भारतीय आत्मा का आलोकित उत्सव ‘दीपावली’ – परिचय दास

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Diwali

Parichay Das

दीपावली—यह शब्द आते ही जैसे आँखों के भीतर एक उजास फैल जाता है। न जाने कितनी स्मृतियाँ, कितनी आवाज़ें, कितनी गंधें एक साथ उठ खड़ी होती हैं—घी की महक, धूप की सुगंध, पूजा की थाली में रखे पुष्पों की नमी और रात के गहन अंधकार में हिलती हुई लौ का वह सूक्ष्म कंपन। दीपावली केवल एक पर्व नहीं, वह भारतीय आत्मा का आलोकित उत्सव है—अंधकार से संवाद करने की कला, निराशा के बीच आशा का दीप जलाने का नाम।

हर वर्ष जब कार्तिक अमावस्या आती है, तब समूचा भारत जैसे एक साथ साँस लेता है—धीरे, स्थिर, श्रद्धा से भरा हुआ। गाँव की कच्ची गलियाँ हों या महानगर की ऊँची इमारतें, हर जगह कोई न कोई दीप किसी स्मृति, किसी प्रार्थना, किसी सपने के नाम जलता है। यह रोशनी बाहर जितनी दिखती है, भीतर उतनी ही उतरती है। क्योंकि दीपावली बाहरी उजास से अधिक, भीतर के अंधेरे को पहचानने और उसे प्रेमपूर्वक आलोकित करने की प्रक्रिया है।

मिट्टी के दीये का अपना सौंदर्य है। वह भले ही छोटा हो, पर उसका प्रकाश सबसे कोमल और सबसे सच्चा होता है। उसमें मनुष्य का परिश्रम है, धरती की गंध है और आस्था की गर्मी है। वह दीप जब जलता है, तब लगता है जैसे किसी किसान की हथेली, किसी माँ के नेत्र, किसी बच्चे की हँसी—सब मिलकर उस लौ को थरथरा रहे हों। यही मिट्टी का दीया हमारे जीवन की सबसे गहरी प्रतीक-कथा कहता है—कि जो झुकता है, वही जलता है; जो मिटता है, वही प्रकाशित होता है।

दीपावली का उत्सव, यदि ध्यान से देखा जाए, तो यह केवल लक्ष्मी की आराधना नहीं है, बल्कि श्रम और सौंदर्य, करुणा और स्मृति, उत्सव और साधना का संगम है। इस दिन हर व्यक्ति, चाहे गरीब हो या अमीर, कुछ न कुछ सजाता है—अपना घर, अपना मन, या अपनी आशा। यह सजावट केवल भौतिक नहीं, वह मनोवैज्ञानिक भी है। यह सजाने का, सँवारने का, सँजोने का उत्सव है—जैसे हम अपने भीतर के अस्त-व्यस्त भावों को भी दीपों की पंक्तियों में सजा दें।

कवियों ने हमेशा दीपावली को प्रकाश और अंधकार के संघर्ष के रूप में देखा है। पर यदि ध्यान से देखें, तो यह संघर्ष नहीं, संवाद है। अंधकार प्रकाश का शत्रु नहीं, उसका आवश्यक आधार है। बिना अमावस्या के चाँद का अर्थ अधूरा है। दीप का सौंदर्य तभी खिलता है जब उसके चारों ओर गाढ़ा अंधेरा हो। जीवन भी ऐसा ही है—अंधकार हमें प्रकाश का मूल्य सिखाता है, दुःख हमें आनंद की गरिमा दिखाता है, और हानि हमें प्रेम की गहराई समझाती है।

जब सांझ उतरती है, और बच्चे पहली फुलझड़ी जलाते हैं, तो आकाश में केवल चिंगारियाँ नहीं उठतीं—वहाँ हज़ारों इच्छाएँ उड़ती हैं। उन फुलझड़ियों में किसी माँ की प्रार्थना है, किसी पिता का अभिमान, किसी प्रेमिका की प्रतीक्षा, किसी कवि की कल्पना। दीपावली का प्रकाश वस्तुतः उन अनगिनत स्वप्नों का प्रतिरूप है, जो मनुष्य के हृदय में सदा जलते रहते हैं।

फिर आती है वह क्षणभंगुर निस्तब्धता—जब चारों ओर दीपों की पंक्तियाँ थिरक रही होती हैं, पर हवा में एक अजीब शांति होती है। उस शांति में लगता है, मानो समूचा संसार एक ही हृदय बन गया हो, जिसकी धड़कनों की लय में दीपों का कंपन घुला हुआ है। यह क्षण वह है जब मनुष्य अपने भीतर के ईश्वर से मिलता है—न किसी मूर्ति में, न किसी ग्रंथ में, बल्कि उस छोटी सी लौ में, जो बाहर भी है और भीतर भी।

दीपावली के अर्थ हर व्यक्ति के लिए अलग हैं। किसी के लिए यह संपन्नता का प्रतीक है, किसी के लिए पुनर्जन्म का, किसी के लिए मिलन का, और किसी के लिए स्मृति का। बूढ़ी माँ जब पुराने दीयों को साफ करती है, तो हर दीए में उसे बीते वर्षों की परछाई दिखती है—वे दिन जब पति था, जब बच्चे छोटे थे, जब घर में गीत गूँजते थे। अब वह दीया जलाती है तो उसमें एक तरह की मौन प्रार्थना होती है—कि उजाला केवल घर का न हो, मन का भी हो।

शहरों की चकाचौंध भले बढ़ गई हो, पर गाँव की दीपावली में अब भी वह सादगी है, वह आत्मीयता है, जो इस पर्व का मूल है। वहाँ दीये मिट्टी के हैं, मिठाइयाँ घर की बनी हैं, और हँसी सच्ची है। बच्चे आँगन में दौड़ते हैं, बुढ़िया आकाश की ओर देखकर कहती है—“देखो, लक्ष्मी आ गईं।” वहाँ हर चेहरा किसी लोकगीत की तरह खिलता है।

साहित्य में दीपावली केवल एक दृश्य नहीं, एक प्रतीक है—प्रकाश का, ज्ञान का, सत्य का। वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास, सूरदास, निराला, अज्ञेय , विजयदेव नारायण साही, सीताकांत महापात्र तक—सभी ने इस उजास को अपने ढंग से देखा है। किसी ने इसे राम के अयोध्या लौटने का उत्सव कहा, किसी ने आत्मा की विजय का, किसी ने प्रेम के पुनर्जन्म का। पर सबका सार एक ही रहा—अंधकार से प्रकाश की ओर, भय से विश्वास की ओर, बाह्य से अंतर की ओर यात्रा।

संस्कृति के स्तर पर दीपावली हमें यह सिखाती है कि उत्सव केवल प्रदर्शन नहीं, संवेदना है। यह पर्व हमें जोड़ता है—परिवारों से, पड़ोसियों से, यहाँ तक कि अजनबियों से भी। एक दीप किसी और के द्वार रख देना, यह बताना है कि हम साथ हैं, हम एक ही प्रकाश में जी रहे हैं। यही भारतीयता का हृदय है—‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’।

जब रात गहराती है और दीप धीरे-धीरे बुझने लगते हैं, तब भी उनकी लौ की छाया दीवारों पर बनी रहती है। वह छाया एक स्मृति बन जाती है—कि उजाला क्षणभंगुर है, पर उसका प्रभाव अनंत। शायद इसी भाव से कवि कहता है—
“जो दीप जलता है, वह बुझता नहीं,
वह हृदय में उतर जाता है।”

दीपावली का सबसे गहन अर्थ यही है—भीतर का दीप जलाना। यह भीतर का दीप तब तक नहीं जलता जब तक हम अहंकार की कालिख न मिटा दें, ईर्ष्या का धुआँ न हटाएँ, और स्वार्थ की ठंडी राख को न झाड़ दें। जब भीतर की सफाई हो जाती है, तब हर मन स्वयं दीप बन जाता है।

जैसे हर घर में नहीं, हर आत्मा में दीपावली मनाई जा रही हो। वहाँ कोई शोर नहीं, कोई आतिशबाज़ी नहीं—सिर्फ़ एक धीमी, निर्मल, आत्मीय रोशनी। वही सच्ची दीपावली है—जो संसार को नहीं, आत्मा को आलोकित करती है। वही वह क्षण है जब मनुष्य, देवत्व को छू लेता है—धीरे से, बिना शब्दों के, बस एक थरथराती लौ के साथ।

दीपावली का यह गूढ़ अर्थ समय से परे है। यह केवल परंपरा नहीं, अस्तित्व की निरंतरता का प्रतीक है। हर युग में, हर परिस्थिति में, जब भी अंधकार गहराता है, मनुष्य अपने भीतर से दीपावली खोज लेता है—कभी प्रेम के रूप में, कभी कला के, कभी करुणा के और कभी कविता के। क्योंकि अंततः मनुष्य का अर्थ ही प्रकाश है—और दीपावली उसी अर्थ की पुनर्स्मृति।

जब सब दीप बुझ जाते हैं और आकाश में केवल धुएँ की एक पतली परत रह जाती है, तब भी कहीं न कहीं किसी के भीतर एक दीप जलता रहता है—शांत, स्थिर, अमर। वही दीप मानवता का है, वही सभ्यता का, वही साहित्य और संस्कृति का। वही दीप अनादि काल से कहता आया है—
“अंधकार नहीं, केवल प्रकाश है। बस आँखें खोलनी हैं।”

दीपावली किसी एक रात का नहीं, समूचे जीवन का उत्सव बन जाती है—जहाँ हर साँस में एक दीप जलता है, हर धड़कन में एक उजास थरथराता है। यही दीपावली है—अंतर्यात्रा की, आत्मालोक की और शाश्वत सुंदरता की एक अखंड कविता।


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