तुम्हें भी तो पता होगा
मैं क्यों दिखाऊँगी तुम्हें
निकाल कर अपना दिल
तुम्हें भी तो
पता होगा
कहाँ लगा होगा
पत्थर
कहाँ हथौड़ी
कैसे ठुकी होगी
कुंद एक कील
किसी ढँकी हुई जगह में
कैसे सिमटा होगा
रक्त
नीचे चोट के
गड्ढे में
नीला मुर्दा थक्का
बहता हुआ
ज़िंदा शरीर में
तुम्हें भी तो दिखता होगा
काँच जैसा साफ?
मैं क्यों दिखाऊँगी तुम्हें
अपना आघात?
तुम्हें भी तो
पता होगा
कितने दबाव पर
टूट जाती है टहनी
उखड़ जाता है पेड़
पिचक जाता है बर्तन
तार जब काट देता है हड्डी
फेंक देता है
उछाल कर बाज़ू
हवा में
तुम्हें भी तो
पता होगा
कितना सह सकता है मनुष्य
कितना नहीं?
कितना कर सकता है क्षमा
कितना नहीं?
कोई क्यों माँगेगा
किसी और के किये की क्षमा
भले कितना ही अँधेरा हो
पीड़ा का क्षण?
कोई क्यों हटाएगा
सामने से अपने
भेजा तुम्हारा प्याला?
क्यों नहीं लेगा कोई
तुम्हारी भी परीक्षा?
कि देख सकते हो कितना तुम?
सह सकते हो कितना?
कैसे चटकता है कपाल
भीतर ही भीतर
उठता है रन्ध्र एक
धीरे-धीरे ऊपर
किस पीड़ा में
तुम्हें भी तो
पता होगा
कुछ?
मैं क्यों कहूँगी तुमसे
अब और नहीं
सहा जाता
मेरे ईश्वर?
इस तरह आप खोलते हैं लंगर
इस तरह आप खोलते हैं लंगर
हवा में एकटक ताकते हुए
लहर को धकेलते हुए भीतर
पीड़ा ने डुबो रखा था आपको
गर्दन से पकड़ कर
एक साँस और
बस एक साँस
एक झोंका और
थोड़ी सी हवा बस
आप खोलते हैं
अपने लंगर
जैसे काटते हों कोई टांका
किसी घाव का
अब वहां सूखी गड़न है केवल
स्मृति किसी चोट की
अब सब गड़बड़ है
स्मृति भी
चोटों का हिसाब भी
कहीं जाना न था
आपको
कहीं आना न था
आप यहीं रुकना चाहते थे
सदा के लिए
गाड़ना चाहते थे
अपना खूंटा
जैसे कोई चट्टान हों आप
या कोई पत्थर
इतने भारी
इतने थिर होना चाहते थे आप
कि कोई
हिला न सके आपको
कर न सके विस्थापित
कितनी मृत्युएँ लिये अपने भीतर
घूमते रहे बेकार आप
भारी मश्क लेकर
आप खोलते हैं अपने लंगर
और कोई नहीं रोकता
आपकी राह
कोई नहीं पुकारता
किनारे से
कोई यह तक नहीं देखता
कि आप उठ गए हैं
सभा से
कि खाली होने से पहले ही
भर गयी है आपकी जगह
पानी पर लिखीं थीं
आपने इबारतें
सन्नाटे में सुनीं थीं
अपनी ही प्रार्थनाएँ
आपको पता भी नहीं चला
हवा ले गयी
धीरे-धीरे
चुरा कर आपके अंग
कि अब आप ही हैं धूल
अपनी आँखों की
छाया की तरह आप
गुज़रते हैं
इस पृथ्वी पर से
इस दिन पर से
इस क्षण पर से
काश कोई
ग्रहण ही हुए होते आप
बने होते
हवा और रश्मि के
कहीं रह जाता आपका निशान
किसी ने बताया नहीं
किसी ने बताया नहीं
मैंने पूछा भी नहीं
रास्ता किधर से है
इतना भी नहीं
कि सीढ़ियां चढ़नी हैं
या उतरनी
पीछे मुड़ कर देखना है
कि नहीं
पुल कोई आ जाये
बीच रास्ते अगर
पार करना है उसे
कि नहीँ
पूछा नहीं मैंने
करना है क्या
अपने पैरों में उलझी
अनन्त की इस रेखा का
नक्शा कोई मैंने ढूंढ़ा नहीं
किसी ने बताया भी नहीं
न चाँद को देखा
न तारे को, सूरज को,
न मौसम और साइत को
न आईने में देखा ही
अपना बौनाया कद
गठरी तक बांधी नहीं
मुंह अँधेरे
चलने से पहले
ढूंढ़ा नहीं अपना
लाठी और लोटा तक
चुल्लू भर हाथ लिये
निकल आयी रास्ते पर
बताया नहीं किसी ने
ठग मिलेंगे कुछ दूर
जाने पर
कि भूख लगेगी
अकारण बहुत
बल्कि भूख ही होगी
तुम्हारा ठग
ज़हर से बचोगी
तो मारी जाओगी
अपनी प्यास से
एक जगह तुम्हें दिखेगी
अपनी टूटी चप्पल
फिर नंगा मैला पैर
चुभा उसमें कंकर
उसके बाद भी नहीं
बार बार तुम रुकोगी
पीड़ा नहीं
मायावी किसी पुकार से
किसी ने बताया नहीं
मैंने पूछा भी नहीं
कि मुड़ कर देख लूँगी
अगर
तो कितने दिनों
कितनी घड़ियों में
हो जाऊंगी पत्थर
सीने में दबाये सवाल
कितनी दूर चलती जाऊंगी
तो होगा कोई पुल
मैं वहां थी, मगर
मैं उसके स्वप्न में नहीं
उससे बाहर थी
स्वप्न की दुनिया में
क्या था
क्या हो रहा था
उसके साथ
मुझे कुछ पता न था
मैं वहां थी
मगर बाहर थी
उसकी चौखट पर
बाहर एक दुनिया थी क्रूर
उसके देवता भी क्रूर
मांग रहे थे सब
अपनी-अपनी बलि
मैं वहां डर कर
आ गयी थी
उसकी शरण में
उसके स्वप्न के बाहर
कुछ पता चलता न था
कहाँ था अँधेरा ज़्यादा
स्वप्न के भीतर
कि स्वप्न के बाहर?
बलि की छुरी
कहाँ थी सहनीय ज्यादा
स्वप्न के भीतर
कि स्वप्न से बाहर?
धरती में जड़े थे
हमारे पैर
माथा हवा में
ऑंखें मुड़ चुकी थीं भीतर
देवता उड़ रहे थे
ऐन सिर के ऊपर
आसमान में
कहीं एक छुरी थी
जो चल रही थी लगातार
कभी धीमी, कभी झटके से
पत्थर, कभी गर्दन पर
मैं किसी चौखट पर थी
न वह खुलती थी भीतर
न बाहर
बलि मांगता एक शोर था
हवा में
जाने देवता लगे थे मेरे पीछे
कि मनुष्य
यह कोई स्वप्न नहीं
असहनीय था यह
स्वप्न से भी ज्यादा
मैं वहां थी
मगर
स्वप्न से बाहर थी
एक गऊ मेरे भीतर है
एक गऊ मेरे भीतर है
जिसे कटने का डर है
इस गऊ से अलग
जिसे खिलाया जा रहा है चारा
खींची जा रही है
जिसकी फोटो
उस गऊ से भी अलग
जिसका किया था
मैंने तिलक
खिलाया था गुड़
पूजा में
जिसके पैरों के नीचे से
रेंग कर
पार की थी उस दिन
मैंने और मृतक ने
वैतरणी
जो गऊ मेरे भीतर
आ छिपी है
भाग कर
जिसे
कटने का डर है
लगे हैं जिसके पीछे
हत्यारे
और बचाने वाले
दोनों
यह नहीं
जिसकी फोटो छपी है
उसके थन
अभी भारी थे
बच्चे के दूध से
भाग नहीं पा रही थी
ठीक से
रफ्तार बहुत कम थी
डर बहुत ज़्यादा
बच सकने के लिए
तिस पर
आधी रात कोई
खोल ले गया था
उसका बछड़ा
सांड उसका पहले ही
भागा फिर रहा था
आवारा
अंधेरे में लगाई उसने
छलांग
बदहवास
न उसे मालूम
न मुझे
किसी पिछवाड़े में नहीं
कूद बैठी है यह
उनींदी एक स्त्री के दिल में
उन्मत्त कर दिया है इस गऊ ने
बचाने वालों को
काटने वालों को
अपने डर से
अब हर हाथ में छुरी
हर हाथ में जोर
ज़रा सी आंख लगते ही
चाटती है मेरा मुख
सूंघती है अपना दूध
मेरे बचपन में पिया
मैं नहीं इसका बच्चा
न इसे बचाने वाली
न मारने वाली
यह सिर्फ एक संयोग था
अंधेरे में हुई गफलत
कूद बैठी यह गऊ
मेरे भीतर
अब हम दोनों को
कटने का डर है
हिंदी की सुप्रसिद्ध कवयित्री एवं लेखिका। भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1984), संस्कृति सम्मान (1989), केदार सम्मान (2000), हिंदी अकादमी साहित्यकार सम्मान (2008) व द्विजदेव सम्मान (2010) से विभूषित। प्रकाशित कविता संग्रह – एक दिन लौटेगी लड़की (1989), अँधेरे में बुद्ध (1996), यह आकांक्षा समय नहीं (1998), थपक-थपक दिल थपक थपक (2003), मैं जब तक आयी बाहर (2018)। कई कविताएं अमरीकी, ब्रिटिश तथा जर्मन विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल।
कविता का जो वितान रचती हैं गगन गिल , जोड़-जोड़कर नहीं .. पूरी कविता होती है वह – बहती हुई , जहां उनका विशिष्ट अनुभव होता है – बहते हुए पानी पर रोशनी के हीरे की कनि की तरह ..