साल के 365 दिन में मात्र एक दिन ही सही लेकिन आज सुबह से हिंदी के नगाड़े बज रहे हैं। ऐसे में मुझे आदर के साथ बचपन काल से हमारे आदर्श समाजवादी जननायक स्व कर्पूरी ठाकुर जी की याद आती है। काश, उनका हिंदी ही नहीं भारतीय भाषाओं से प्रेम उनके शिष्यों ने जारी रखा होता। शिष्य की अपनी यात्रा होती है, कई बार गुरू से भिन्न। बिहार में हिंदी जिस गति से त्यागी गई, अंग्रेजियत का टायफाइड फैला, शायद ही अन्य किसी प्रांत में भाषा का ऐसा तांडव हुआ है। अब वहां स्नातकोत्तर भी सही, उन्नत हिंदी नहीं बोल पाते हैं।
लेकिन वार्षिक रिवाज की तरह आज हिंदी के नगाड़े बज रहे हैं, 365 दिन में एक दिन। काश! सुन-पढ़ कर गर्व का एहसास होता।
आंकड़े से सहमत नहीं हो पा रहा हूं। जब हिंदी, हिंदी प्रदेशों में सिसक रही है, वहां की आंचलिक भाषा अपनी वाजिब भूमि बनाने में जुट गई है, ऐसे में हिंदी के बढ़ने का आंकड़ा समझ से परे है। अब हिंदी प्रदेशों में भी अभिवादन हिंदी में दुर्लभ होता जा रहा है। हिंदी घरों की नौकरानी की भी हैसियत नहीं रखती है। भारतीय भाषाएं, भाषाई व्यापारियों तक सिमट रही हैं। द्रविड़ क्षेत्र भी इस छूत से ग्रसित होने लगा है। संभ्रांत परिवार इस विनाश के जनक हैं जहां अंग्रेजों के समय अंग्रेजियत छूत की तरह फैली और अब रूढ़ हो गई है। इनकी स्थिति सांप छूछूंदर की है। भारतीय भाषा पर आघात अंग्रेजी ने कम, भारतीय भाषा के दो मुंहा सांप वाले अलंबरदारों ने किया है। अनेकों उदाहरण दे सकता हूं और वक्त आने पर नाम के साथ। चीजें वही टिकती हैं जिनके प्रति आंतरिक प्रेम है, लगाव है, निष्ठा है और जिनके लिए त्याग की उत्कट भावना है। भाषा प्रेम में जर्मन, फ्रेंच, पोर्तुगीज आज भी प्रेरक हैं जो अंतरराष्ट्रीय तो हैं लेकिन अपनी मजबूत भाषा प्रेम के साथ।
भारत नकलचियों की भीड़ है।
– कलानंद मणि