरिक मर्माहत पीड़ा भी होती है। तुलसी शर्मा मेरे जीवन में ऐसे ही पात्र थे।
तीस साल पहले मैं समाजवादी जनता पार्टी का सूबाई अध्यक्ष था। भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा चौधरी ओमप्रकाश चौटाला महामंत्री थे। पहली बार तुलसी शर्मा मुझे जनपथ वाले पार्टी आफिस में मिले। मुस्कराहट तथा शर्मीले अंदाज में इनकी बातचीत तथा करीने से पैंट बुशर्ट, जूते, धूप का सुंदर फ्रेम वाला चश्मा लगाए देखकर पहली नजर में मुझे लगा कि यह कोई गैर-सियासी नौजवान है। चलताऊ ढंग से मैंने कहा कि हर शनिवार को दिन में दो बजे पार्टी आफिस में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक होती है, जिसमें राजनीतिक मसलों पर चर्चा होती है, उसमें विषय के जानकार लोग रोशनी डालते हैं, आप भी आइए।
अगले हफ्ते सभा शुरू होने से पहले ही तुलसी शर्मा हॉल में सबसे पीछे वाली कुर्सी पर आकर बैठ गए। बैठक में चाय, बिस्कुट, समोसे, ब्रेड पकोड़े वगैरह साथियों को देने का प्रयास भी रहता था। अक्सर मैं अपनी जेब से दो सौ रुपये निकालकर जलपान के खर्चे के लिए शुरुआत करता था, फिर कई अन्य साथी भी रुपये दे देते थे। तुलसी शर्मा अपनी सीट से उठकर आए और सौ रुपये का नोट उन्होंने मेज पर जहाँ और रुपये रक्खे थे रख दिया। मेरे लिए यह नया मंजर था कि एक नया साथी बिना मांगे पैसा दे रहा है।
तुलसी शर्मा पार्टी की बैठकों में हिस्सा लेने लगे। शुरू की चंद बैठकों में हिस्सा लेकर उन्होंने मुस्कराते हुए मुझसे कहा कि बैठक में बड़ा गुलगपाड़ा, तीखी नोकझोंक कुछ लोग करते हैं, आप इनको रोकते क्यों नहीं? मैंने हंसकर कहा, तुलसी बाबू, हर बार की मीटिंग में हॉल भरा होने का यही तो राज़ है। साथी लोग सुनने और सुनाने के लिए ही तो यहाँ आते हैं। कुछ साथियों को ऊँची आवाज में मुक्का लहरा कर बोलने की आदत है तथा कुछ उसकी मुखालिफत में उतना ही रस पाते हैं पर यही वो लोग हैं जो सभा की रौनक बनाए रहते हैं तथा पार्टी के धरना-प्रदर्शन में भी यही लोग बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। कुछ दिनों के बाद तुलसी को भी आनंद आने लगा। कई बार मैंने उनको उकसाया कि तुम भी बोलो, पर पहली मुलाकात से लेकर आखिरी बात तक तुलसी हर सवाल का जवाब केवल और केवल मुस्कराहट से देते थे।
नजदीकियाँ धीरे-धीरे सियासी रिश्तों से आगे बढ़कर व्यक्तिगत संबंधों में बंधती गईं। मेरे यूनिवर्सिटी वाले घर पर उनका आना-जाना बढ़ता गया। आने से पहले फोन आ जाता कि मैं आ रहा हूँ, क्या लाना है, मैं बेतकुल्लफ होकर कह देता था कि अमुक चीज लेते आना। मेरे घर पर साथियों का मजमा जमा होता था, वो पूछते थे कि कितने लोगों का नाश्ता लाना है?
तुलसी ने अपनी मेहनत और समझदारी के बल पर एक-एक ईंट जोड़कर अपने को स्थापित किया। उनकी समझदारी की कई मिसालें मेरे सामने है। बड़े बेटे ने जब बारहवीं का इम्तहान पास किया तो मैंने पूछा आगे क्या पढ़ाई करवाओगे, साथ ही कुछ सुझाव भी दे दिये। तुलसी ने बहुत ही निश्चिंत और सधे हुए अंदाज में कहा कि नम्बरों के आधार पर सरकारी डिग्री इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिल नहीं रहा इसलिए दिल्ली के किसी सरकारी पॉलिटेक्निक कॉलेज में चाहता हूँ कि इसका डिप्लोमा में दाखिला हो जाए। मैंने कहा कि क्या बेकार की बात करते हो। इसे बी.ई. डिग्री हासिल करने के लिए किसी प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला दिलवाओ। इतना खर्चा तो तुम उठा ही सकते हो।
उसने बड़ी संजीदगी से कहा कि कुकुरमुत्ते की तरह खुले हुए प्राइवेट इंजीनियंरिग कॉलेजों में उसके दाखिले के फार्म में बड़ी ही चतुराई से मनलुभावन तस्वीरों में लड़कों और लड़कियों के क्लासरूम के दृश्य, लायब्रेरी में किताबें और कम्प्यूटरों की नुमाइश दिखा देते हैं। टीचिंग स्टाफ की बात तो छोड़ो, मशीनों के नाम पर खराद की मशीनें भी वहाँ पर नहीं होतीं, दिल्ली के सरकारी पॉलिटेक्निक कॉलेजों में असली पढ़ाई और घिसाई होती है। वहाँ पढ़नेवाला विद्यार्थी बेरोजगार नहीं होता, इंजीनियरिंग का प्रैक्टिकल तर्जुबा उसको हो जाता है। दाखिले से पहले ही तुलसी ने मुझे साथ लेकर दिल्ली के सभी पॉलिटेक्निक कॉलेजों में जाकर वहाँ के छात्रों और शिक्षकों से बात कर वरीयता और कोर्स के हिसाब से सूची बना ली थी।
मैं, तुलसी और उनका बेटा दाखिले की कौंसलिंग में गए, कौंसलिंग के वक्त वहीं पर केवल कुछ सैकेण्डों में ही विद्यार्थी को हाँ और ना में जवाब देना पड़ता है। दाखिले से पहले ही तुलसी ने एक पर्चे पर हाथ से लिखकर कोर्स और कॉलेज की वरीयता को लिख लिया था। पूसा के बाद आर्यभट्ट कॉलेज उनकी दूसरी वरीयता थी। बेटे की कौंसलिंग से पहले के छात्र ने अपनी वरीयता पूसा पॉलिटेकनिक कॉलेज के मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बताई। कौंसलिंग बोर्ड वालों ने कहा कि मैकेनिकल में सीट नहीं है, आर्यभट्ट कॉलज में एक सीट खाली है। पर पहलेवाला विद्यार्थी कोर्स से ज्यादा कॉलज में इच्छुक था। उसने पूसा में इलेक्ट्रिकल में दाखिला ले लिया। नंबर आते ही बेटे ने बिना पल गंवाए आर्यभट्ट कॉलेज में दाखिले के लिए ख्वाहिश जाहिर कर दी। लाइन में पीछे खड़े विद्यार्थी ने बड़ी मायूसी से कहा, काश यह भी पूसा को ही पसंद करता तो मेरा मैकेनिकल में नंबर आ जाता।
आर्यभट्ट पॉलिटेकनिक कॉलेज से इंजीनियरिंग डिप्लोमा पास करते ही बेटे की ट्रक बनानेवाली बहुत नामी कंपनी में नौकरी लग गई। ट्रकों के इंजन की तकनीक सिखाने के लिए कंपनी ने छह महीने की ट्रेनिंग पर शायद बंगलोर भेज दिया। बाद में कंपनी ने कंपनी कोटे से मशहूर बिड़ला इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला दिलवाकर कंपनी के खर्च पर बी.ई. की डिग्री हासिल करवायी। आज उनका बेटा, एक बहुत नामी कंपनी के ऊँचे ओहदे पर कार्यरत है। जैसा उन्होंने सोचा था वैसा ही हुआ। पहली बार मुझे लगा कि तुलसी कितनी गहराई में जाता है, मैं यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के बावजूद कितना इस सच्चाई से नावाकिफ था।
सामाजिक रिश्तों में भी वो कैसे मानवीय व्यवहार करते थे, उसे भी एक मिसाल से समझा जा सकता है। लोगों को दहेज जैसी कुप्रथा की बुराई करते तो मैं अकसर सुनता रहता हूँ। परंतु व्यवहार में उसपर अमल करते हुए मैं कम ही लोगों को देखता हूँ।
बेटे की शादी के कई लुभावने प्रस्ताव आए परंतु तुलसी ने बड़ी विनम्रता से मजबूरी जाहिर कर दी। बिना दहेज की मनमाफिक पुत्रवधू मिल जाने पर शादी करने के कुछ दिन बाद अपनी पत्नी को साथ लेकर बहू की माँ से आगरा मिलने चले गए। एक साड़ी भेंट करते हुए उन्होंने कहा, बहनजी, मैं आपका बहुत शुक्रगुज़ार हूँ, आपने मुझे ऐसी बेटी दी है, जिसने मेरे घर को खुशियों से भर दिया है।
संबंधों की गरमाहट का निभाव भी वो बखूबी करते थे। बेटे की शादी में वर-माला के बाद मैंने तुलसी को कहा कि मैं दिल्ली वापिस जा रहा हूँ। उन्होंने मुझपर जोर डाला कि आप विदाई के बाद हमारे साथ दिल्ली चलें। मैंने जिद पकड़ ली। अब जरा सोचिए, दूल्हे का पिता जो बेटे की शादी में बहुत अधिक मस्त और व्यस्त रहता है, उस वक्त भी तुलसी ने विदाई की रस्म जिसमें दुल्हन के घरवाले दूल्हे के किसी बुजुर्ग को शॉल ओढ़ाकर सम्मान करते हैं, विदाई से पहले ही तुलसी ने दुल्हन के घरवालों से कहा कि आप मेरे आदरणीय जैन साहब का सम्मान करो। एक शॉल और कुछ शगुन का सामान उन्होंने मुझे भेंट करवा दिया। क्या मैं इसको कभी भूल सकता हूँ?
तुलसी अपने व्यवहार से, जितने मेरे व्यक्तिगत अथवा सियासी संगी-साथी हैं, उन सबका प्यारा, अपना बन गया था। उसके खर्चीले स्वभाव को देखकर किसी को भी गलतफहमी हो सकती थी कि यह कोई पैसेवाला है। ओड़िशा में पादरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बेटों को तास्सूबी सोच के नरपिशाच ने जिंदा जला दिया था। सेंट स्टीफन्स कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल डॉ. वालसम थम्पू के साथ बैठकर ग्राहम स्टेन्स की पत्नी ने टेलीविजन पर इच्छा जाहिर की थी कि मैं वहीं आदिवासी इलाके में एक अस्पताल बनाकर सेवा करूँगी। इस कार्य के लिए आर्थिक मदद की गुहार भी थी।
तुलसी से मैंने जिक्र किया। बिना एक पल गंवाए, उन्होंने कहा कि आज ही चलो, ‘थोड़े पान-फूल’ मैं भी भेंट करना चाहता हूँ। शाम को ही वालसम थम्पू के निवास स्थान सेंट स्टीफेंस अस्पताल के स्टाफ क्वार्टर में जाकर उन्होंने बंद लिफाफे में एक चैक दे दिया।
और एक बार नहीं हुआ। चाहे किसी की मदद करनी हो या पार्टी संगठन में चंदा देना हो, हर बार खुशी-खुशी थोड़े पान-फूल कहकर अपना फर्ज अदायगी वे करते थे। अपने देहांत से कुछ दिन पहले उन्होंने कहा कि दिल्ली के सिखों द्वारा जो लंगर सेवा की जा रही है हमें भी उसमें अपना सहयोग देना चाहिए।
समाजवादियों में उनका मुकाम बुलन्दियों पर पहुँच गया था, हर किसी से रोजमर्रा उनकी दुआ सलाम होती थी। उनकी दुकान के पास से कोई साथी बिना चाय-पानी किये गुजर नहीं सकता था।
साथियों का उनपर गहरा विश्वास था। ‘नागरिक मंच’ जैसे संगठन में उनकी गहरी भागीदारी थी। मेरे मुँह से कोई बात निकली नहीं कि उसे पूरा करने में लग जाते थे। चेहरे पर हरदम मुस्कराहट। गुस्सा, जलन, दूसरों की बुराई से कोसों दूर। संतोषी जीवन। दिल्ली के हर साथी के अजीज। तुलसी जैसे साथी के बिछुड़ जाने पर मन की वेदना कैसे व्यक्त करूँ समझ नहीं आ रहा।
पूरा आलेख पढ़ा.आत्मीयताकी सुगंध बिखेरता अनन्य मित्र के बारे में लिखें संस्मरण अद्भुत है.
तुलसी शर्मा जी की स्मृति को सश्रद्ध नमन. 🌷📖🌷
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