रामायण, महाभारत और गांधी-आंबेडकर

0
Ramayana, Mahabharata and Gandhi-Ambedkar

arun kumar tripathi

— अरुण कुमार त्रिपाठी —

हाभारत क्या है? वह काव्य है या इतिहास है? वह मिथक है या दर्शन शास्त्र, पर्यावरण शास्त्र, नीति शास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र के ज्ञान का कथा समुद्र है? वह बराबरी और उदारता की ओर ले जाता है, वह स्त्रियों और शूदों को सबल बनाता है या उन्हें और कमजोर बनाकर वर्णव्यवस्था माध्यम से समाज को असमानता और हिंसा की ओर ढकेलता है? वह युद्ध को रोकता है या उसे उकसाता है? वह इसी जगत का यथार्थपरक आख्यान है या फिर प्रारब्धवाद और कर्मवाद से संचालित आख्यान है? उसे पढ़ा जाए या न पढ़ा जाए? उत्तर भारत के घरों में जिस तरह रामायण(विशेष तौर पर तुलसीकृत) को घर में रखना शुभ माना जाता है उसके विपरीत महाभारत के सभी खंड रखना प्रतिबंधित क्यों है? क्या महाभारत घर में रखने पर झगड़ा बढ़ता है?

क्या झगड़े की काट के लिए हरिवंश पुराण भी रखना चाहिए? क्या युरोप के विद्वानों ने महाभारत में वास्तव में दर्शन और ज्ञान की कोई गहराई देखी या उन्होंने इसे एक बिखरी और उलझी हुई प्रारब्ध से संचालित कथा मानकर एक ऐसा सामान्य ग्रंथ ही माना है जहां दर्शन की गहराई संभव नहीं है? क्या युवा पीढ़ी महाभारत से परिचित है, उसकी इसमें कोई रुचि है या फिर थोड़ी बहुत वही पीढ़ी परिचित हैं जिन्होंने 1988-90 के वक्त उसे टीवी पर धारावाहिक के तौर पर देखा था और बार बार फेसबुक पर उसकी क्लिप देखते रहते हैं? यह तमाम सवाल आज भारत के विद्वानों को मथ रहे हैं। विशेषकर विऔपनिवेशीकरण के विद्वानों का मानना है कि पश्चिम के विद्वानों ने भारतीय समाज की हीनता साबित करने के लिए रामायण और महाभारत को हल्का बताकर खारिज कर दिया? ताकि वे इस समाज पर अपनी राजनीतिक संरचना थोप सकें और थोप सकें अपनी ज्ञान परंपरा। इस तरह उनका शासन लंबा चले। यह तमाम सवाल पिछले दिनों दिल्ली में एक वर्कशाप यानी कार्यशाला में उठे।

इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आंबेडकर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अभय कुमार दुबे और युवा इतिहासकार डॉ रमाशंकर सिंह के संयोजन में महाभारत पर दो दिवसीय(18-19 सिंतंबर) समवाय यानी कार्यशाला की चर्चाएं नए संदर्भों में अहम हो जाती है। इस कार्यशाला का शीर्षक था—महाभारत और औपनिवेशिकता का प्रत्याख्यान। इसमें प्रोफेसर वागीश शुक्ल और प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी, प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल, डॉ सच्चिदानंद जोशी जैसे महाभारत के विद्वानों के अलावा प्रोफेसर गिरीश्वर मिश्र जैसे मनोविज्ञानी व कई गंभीर अध्येताओं ने हिस्सा लिया। उनके अतिरिक्त साहित्य, राजनीति शास्त्र, इतिहास, विधि, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, स्त्री अध्ययन और अन्य अनुशासनों के विद्वानों और अध्येताओं ने भाग लिया। इनमें प्रोफेसर लारेंस लियांग, भगत ओइनम, प्रोफेसर मणींद्र नाथ ठाकुर, प्रोफेसर राजकुमार, रुक्मिणी सेन, डा सुमन केशरी, डा आशीष त्रिपाठी, डा भूमिका मीलिंग, डा सुमेल सिंह सिद्धू, डॉ. तृप्ति श्रीवास्तव, पंकज कुमार सिंह के नाम प्रमुख हैं।

कार्यशाला का लक्ष्य यह सिद्ध करने पर था कि उपनिवेशकों के दावे के विपरीत भारतीय समाज में नैतिकता, ईमानदारी और वीरता के उच्चतर मानवीय मूल्य उपस्थित रहे हैं। रामायण और महाभारत इसके प्रमाण हैं। भारतीय समाज इन ग्रंथों के आधार पर अपनी सामाजिक संस्थाओं, राज्य की संरचना और आर्थिक स्थिति को व्यवस्थित करता रहा है। वह रीति रिवाज और नियम कानून बनाता रहा है और राज्य नाम की संस्था का संचालन करता रहा है। कार्यशाला में भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट के सौजन्य से वी.एस.सुखथंकर के संपादन में पचास वर्षों के अथक श्रम के बाद प्रकाशित `क्रिटिकल एडिशन’ की विस्तार से चर्चा हुई। चर्चा इस बात पर भी हुई कि इतना प्राचीन होने के बावजूद महाभारत पुराना क्यों नहीं पड़ता।

इस बात को महाभारत के एक अन्य संपादक श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने कहा है कि महाभारत केवल इतिहास होता तो कब का पुराना पड़ गया होता। यह वास्तव में ऐतिहासिक काव्य है या काव्यात्मक इतिहास है। इसलिए पुराना पड़ता ही नहीं। ध्यान देने की बात है कि रामकृष्ण गोपाल भंडारकर से लेकर सुखथंकर और सातवलेकर तक विभिन्न विद्वान देशभक्ति और महाराष्ट्र की समाज सुधारक परंपरा से जुड़े थे। वे एक ओर भारतीय ज्ञान परंपरा को तलाश रहे थे तो दूसरी ओर समाज सुधार करते हुए और आजादी की लड़ाई भी लड़ रहे थे। भंडारकर का तो तिलक के अनुदार विचारों से गहरा मतभेद था।

महाभारत में कथाओं का जंगल है लेकिन अगर उन्हें व्यवस्थित करके देखा जाए तो वह एक विचार प्रयोग था, ऐसा वागीश शुक्ल का मानना था। उनका कहना था कि शकुनी के पांसे दरअसल सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी इस बात से बीआर चोपड़ा द्वारा निर्मित और राही मासूम रजा द्वारा तैयार पटकथा का वह आरंभिक चक्र घूम गया कि मैं समय हूं।

अगर डा सुमन केसरी ने अपनी कविताओं के माध्यम से यह दर्शाया कि महाभारत की स्त्रियों जैसे गांधारी, कुंती और द्रौपदी के माध्यम से नारी जाति की चीख अभी तक सुनाई पड़ती है और उनके सभ्यता मूलक सवाल हमारे समय को भी परेशान करते हैं तो रुक्मिणी सेन ने बताया कि किस तरह से सांवली मित्र के नाटक `नाथवती अनाथवती’ ने द्रौपदी के संघर्ष के माध्यम से बांग्ला समाज को झकझोरा। जबकि डा भूमिका मीलिंग का कहना था कि उनकी अंग्रेजी साहित्य की कक्षा के विद्यार्थी तो महाभारत को जानते ही नहीं। उन्हें पीटरब्रुक के 1985 में भारत में प्रदर्शित नाटक को पढ़ाने में बहुत दिक्कतें आईं। प्रोफेसर राजकुमार का मानना था कि महाभारत प्रारब्ध से संचालित है और इसीलिए उसका हर पात्र किसी न किसी रूप में शापित है और अपने जीवन में उसी शाप को पूरा कर रहा है। उनकी इस बात को राधावल्लभ त्रिपाठी ने भी स्वीकार किया। डा तृप्ति का मानना था कि पाठ तैयार करने की जो युरोप की बाइबिल वाली परंपरा है महाभारत की परंपरा उससे भिन्न है।

लेकिन यहां बुद्धदेव वसु के अनुवाद `महाभारतेर कथा’ का यह परिचय उसके विस्तार पर बहुत कुछ कहता हैः—भारत वर्ष के वनों की तरह महाभारत विस्तीर्ण है। उसके वृक्ष समूह एक दूसरे से सटे हुए, जटिल लता गुल्मों से आच्छादित और उलझे हुए हैं। बहुचित्रित मंजरियों से लदे हुए रंगमय और सुगंधित। वहां सभी तरह के जीव रहते हैं, पक्षियों की मनोमुग्धकारी ध्वनि सुनाई पड़ती है। उसी के साथ वन्यजीवों की हुंकार भी।

रामायण और महाभारत से डॉ रामनोहर लोहिया भी बहुत प्रभावित थे और उसकी वजह यह है कि भारतीय समाज पर इन दोनों आख्यानों की गहरी छाया है। वे कहते भी थे इतिहास ने इस समाज को इतना संचालित नहीं किया है जितना इन दोनों किंवदंतियों ने। इसलिए उन्हें इतिहास सिद्ध करने से ज्यादा जरूरी है उनके संदेशों को सही अर्थो में ग्रहण करना। हालांकि महाभारत के श्लोकों में इतिहास शब्द का प्रयोग भरपूर किया गया है। पर उसका अर्थ शायद यूरोप के `हिस्ट्री’ शब्द से भिन्न है।

मौजूदा सरकार ने जिस तरह भारतीय ज्ञान परंपरा को खोजने और स्थापित करने का अभियान चलाया है उसमें महाभारत और रामायण पर तेजी से काम हो रहा है। उसमें नई व्याख्याएं तो सामने आ रही हैं लेकिन एक कोशिश हिंदू श्रेष्ठता साबित करने की भी है तो दूसरी कोशिश तिथि निर्धारण की है। हालांकि कहीं भी पिछली सदी में ही किए गए सुखथंकर और 17 वीं सदी में वाराणसी में रहने वाले नीलकंठ चतुर्धर द्वारा किए गए `भारत भवदीप’ जैसा काम होता नहीं दिख रहा है। सुखथंकर के काम में अगर पचास साल लगे थे तो नीलकंठ जी के काम में 25 साल लगे। आज डिजिटल युग में इस अवधि को घटाया जा सकता है। लेकिन काम की गुणवत्ता तो राजनीति से नहीं आएगी, उसके लिए समर्पण की आवश्यकता है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र तो इन आख्यानों के काल निर्धारण में उलझा हुआ है।

आज जब मुगल काल को भारतीय संस्कृति और विशेषकर हिंदू संस्कृति को नष्ट करने वाला बताकर उसे इतिहास के पन्नों से हटाया जा रहा है तब राधावल्लभ त्रिपाठी का यह कथन महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि हमें सम्राट अकबर का कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने महाभारत के एक लाख संस्कृति श्लोकों का अनुवाद फारसी में करवाया। महाभारत का फारसी अनुवाद `रज्जनामा’ के नाम से जाना जाता है और यह काम फैज़ी और अब्दुल कादिर बदायूंनी ने किया था। उन्होंने 1582 में यह काम शुरू किया और इसे 1584 से 1586 के बीच पूरा किया। इस अनुवाद को सजाने के लिए 186 चित्र बनवाए गए।

दूसरी तरफ भारतीय समाज और राज्य का विद्वानों के इन आख्यानों से दूर का नाता नहीं है। वे तो इससे नैतिकता, ईमानदारी, त्याग और वीरता का कोई सबक लेने के बजाय, संकीर्ण, सांप्रदायिक, हिंसक, बलात्कारी, भ्रष्ट, लालची और कायर होते जा रहे हैं। तानाशाही की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं। अगले कुछ दिनों में पश्चिम बंगाल को छोड़कर उत्तर भारत के कोने कोने में रामलीला का आयोजन होगा। राम के त्याग, वीरता और सद्गुणों का बखान होगा और रावण के दुर्गुणों की निंदा होगी, उसे मारा जाएगा और उसका पुतला फूंका जाएगा। लेकिन सभागार में बैठे दर्शक और देखकर घर लौटने वाले नागरिक इससे नैतिकता का पाठ पढ़ने की बजाय धार्मिक अस्मिता और सांप्रदायिकता की सीख ले रहे हैं।

वे इन आयोजनों के साथ उदात्त मानवीय मूल्यों को सृजित करने के बजाय यह सीख लेकर लौटते हैं कि कैसे दूसरे समुदाय से घृणा की जाए और उन्हें इन आयोजनों से दूर रखा जाए। इतना ही नहीं अच्छाई का पाठ पढ़ाने और बुराई से दूर रहने की सीख देने का दावा करने वाला यह आख्यान समाज को हिंसक बना रहा है। इस बीच दो अक्तूबर को गांधी जयंती भी मनाई जाएगी और गांधी जी को कहीं सफाई के लिए याद किया जाएगा तो कहीं सनातन धर्म के लिए। कहीं उन पर नफरत की वर्षा भी की जाएगी। किसी कोने में उनके सत्य और अहिंसा पर भी चर्चा होगी और चर्चा होगी उनके प्रेम के दर्शन की।

रामानंद सागर द्वारा बनाए गए `रामायण’ धारावाहिक की लोकप्रियता तो अस्सी के दशक के उत्तरार्ध (1987-1988) में बेजोड़ थी। उसके बाद 1988-1990 तक बीआर चोपड़ा ने राही मासूम रज़ा की पटकथा पर निर्मित जो `महाभारत’ धारावाहिक प्रदर्शित किया उसने लोकप्रियता के सारे रिकार्ड तोड़ दिए। राही ने भरसक कोशिश की कि कथा ग्रंथ से जुड़ी रहे और मौजूदा राजनीति पर टिप्पणियां भी करती रहे। लेकिन लगता नहीं कि इन भारतीय महाआख्यानों को देखकर क्या समाज ने और राजनीति ने कोई नैतिक संदेश ग्रहण किया या वह और भी अनैतिक हो गया। माना जाता है कि हिंदुत्व की राजनीति इसी बीच परवान चढ़ी। राम मंदिर आंदोलन चला और बाबरी मस्जिद का विध्वंस किया गया। देश भर में दंगे हुए। विशेषकर `रामायण’ धारावाहिक की एक भूमिका मानी जाती है इसमें।

आज भी `रामायण’ और `महाभारत’ पर भारत की विभिन्न भाषाओं में नया साहित्य लिखा जा रहा है तो नए धारावाहिक बन रहे हैं। इसलिए भारतीय समाज के मानस और साहित्य में कई मील गहरे पैठे हुए इन दोनों आख्यानों की प्रेरणा बंद हो जाए यह तो होता हुआ नहीं दिखता लेकिन यह जरूर हो सकता है कि उनकी ऐसी व्याख्या की जाए जो लोकतंत्र और समाज के हित में है और उसे समाज स्वीकार करे। यह भी देखना होगा कि व्याख्या संविधान और युगानुकूल है और उसे समतामूलक समाज के लिए कैसे उपयोग में लाया जा सकता है।

विद्वानों का मत था कि वैसे तो महाभारत हिंसा, वर्णाश्रम धर्म गैर-बराबरी और स्त्रियों पर अत्याचार से भरा हुआ ग्रंथ है लेकिन उसमें स्त्रियां और शूद्र बहस करते हैं और अपनी स्थिति को परिवर्तित भी करते हैं। इसलिए तमाम हिंसा के बावजूद उसका मूल संदेश है—अहिंसा परमोधरमः। अगर ऐसा न होता तो शांति पर्व के 162 वें अध्याय में युद्धिष्ठिर को समझाते हुए भीष्म सत्य के तेरह अवयवों में अंहिसा का उल्लेख न करते। भीष्म युद्धिष्ठिर को संबोधित करते हुए कहते हैं सत्पुरुषों में सदा सत्यरूप धर्म का ही पालन हुआ है। सत्य ही सनातन धर्म है, सत्य को ही सदा सिर झुकाना चाहिए क्योंकि सत्य ही जीव की परम गति है। सत्य ही धर्म, तप और योग है, सत्य ही सनातन ब्रह्म है, सत्य को ही परम यज्ञ कहा गया है तथा सब कुछ सत्य पर ही टिका हुआ है। संपूर्ण लोकों में सत्य के तेरह भेद माने गए हैं।

भीष्म आगे कहते हैः—राजेंद्र, सत्य, समता, दम, मत्सरता(डाह) का अभाव, क्षमा, लज्जा, तितिक्षा(सहनशीलता) अनसूया(ईर्ष्या और द्वेष से मुक्त), त्याग, परमात्मा का ध्यान, आर्यता(श्रेष्ठ आचरण), निरंतर स्थिर रहने वाली धृति(धैर्य) तथा अहिंसा यह तेरह सत्य के स्वरूप हैं।

महात्मा गांधी जब 1922 में असहयोग आंदोलन में गिरफ्तार हुए तो उन्होंने यरवदा जेल में महाभारत को पढ़ा। विशेषकर गांधी ने शांति पर्व और अनुशासन पर्व को ज्यादा ध्यान से पढ़ा। ऐसा गांधी के जेल में लिए गए नोट्स से जाहिर होता है। उन्होंने सत्य और असत्य का चार्ट भी बनाया। उसके बाद उनका विश्वास और भी धारदार बना। फिर गांधी जो पहले कहते थे कि ईश्वर ही सत्य है उन्होंने कहना शुरू किया कि सत्य ही ईश्वर है। गांधी ने एडविन अर्नाल्ड का `सॉंग सेलिस्टियल’ नाम से प्रकाशित गीता का अनुवाद 1888 में पढ़ा था। वे उस अनुवाद से प्रभावित हुए और फिर गीता के संस्कृत पाठ को याद करने लगे।

गांधी ने अगर गीता के दूसरे और तीसरे अध्याय के अनाशक्ति योग के दर्शन को अपने जीवन और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बनाया तो उसी के साथ बाइबिल के `सरमन आन द माउंट’ से निकले अहिंसा के सिद्धांत से उसे मिला दिया। वैसे गांधी ने गीता को माता कहा है लेकिन बाइबिल से भी उनका निरंतर जुड़ाव रहा है। इसीलिए अमेरिका के प्रसिद्ध पत्रकार विन्सेंट सीन ने `लीड काइंडली लाइट’ में यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि गांधी पर गीता से ज्यादा बाइबिल का प्रभाव है। यही वजह है कि अमेरिका के विद्वानों ने जब `हिंद स्वराज’ पर विशेष आयोजन किया तो उसका शीर्षक रखा `सरमन आन द सी’।

क्योंकि गांधी ने `किलडोनन कैसल’ नामक जहाज से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए दस दिनों के भीतर यह पुस्तक जहाज पर ही लिखी थी। इसमें उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में चलाए गए सत्याग्रह को सैद्धांतिक जामा पहनाने की कोशिश की थी। उससे पहले लंदन में श्यामजी कृष्ण वर्मा के इंडिया हाउस में उनकी विनायक दामोदर सावरकर और फिर डा प्राण जीवन मेहता से क्रांति के सिद्धांतों और साधनों पर लंबी चर्चा हुई थी। गांधी भारतीय युवकों में हिंसा के प्रति बढ़ती ललक से विचलित थे। उन्होंने दशहरे के मौके पर सावरकर की ओर से आयोजित सभा में अपने व्याख्यान में कहा था कि राम और रावण का युद्ध हिंसा की सीख नहीं देता। यह युद्ध बाहर नहीं लड़ा गया। बल्कि वह मनुष्य के भीतर होने वाला सत्य और असत्य का द्वंद्व है।

गांधी की गीता की व्याख्या ने अरविंद घोष, बाल गंगाधर तिलक के गीता रहस्य और उस समय के अनुशीलन समिति और अभिनव भारत जैसे संगठनों में किए जा रहे गीता के हिंसक कार्रवाई के पाठ को पलट कर रख दिया था। क्योंकि गांधी ने तो कुरान, बाइबिल और गीता से निकाल कर सत्याग्रह का सिद्धांत सामने रख दिया था। जबकि लोग उन ग्रंथों से जिहाद और धर्मयुद्ध निकालते थे। गांधी की बात को फिर विनोबा ने आगे बढ़ाया और गीता की गांधी से श्रेष्ठ व्याख्या की।

हालांकि गीता को जीवन में उतारने में गांधी का कोई सानी नहीं था। क्योंकि गांधी गीता से न तो ज्ञान का संदेश निकालते हैं और न ही भक्ति का। उनका साफ संदेश है कर्म का। कर्म ऐसा जिसमें फल की इच्छा की कामना न हो। उनका कहना था कि ऐसा नहीं कि फल की इच्छा न करने वाले को कर्म का फल नहीं मिलता। बल्कि उसे दूसरों से कई गुना ज्यादा फल मिलता है। कर्म करते रहने की इसी प्रेरणा के चलते वे 30 जनवरी 1948 तक कर्म करते रहे जबकि उन्हें हिमालय जाने का सुझाव देने वाले आते रहते थे।

लेकिन जैसा कि आंबेडकर ने कहा था कि गांधीजी, सभी लोग आप की तरह महात्मा और संत नहीं होते जो दलितों और स्त्रियों का दुख दर्द समझ सकें। लोग क्रूर होते हैं और उनकी मूल प्रवृत्ति दूसरों को दबाने की होती है। वे धर्मग्रथों की उदार व्याख्या नहीं करते। आंबेडकर ने साफ शब्दों में कहा है कि गीता वास्तव में पुष्यमित्र शुंग की प्रतिक्रांति को सही साबित करने के लिए और बौद्ध धर्म के मुकाबले हिंदू धर्म को स्थापित करने के लिए लिखा गया ग्रंथ है। वे धर्मानंद कौसंबी की तरह ही महाभारत और गीता का मूल संदेश हिंसा ही मानते हैं। कौसंबी `भारतीय संस्कृति और अहिंसा’ में कहते हैं कि जब बौद्ध धर्म के नाते युद्ध बंद हो गए तो राजाओं की युद्ध से चलने वाली अर्थव्यवस्था ठिठक गई।

इसलिए बीच- बीच में युद्ध चलाए रखने के लिए गीता की रचना की गई। उपिंदर सिंह ने `प्राचीन भारत में राजनीतिक हिंसा’ नामक ग्रंथ में भी इन ग्रथों को हिंसा प्रेरित करने वाला ग्रंथ ही माना है। अगर गांधी महाभारत की रचना के इतिहास और उसकी पाठ परंपरा के झंझट में नहीं पड़ते और उसे इतिहास में कभी लड़ा गया युद्ध स्वीकार करने का आग्रह नहीं करते तो डॉ आंबेडकर मराठी समाज के विद्वानों विशेषकर तिलक से तर्क करते हुए कहते हैं कि तिलक तो भारत में चल रही पाठ परंपरा के अस्तित्व से इंकार करते हैं। महाभारत की रचना के तीन चरण हैः-जय, भारत और महाभारत। इसे किसी एक ने लिखा यह मानना गलत है।

आंबेडकर गीता में युद्ध और हिंसा को समर्थन देने वाले विचारों का सूत्रीकरण इस प्रकार करते हैः—

युद्ध के दो आधार हैः-मनुष्य नश्वर है, इसलिए इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि उसकी मृत्यु प्राकृतिक होती है या हिंसा से होती है। दूसरी बात यह है कि शरीर और आत्मा दोनों एक नहीं हैं। वे अलग अलग हैं। शरीर मरता है पर आत्मा नहीं मरता। चूंकि आत्मा कभी नहीं मरता इसलिए किसी व्यक्ति की हत्या करने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए। तीसरी बात यह है कि गीता का दर्शन चातुर्वर्ण को सही ठहराता है।ब्राह्रमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। चातुर्वर्ण ईश्वर की इच्छा से निर्धारित होता है इसलिए उसे पवित्र माना जाना चाहिए।

डॉ आंबेडकर गीता की व्याख्या करते हुए आगे कहते हैं—-

गीता जिस कर्म की बात करती है वह ऐक्शन नहीं है और जिस ज्ञान की बात करती है वह नॉलेज नहीं है। न ही वह उन विचारों को दार्शनिक रूप दे पाई है। गीता वास्तव में जैमिनी के कर्मकांड पर आधारित है। गीता एक तरह से कर्मकांड की रूढ़ि को स्थापित करती है। वास्तव में गीता की रचना इसलिए की गई ताकि प्रतिक्रांति को बुद्धवाद के हमले से बचाया जा सके। बौद्ध धर्म ने वर्णव्यवस्था को खारिज किया था और वंचितों और शोषितों और स्त्रियों को एक उम्मीद दी थी। उसने क्षत्रियों द्वारा चलाई जा रही हिंसा और हत्या के दार्शनिक तर्क को खारिज किया। आंबेडकर का कहना था कि तिलक और गांधी ने गीता का इस्तेमाल अपने अपने ढंग से देशभक्ति के ट्रिक के तहत किया, ताकि वे जनांदोलन खड़ा कर सकें। आंबेडकर तिलक की गीता की व्याख्या में तो अराजकता का खतरा देखते हैं।

आंबेडकर कहते हैं कि इन सिद्धांतों से गुलामी का बड़ा खतरा है। क्योंकि बुद्धि की पहचान ब्राह्मण से की जाती है और शरीर की पहचान शूद्र के साथ की जाती है। इस तरह शूद्र की हत्या की संभावना रहती है। इसी के साथ वर्ण आधारित समाज निर्मित होता है। आंबेडकर शूद्रों के साथ स्त्रियों के अधिकारों की बहुत चिंता करते थे। उनकी मशहूर पुस्तक भी है—हिंदू नारी का उत्थान और पतन। वे महाभारत और गीता से शूद्रों और स्त्रियों दोंनो का भला नहीं देखते।

इसी तरह नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बीपी कोइराला ने अपने लघु उपन्यास `मोदिआइन’ में महाभारत के युद्ध को एक ऐसी युवती के हवाले देखा है जिसके पति युद्ध में मारे गए थे। वे इस बात से चिंतित हैं कि गीता का संदेश सुनकर अर्जुन से युद्ध किया और भयानक संहार हुआ। लाखों स्त्रियां विधवा हुईं। वे भगवत गीता से दर्शन के विरुद्ध भावुक अपील करते हैं। लेकिन कोइराला की इस आलोचना के बावजूद सच्चाई यह है कि गीता के दर्शन ने नेपाल के 1951 और 1990 के लोकतांत्रिक आंदोलन को प्रेरित किया। भले ही बाद में वह प्रेरणा समाजवाद के रास्ते मार्क्सवाद तक चली गई।

वास्तव में रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ इतनी रोचक कथाओं से भरे हैं कि भारतीय समाज उनके पार सोचने को तैयार नहीं है। काश! उसके सामने श्रमण परंपरा के इतने ही रोचक आख्यान होते तो उसकी दिशा कुछ और होती। रामायण और महाभारत में वर्ण व्यवस्था कायम करने और स्त्रियों की कठोर आलोचना के जो आख्यान हैं, वे समाज को समता और लोकतंत्र की ओर जाने ही नहीं देते। भारत के गांव आज भी जातिगत गैर-बराबरी और छूआछूत से मुक्त नहीं हुए हैं। स्त्रियां दूसरी श्रेणी की नागरिक मानी जाती हैं और उन पर अत्याचार रुका नहीं है।

हालांकि इन ग्रंथों में परोपकार और अहिंसा की भी बातें हैं तो अन्याय की भी बातें हैं। डॉ लोहिया धर्म ग्रंथों से बुरी बातें छोड़कर अच्छी बातें ग्रहण करने के लिए `मोती कूड़ा विवेक’ वाली दृष्टि का सुझाव देते थे। गांधी उनसे दो कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि मैं समस्त हिंदू धर्म ग्रंथों में विश्वास करता हूं लेकिन अपने विवेक के अनुसार उसमें परिवर्तन की छूट लेता हूं। यह तो एक तरह से इस्लाम के इज्तिहाद वाला सिद्धांत हुआ।

आज रामायण और महाभारत पर विद्वान भले भांति भांति का अध्ययन करें लेकिन राजनीति उसका इस्तेमाल हिंसा फैलाने के लिए कर रही है। वे उन ग्रंथों में प्रदर्शित ऊंच नीच की भावना, पुरुषवादी अहंकार और युद्ध को शाब्दिक अर्थों में लेकर राज्य को निरंतर क्रूर और हिंसक बना रहे हैं। समाज के संगठन भी नफरत की प्रेरणा के लिए उन कहानियों का इस्तेमाल करते हैं। उन्हें उनके उच्च नैतिक मानकों से कोई लेना देना नहीं है। जहां तक चैनलों के धारावाहिक का सवाल है तो उनका उद्देश्य मनोरंजन के माध्यम से धन कमाना है। इस न सुनने वाले समय में वेदव्यास की बहुत याद आती है।

महाभारत के अठारहवें पर्व के अंत में व्यास ने कहा है—

उर्ध्व बाहुर्विरौभ्येस न च कश्चिच्छृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्ये।।

शायद यही बात राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अपने देशवासियों से कह रहे हैं कि मैं दोनों हाथ उठाकर कह रहा हूं लेकिन मेरी कोई सुनता नहीं। सत्य (धर्म) से अर्थ और काम दोनों सिद्ध होते हैं तो भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते?

यही स्थिति रामकथा के लोकप्रिय रचनाकार तुलसी की भी है। अयोध्या में तुलसी उद्यान में तुलसी की प्रतिमा के बगल में लिखा हुआ था— –परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।। लेकिन हिंसक लोगों ने तुलसी का हाथ ही काट डाला और उन पंक्तियों को हटा दिया।

Leave a Comment