विष्णु खरे की कविता

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पेंटिंग : प्रयाग शुक्ल
विष्णु खरे (9 फरवरी 1940 – 19 सितंबर 2018)

यथार्थ

 

किसने देखा था पहले-पहल

मृग को मरीचिका के पीछे दौड़ते हुए

कहां होते हैं वैसे मृग अब

मरीचिकाएं लहराती झिलमिलाती हैं अब किधर

किन्तु कहावत बन गयी मृग-मरीचिका की

और अब हिरन आत्महंता अज्ञान का

हास्यास्पद उदाहरण है

 

आश्चर्य है कि अमर है

एक लुब्धा नववधू के उलाहने पर

उसके दांपत्यविह्वल पति का

एक मृग-मरीचिका की दैदीप्यमान माया का पीछा करना

खो देना हिरन को भी स्त्री को भी

किन्तु उन्हें लेकर कोई उपहास नहीं होता

कोई कहावत नहीं मिलती

 

सब श्रेष्ठता-भाव में उस किसी आदि-मृग पर हँसते हैं

जिसे कथित रूप से देखा गया था भ्रमजल की ओर दौड़ते

 

अव्वल तो किसी को यही संदेह नहीं हुआ

कि मृग और मरीचिका को देखने में

वह स्वयं तो दृष्टिभ्रम का आखेट नहीं बन रहा था

या किसी ने नहीं पूछना चाहा हिरन से

यह तुम क्या समझकर किसके पीछे भागते हो

क्या जानते नहीं यह जल नहीं है

 

फिर उसके मन में यह भी आया नहीं

कि यह एक क्रीड़ा हो मृग की या एक भूमिका उसकी

कितने ही खेल प्राणान्तक गंभीरता से खेले जाते हैं

यह जानते हुए भी कि वे सिर्फ खेल हैं

खूब जानता हो मृग कि वह जल नहीं

जिसका वह पीछा करता है और बाज़ नहीं आता

क्योंकि यदि कुछ आभास दे रहा है जल का

तो वह आभास दे रहा है उसे खोजते हुए व्याकुल हिरन का

अपने थक कर गिर जाने का

उसे सच प्रदर्शित करना है एक कहावत को

कितने दर्शक देख रहे हैं उसे इस भूमिका में

पता नहीं किससे वशीभूत प्रत्येक नट

सूने प्रेक्षागृह में भी अपना सर्वश्रेष्ठ देता ही है

जबकि यहां तो एक सार्वजनीन किंवदन्ती का प्रश्न है

 

और उस हिरन की तो किसी ने कल्पना तक नहीं की जो

हार-थक कर पीछे नहीं मुड़ा

जिसका आखेट नहीं किया जा सका

जो पीछा करता रहा पीछे हटती हुई अपनी तृष्णा का

और अंत में पहुंच ही गया वहां

जहां से महाजल की गंध आने लगी थी

और जब वह अपनी अंतिम चौकड़ी भर कर गिरा

तो गीली रेत में मुँदती उसकी खुली आँखों से जो बही

वह वही मरीचिका रही हो बूँद बनती हुई उस

अंततः हहराते बढ़ते आते यथार्थ में मिलती हुई


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