122वीं जयंती पर जेपी को सश्रद्ध नमन!

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jai prakash narayan and indira gandhi

‘तुम भी मुझे बहुत कम जानती हो..’

इंदिरा गांधी के पहली बार प्रधानमंत्री बनने पर 20 जनवरी 1966 के दिन भेजा गया बधाई संदेश : “मेरे हार्दिक अभिनंदन! एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी तुमने अपने सिर पर ले ली है। कसौटी के और खिंचाव के इस अवसर पर मैं अपने हृदय की सारी शुभेच्छाऍं तुम्हें भेजता हूं।… तुम्हें अपनी आंतरिक शक्तियों पर ही निर्भर रहना पड़ेगा और मुझे विश्वास है कि तुम अपने अंदर खोजोगी तो वे शक्तियां तुम्हें धोखा नहीं देंगी। जहां तक मेरा संबंध है, तुम इस देश की आम जनता के सुख और शांति के लिए जो कुछ भी करोगी, उसमें मेरा पूरा समर्थन तुमको मिलता रहेगा।”

कांग्रेस के विभाजन के बाद सन 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी की पार्टी को लोकसभा में दो तिहाई बहुमत मिलने के अवसर पर 13 मार्च 1971 को लिखा गया पत्र :

“यह पत्र भारत के प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को नहीं बल्कि इंदु को लिख रहा हूं। सबसे पहले प्रभा और मैं तुम्हें बहुत-बहुत बधाई देते हैं। यह विजय श्री जगजीवन राम की अध्यक्षता वाली कांग्रेस की नहीं बल्कि अकेले तुम्हारी है। यह जीत भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना है जिसका सारा श्रेय तुम्हारा है।… देश की जनता की सेवा करने का यह अपूर्व अवसर तुम्हें प्राप्त हुआ है। तुमसे यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारत की समस्याएं बहुत जटिल और गहरी हैं। समाजवाद के नारों या कतिपय चमत्कारी कार्यों से इनका समाधान नहीं होगा। मैं आशा करता हूं कि तुम गहराई में जाओगी और धैर्य एवं नम्रता से वर्तमान चुनौतियों का मुकाबला करोगी।…. राष्ट्रपति के चुनाव के समय तुम्हारे राजनीतिक आचरण को मैंने पसंद नहीं किया था, यद्यपि मैं जानता था कि वह तुम्हारे लिए राजनीतिक जीवन-मरण की घड़ी थी। अब जबकि तुम्हें अतुलित सत्ता प्राप्त हुई है, मैं भगवान से प्रार्थना करता हूं कि वह तुम्हें निर्मल विवेक दें तथा इस महान भार को वहन करने की पूरी शक्ति दें एवं पूर्ण स्वास्थ्य तथा दीर्घ जीवन प्रदान करें।”

14 मार्च 1971 को इंदिरा जी का प्रत्युत्तर :

“आपने लिखा है कि राष्ट्रपति के चुनाव के समय आपने मेरा आचरण पसंद नहीं किया, हालांकि आपने मेरे राजनीतिक जीवन के लिए उसे आवश्यक समझा था। इन बातों को पढ़कर मुझे दुःख हुआ। और विशेषकर यह सोचकर कि आप मुझे इतना कम जानते और समझते हैं। राजनीतिक या किसी और प्रकार के अस्तित्व के लिए मैंने कभी चिंता नहीं की और उस समय जो सवाल था, वह मेरे भविष्य का नहीं, बल्कि कांग्रेस पार्टी के भविष्य का, और इसलिए देश के भविष्य का सवाल था।… आप जिस प्रकार भी इन घटनाओं को देखें, विश्वास करें कि मुझे जीवन में ऐसी कोई आकांक्षाएं नहीं है जो मुझे अपने सिद्धांतों से विचलित करें।”
अपना आशय स्पष्ट करते हुए 2 मई 1971 को इंदिरा जी को लिखा गया पत्र :

” …मेरे इस वाक्य का तुमने बिलकुल उल्टा अर्थ लगाया है। इससे मेरा मतलब यह नहीं था, जैसा तुमने लिखा है, कि तुम्हारे उस आचरण को मैंने तुम्हारे राजनीतिक जीवन के लिए आवश्यक समझा था। जो चीज उचित नहीं है उसे मैं आवश्यक कैसे समझ सकता हूं। मेरा मतलब इस वाक्य से तो इतना ही था कि यह जानते हुए भी कि वह घड़ी तुम्हारे राजनीतिक जीवन के लिए इतनी महत्वपूर्ण थी, फिर भी तुम्हारे आचरण को मैंने पसंद नहीं किया था।… इंदु, यह ठीक है कि राजनीतिक अभिनेत्री के रूप में तुम्हें बहुत कम, या नहीं ही जानता हूं। तुम्हें तो दूसरे ही रूप में जानता और मानता रहा हूं। और आज भी तुम्हें उसी रूप में देखता हूं। इसीलिए तुम्हारी सफलताओं पर हृदय से प्रसन्न होता हूं और भविष्य में भी तुम्हारी सफलता हृदय से चाहता हूं।

रंतु इन्दू, मेरा भी राजनीति का लंबा अनुभव है, और उससे अलग होने के बाद भी तटस्थ रूप से उसका अध्ययन करता रहा हूं। दलों की फूट का भी काफी अनुभव ले चुका हूं। इन सब अनुभवों पर से यह कहने की धृष्टता करता हूं कि जब भी किसी दल में फूट पड़ती है तो दोनों तरफ के नेताओं का दावा यही होता है कि झगड़ा सिद्धांत और नीति का है। कोई यह नहीं कहता कि झगड़ा व्यक्तिगत सत्ता या पद का है। हर फूट में थोड़ा बहुत विचार-भेद तो होता ही है – यद्यपि उसको बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं – परंतु साथ-साथ नेतृत्व का, पद का झगड़ा कम नहीं होता। … अंत में इतना और लिखना आवश्यक समझता हूं कि यद्यपि कभी-कभी तुम्हारे राजनीतिक आचरण को मैंने पसंद नहीं किया है, फिर भी सार्वजनिक रूप से तुम्हारे विरुद्ध कभी भी कुछ नहीं कहा है। … यह सब इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि तुम्हें खुश करना चाहता हूं या तुमसे कुछ अपेक्षा अपने लिए रखता हूं, बल्कि इसलिए कि मुझे लगता है कि तुम भी मुझे बहुत कम जानती हो।”

[जयप्रकाश, जयप्रकाश अमृत कोश, 1982]

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