— रामस्वरूप मंत्री —
क्या इत्तिफाक है कि जब भी भाजपा की कोई सरकार खतरे में होती है तो या तो पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ होती है, या फिर कोई आतंकी हमला हो जाता है या कहीं दंगा फैल जाता है!
ऐसा लगता है मानो जब-जब भाजपा हार रही होती है और उसके नेता दिलो-जान से चाहते हैं कि कोई ऐसी आकस्मिक घटना घट जाए, उसी समय ऐसी आकस्मिक घटना घट ही जाती है! लेकिन पुलवामा हमले के समय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक के साक्षात्कार और डीएसपी देविन्दर सिंह को बाद में मिली जमानत से इस आकस्मिकता पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं। ये घटनाएँ कितनी इत्तेफ़ाकन थीं, इस पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं। और बार-बार भाजपा और उसकी सरकारों के संकट में आने पर अचानक “देश संकट में” कैसे आ जाता है, इस पर भी सवाल खड़े हो जाते हैं।
जरा याद कीजिए। पिछले 25 वर्षों में आतंकवादी हमले, पाकिस्तान द्वारा घुसपैठ और साम्प्रदायिक दंगे अधिकांशत: तभी क्यों हुए हैं जब भाजपा सरकारें सत्ता में थीं; बेरोजगारी, महँगाई, भ्रष्टाचार के कारण वे भयंकर अलोकप्रिय हो चुकी थीं और आने वाले आम चुनावों में उनकी हालत पतली थी? सोचने से पहले इन कुछ घटनाओं पर गौर कीजिए।
1999 के अक्टूबर में आम चुनाव होने वाले थे। वाजपेयी सरकार सत्ता में थी। वाजपेयी सरकार की हालत पतली थी। जून-जुलाई 1999 में पाक-समर्थित आतंकवादियों द्वारा घुसपैठ होती है और कारगिल युद्ध हो जाता है। जब चुनाव हो गये, भाजपा जीत गयी तो यह पता चला था कि घुसपैठ लम्बे समय से जारी थी और ख़ुफ़िया एजेंसियों को इस बारे में मई 1999 में ही सूचना मिल गयी थी और तमाम सूत्रों द्वारा बार-बार इस घुसपैठ के बारे में चेताये जाने के बावजूद भाजपा सरकार ने कुछ नहीं किया और चुनाव के करीब आने पर कारगिल युद्ध की शुरुआत हो गयी।
खुद उस युद्ध के ऑपरेशन विजय के प्रमुख सैन्य कमांडरों में से एक लेफ्टिनेंट जनरल मोहिन्दर पुरी ने बताया कि यह पूरी तरह से खुफिया नाकामी और लापरवाही का नतीजा था। लेकिन अगर मई 1999 से ही घुसपैठ की सूचना मिल जाने के बावजूद जून 1999 तक कुछ नहीं किया गया तो अधिकतम सम्भावना इस बात की है कि यह महज खुफिया नाकामी नहीं हो सकती। कारगिल युद्ध के बाद जो अन्धराष्ट्रवाद की लहर फैली उसमें वाजपेयी नीत-भाजपा की अगुवाई में राजग की सरकार बनी।
2001 में संसद पर हमला होता है, जिसका इस्तेमाल 2002 और 2007 में गुजरात चुनावों के पहले तक और उसके बाद 2009 में आम चुनावों के पहले तक भाजपा करती रही, हालाँकि यह हमला उस समय हुआ था जब खुद भाजपा की ही सरकार केन्द्र में थी!
उसी प्रकार, 2019 में नोटबन्दी और जीएसटी के भयंकर क़दमों के कारण मोदी सरकार बुरी तरह से अलोकप्रिय थी और उसके चुनाव जीतने के कोई आसार नहीं थे। आज भारत के अग्रणी चुनाव विश्लेषक और वोटिंग पैटर्न के विशेषज्ञ यानी सैफोलॉजिस्ट इस तथ्य को बिना किसी झिझक बताते हैं कि यदि पुलवामा हमला न हुआ होता तो 2019 में मोदी सरकार की चुनावों में हार तय थी। नोटबन्दी ने जिस क़दर जनता को खून के आँसू रुलाये थे, उसे भुलाने के लिए अन्धराष्ट्रवाद की एक तगड़ी लहर फैलाना मोदी सरकार के लिए जरूरी था।
पुलवामा हमले के समय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक ने दि वायर के करन थापर को दिये साक्षात्कार में साफ शब्दों में बताया है कि जहाँ तक पुलवामा हमले का प्रश्न है तो दाल में कुछ काला नहीं है बल्कि पूरी दाल ही काली है।
सरकारी नियमों व मानकों के ही अनुसार, आतंकवाद-प्रभावित क्षेत्रों में 2500 सैनिकों को कभी भी सड़क के रास्ते एक स्थान से दूसरे-स्थान नहीं ले जाया जाता है। इन सैनिकों ने इस यात्रा के लिए 5 विमानों की माँग भी की थी। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मोदी सरकार के गृह मंत्रालय ने साफ मना कर दिया था और इतने बड़े काफिले को सड़क से जाने को मजबूर किया था जबकि आतंकी हमले की आशंका की सूचनाएँ लगातार मिल रही थीं और कुछ ही दिनों पहले डीएसपी देविन्दर सिंह दो आतंकियों को अपनी कार में घुमाता पकड़ा गया था! पूरे रास्ते में 8 से 10 ऐसी पतली सड़कें राजमार्ग से जुड़ती थीं, जिन पर कम-से-कम 10-12 दिनों से 300 किलोग्राम से ज्यादा आरडीएक्स विस्फोटक लेकर एक कार लगातार घूम रही थी। इन छोटी सड़कों पर निगरानी करने, उनकी रेकी करने और उन्हें ‘सैनीटाइज़’ करने, यानी ख़तरों या जोखिम की जाँच करके उन्हें सुरक्षित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया था। और ऐसे रास्ते पर 2500 सैनिकों के काफिले को भेज दिया गया! यानी इस हमले के लिए एक खुला न्यौता दे रखा गया।
सत्यपाल मलिक ने इसी साक्षात्कार में बताया कि जब हमला हुआ तो नरेन्द्र मोदी जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में अपना फोटो सेशन करवा रहे थे। मलिक ने मोदी जी को फोन किया। बाद में मोदी जी ने एक ढाबे से उनको वापस फोन किया। मलिक ने बताया कि हमले के लिए पूरी तरह सरकार की चूक और लापरवाही जिम्मेदार है और इन 40 सैनिकों की मौत की जिम्मेदारी इस नाते सरकार की बनती है। इस पर नरेन्द्र मोदी ने मलिक को अपनी जुबान बंद रखने का आदेश दिया। फिर यही फऱमान उनको राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने दिया कि अपना मुँह बंद रखो। क्यों?
क्या यह पूरी सच्चाई जनता के सामने नहीं आनी चाहिए थी कि इस हमले और 40 सैनिकों की मौत के पीछे कारण, सरकार द्वारा कोई सुरक्षा इन्तजाम न कराना, हवाई जहाज मुहैया न कराना और मानकों को ताक पर रखकर इतने बड़े काफिले को सड़क से भेजना था? मगर ऐसा होता तो पुलवामा हमले और उसमें मारे गये 40 सैनिकों, जिनमें से अधिकांश आम गरीब किसानों व मजदूरों के ही बेटे थे, को चुनावी मसला बनाकर अन्धराष्ट्रवाद नहीं फैलाया जा सकता था और न ही बालाकोट हमले का मंचन किया जा सकता था। स्वयं बालाकोट हमले में क्या हुआ, इस पर बहुत से पत्रकारों व प्रेक्षकों ने सवाल उठाये हैं। जिस बात का पक्के तौर पर सबूत है वह सिर्फ इतना है कि भारत का एक लड़ाकू विमान अपने पायलट को ही पाकिस्तान में गिरा आया था,जिसे बाद में पाकिस्तान ने भारत के हवाले कर दिया। इन सारे वाकयों की पूरी सच्चाई तो कभी भविष्य में ही सामने आ पाएगी। लेकिन सत्यपाल मलिक के खुलासों से इतना स्पष्ट है कि पुलवामा हमला होने की स्थितियों की रेसिपी मोदी सरकार ने ही तैयार कर दी थी।
यहीं पर जम्मू-कश्मीर के डीएसपी देविन्दर सिंह का रहस्यमय मामला भी सामने आता है। यह आदमी शुरू से ही आतंकियों से अपने संबंधों, कश्मीरी नौजवानों को यातना देने और हत्याएँ करने, घूस लेने और भ्रष्टाचार करने के मामले में कई बार दंडित हो चुका पुलिस अधिकारी है। लेकिन आपको ताज्जुब होगा कि हमेशा दंड के तौर पर इसे अधिक से अधिक संवेदनशील सुरक्षा विभागों में तैनाती मिलती रही। पुलवामा हमले के कुछ ही दिनों पहले यह शख़्स 11 जनवरी 2019 को अपनी निजी कार में जम्मू में दो आतंकियों नवीद मुश्ताक़ और रफ़ी को ले जा रहा था और रँगे हाथों पकड़ा गया था। इसके पहले, अफ़ज़ल गुरू ने भी मौत से पहले भेजे गये अपने पत्र में देविन्दर सिंह पर आरोप लगाया था कि उसने गुरू को यातना देकर दिल्ली में आतंकियों की मदद करने के लिए बाध्य किया था। 11 जनवरी 2019 को पकड़े जाने के बाद देविंन्दर सिंह ने पहले तो गोलमाल किया और फिर पूछताछ करने वाले अधिकारी को बोला कि “मेरा दिमाग फिर गया था कि मैं ऐसा काम कर रहा था।” बहरहाल, देविन्दर सिंह गिरफ्तार हो जाता है। कुछ दिनों बाद ही पुलवामा हमला होता है। उसके बाद जून 2020 में देविंन्दर सिंह को जमानत भी मिल जाती है, जिसे गोदी मीडिया में कहीं सुर्खियाँ नहीं बनाया जाता!
क्या आतंकियों की मदद करने वाले किसी व्यक्ति को, जिस पर यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज हुआ हो और जो आतंकियों को अपनी कार में घुमाता रँगे हाथों पकड़ा गया हो, उसे इतनी जल्दी जमानत मिलती है? यहाँ तो बेगुनाह ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट व राजनीतिक कार्यकर्ताओं को यह कानून लगाकर जेल में ही मार दिया जाता है या वहीं सालोंसाल सड़ा दिया जाता है, जबकि कोई प्रमाण तक नहीं होता, लेकिन देविन्दर सिंह को जमानत मिल जाती है। ये सारी बातें बहुत-से सवाल खड़े करती हैं।
जो भी हो, इतना तय है कि पुलवामा हमले पर सत्यपाल मलिक के खुलासों ने भाजपा, संघ परिवार और मोदी-शाह सत्ता के मंसूबों पर गम्भीर सवालिया निशान खड़े कर दिये हैं। यही वजह है कि विपक्ष के तमाम नेताओं को ईडी व सीबीआई के जरिये डराने-धमकाने के सिलसिले में अब सत्यपाल मलिक को भी डराने का प्रयास किया जा रहा है। निश्चित ही, यह शासक वर्ग के भीतर का अंतर्विरोध है।
आज देश में बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी और साथ ही भाजपा के अभूतपूर्व और रिकार्डतोड़ भ्रष्टाचार के सामने आने के साथ ये अन्तरविरोध गहरा गये हैं। मोदी सरकार की नीचे गिरती लोकप्रियता के सन्दर्भ में तमाम मसले और विभिन्न खुलासे शासक वर्ग के अलग-अलग खित्तों के बीच से ही निकलकर सामने आ रहे हैं, तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है।
गौरतलब है कि समूचा गोदी मीडिया एकदम बेशर्मी से पुलवामा पर हुए खुलासों को ब्लैकआउट कर रहा है और मलिक पर ही सवाल उठाने की कोशिश कर रहा है कि उन्होंने पुलवामा हमले के तुरन्त बाद ही ये खुलासे क्यों नहीं किये। इसका जवाब सत्यपाल मलिक खुद दे चुके हैं कि पुलवामा हमले के तुरन्त बाद उन्होंने खुफिया चूक की ओर सार्वजनिक तौर पर इंगित किया था, जिसके बाद मोदी और अजित डोभाल ने उन्हें जुबान बन्द रखने की हिदायत दी थी। अब आलम यह है कि लोग टेलीविजन के गोदी चैनलों को देखने की बजाय सोशल मीडिया पर चलने वाले स्वतन्त्र न्यूज चैनलों और पत्रकारों को ज्यादा देख और सुन रहे हैं। यही कारण है कि मोदी सरकार अब सोशल मीडिया पर लगाम लगाने की कोशिश कर रही है। लेकिन वह इस मुगालते में है कि ऐसा करने में सफल हो पाएगी।
सोशल मीडिया पर पूर्ण नियंत्रण लगाने की कोशिश कई देशों की दमनकारी और तानाशाह सरकारें कर चुकी हैं, लेकिन यह माध्यम ही ऐसा है जिस पर पूर्ण नियंत्रण करना अभी तक शासक वर्ग के लिए सम्भव सिद्ध नहीं हुआ है। कर्नाटक में भाजपा की पराजय ने देश को यह संदेश दिया है कि चाहे मोदी कितना भी अजेय बनने की कोशिश करें लेकिन देश की जनता उन्हें हरा सकती है और इसी के चलते विपक्षी दलों का नया गठजोड़ ‘इंडिया’ बना है।
मोदी-नीत भाजपा की हार की सम्भावनाएँ भी बढ़ती जा रही हैं, जिसकी अभी तीन-चार महीने पहले तक भी कल्पना नहीं की जा सकती थी। अधिकतर चुनाव विश्लेषकों के लिए 2024 का चुनाव एक पहले से तय मुद्दा था, लेकिन अब मोदी के प्रति सकारात्मक रुख रखने वाले विश्लेषक भी इतनी दो टूक भाषा में बात नहीं कर पा रहे हैं। सच्चाई यह है कि मोदी का सितारा तेजी से गर्दिश में जा रहा है। फासीवादियों की पुरानी ट्रिक रही है कि साजिशाना तरीके से दंगे भड़काना (जिसके प्रयास रामनवमी और हनुमान जयंती के उत्सवों को मुसलमान विरोधी दंगों में तब्दील करने की कोशिशों के साथ संघ परिवार शुरू कर चुका है), अंधराष्ट्रवाद की लहर फैलाना, कोई छोटा-मोटा युद्ध भड़का देना। इसी दौरान ऐसा भी संयोग कभी घटित होता है कि आतंकी हमला हो भी जाता है।
गौरतलब है कि नात्सी जर्मनी में हिटलर ने वहाँ की संसद राइखस्टाग में आग लगवायी थी और उसका इल्जाम समाजवादियों, सामाजिक जनवादियों व कम्युनिस्टों पर लगाकर अपने तानाशाही कानूनों को थोप दिया था और यह सबकुछ ‘राष्ट्र’ और ‘देश’ की सुरक्षा के नाम पर जनता में एक भय पैदा करके किया गया था, ताकि लोगों को यह बताया जा सके कि हिटलर जैसा मजबूत नेता ही अब जर्मनी को बचा सकता है!
आप 2024 के पहले मोदी सरकार की खराब होती हालत के मद्देनजर किन बातों की अपेक्षा कर सकते हैं!
यह समय है अपनी मनोगत शक्तियों को तैयार और संगठित करने का, बेरोजगारी, महँगाई आदि के प्रश्न पर जुझारू जनान्दोलन खड़ा करने का, अपनी ताकत को एकजुट, संगठित और आने वाले तीव्र वर्ग संघर्ष के लिए तैयार करने का।
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