— कुरबान अली —
भूपेंद्र नारायण मंडल (1 फरवरी 1904 – 29 मई 1975) समाजवादी आंदोलन के एक ऐसे नेता थे जो अपने बलबूते जमीन से उठकर राजनीति के शिखर तक पहुंचे और सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनकर पिछड़ों को विशेष अवसर दिए जाने के पार्टी के सिद्धांत को मूर्त्त रूप दिया। सोशलिस्ट पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनकर उन्होंने ये मिसाल कायम की, कि पिछड़े वर्ग और जाति का कोई व्यक्ति भी हजारों साल पुरानी जाति प्रथा को तोड़कर देश के सर्वोच्च पद पर पहुँच सकता है।
हालाँकि भूपेंद्र बाबू एक संपन्न जमींदार परिवार में पैदा हुए थे मगर उनका आचरण और उनके संस्कार आम आदमी जैसे ही थे। वे सादगी और ईमानदारी के प्रतीक थे। दूसरों के दर्द को पहचानते और समझते थे। उनका समाजवाद झोंपड़ी और बैलगाड़ी से निकला था। उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं था।
भूपेंद्र बाबू स्कूली जीवन से ही राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत थे। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें स्कूल से निष्कासित भी किया गया। महात्मा गाँधी के आह्वान पर 16-17 बरस की उम्र में उन्होंने खुदीराम बोस की शहादत और भागलपुर झंडा कांड तथा महात्मा गाँधी की गिरफ्तारी के खिलाफ प्रदर्शन किया और अपनी परीक्षाओं का बहिष्कार किया। 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान भी भूपेंद्र बाबू ने मधेपुरा में बढ़-चढ़कर आंदोलन में हिस्सा लिया और गिरफ्तार किये गये। आजादी के आंदोलन के दौरान वह कई बार जेल गये लेकिन कभी भी घबराये नहीं।
1917 की रूसी क्रांति का असर युवा भूपेंद्र बाबू पर भी हुआ और वह मार्क्सवाद की ओर आकर्षित हुए। शायद यही कारण था कि मार्क्सवादी दर्शन के अध्ययन की वजह से समाजवादी चिंतन और दर्शन में उनकी आस्था बढ़ी। कांग्रेस पार्टी के अंदर 1934 में जब पटना में ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ का गठन हुआ तो भूपेंद्र बाबू इस विचारधारा से जुड़े और 1945 में भागलपुर जिला कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव बनाये गये। उस समय जयप्रकाश नारायण ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ के अखिल भारतीय महासचिव थे और बिहार, सीएसपी का गढ़ माना जाता था। 1948 में जब समाजवादियों ने कांग्रेस पार्टी छोड़ने और अलग से सोशलिस्ट पार्टी बनाने का फैसला किया तो भूपेंद्र नारायण मंडल भी उनमें शामिल थे। 1949 में पटना में हुए सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सम्मलेन के आयोजन में उनकी अहम भूमिका थी और बाद में पार्टी के प्रांतीय सम्मलेन के आयोजन की ज़िम्मेदारी भी भूपेंद्र बाबू को सौंपी गयी।
भूपेन्द्र बाबू ने 1952 का पहला आम चुनाव त्रिबेणीगंज कम मधेपुरा विधानसभा सीट से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर लड़ा लेकिन वह कांग्रेसी उम्मीदवार बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल से मात्र 666 वोटों से हार गए। लेकिन 1957 में वह मधेपुरा से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव जीतने में कामयाब रहे और इस बार उन्होंने कांग्रेसी बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल को तीन हजार से भी ज्यादा मतों से हराया। इस बीच (1952-55) में वह भागलपुर और सहरसा सोशलिस्ट पार्टी के जिला महासचिव और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की बिहार इकाई के महासचिव भी रहे।
1955 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का विभाजन होने और डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा दोबारा सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर लेने के बाद भूपेंद्र बाबू बिहार सोशलिस्ट पार्टी के राज्य अध्यक्ष बनाये गये। अप्रैल 1958 में शेरघाटी (गया) में हुए सोशलिस्ट पार्टी के दूसरे राष्ट्रीय सम्मलेन में मधु लिमये पार्टी अध्यक्ष चुने गये। अगले एक वर्ष तक उन्होंने पार्टी में पिछड़ों को विशेष अवसर दिये जाने का सिद्धांत प्रतिपादित किया। अप्रैल 1959 में बनारस में हुए सोशलिस्ट पार्टी के तीसरे राष्ट्रीय सम्मलेन में मधु लिमये की इसी लाइन के तहत भूपेंद्र नारायण मंडल सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये। उनके साथ केरल के नेता आर एम मनकालथ पार्टी महासचिव बनाये गये।
सात माह बाद दिसंबर 1959 में चेन्नामलाई (तमिलनाडु) में हुए सोशलिस्ट पार्टी के चौथे राष्ट्रीय सम्मेलन में भूपेंद्र बाबू को दोबारा पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया और उनके साथ रवि राय (जो बाद में केंद्रीय मंत्री और लोकसभा स्पीकर बने) पार्टी महासचिव बनाये गये। इसी सम्मेलन में दिया गया भूपेंद्र बाबू का अध्यक्षीय भाषण उनकी योग्यता, विज़न और नेतृत्व का जीवंत दस्तावेज है। अपने इस भाषण में उन्होंने दुनिया भर में समाजवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि, कम्युनिस्ट आंदोलन, यूरोपीय समाजवादी आंदोलन और भारत की उस समय की राजनीतिक स्थिति का विस्तार से जिक्र किया और अपनी जाति नीति का जिक्र करते हुए ऊंची जातियों की तानाशाही पर भी रोशनी डाली। साथ ही अपनी सोशलिस्ट पार्टी के कार्यक्रम और तीसरे आम चुनाव के लिए पार्टी की तैयारियों का भी जिक्र किया।
भूपेंद्र बाबू के पार्टी अध्यक्ष रहते हुए सोशलिस्ट पार्टी ने 25 नवम्बर 1959 को दिल्ली में संसद भवन के समक्ष एक बड़ा ‘जनवाणी दिवस’ आयोजित किया जिसमें बड़े पैमाने पर आम लोगों ने शिरकत की।
अप्रैल 1959 से लेकर मई 1961 तक भूपेंद्र नारायण मंडल सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे और 1962 में तीसरी लोकसभा के लिए मधेपुरा से सांसद चुने गये लेकिन एक साजिश के तहत उनका चुनाव रद्द करा दिया गया। 1964 में हुए उप-चुनाव में वह दोबारा जीते लेकिन इस बार भी धांधली करके उनको वोटों की गिनती में हरा दिया गया।
बाद में भूपेंद्र बाबू 1966 और 1972 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर राज्यसभा के लिए बिहार से निर्वाचित हुए और अपनी मृत्यु के दिन यानी 29 मई 1975 तक सांसद रहे। इस बीच 1972 में जब संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का विलय कर पुनः सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया गया और कर्पूरी ठाकुर अध्यक्ष चुने गए तो उम्मीद बढ़ी कि समाजवादी आंदोलन मजबूत होगा लेकिन शीघ्र ही राजनारायण गुट ने अपने आप को इस दल से अलग कर लिया और जून 1972 में इलाहबाद में सोशलिस्ट पार्टी (लोहिया) का सम्मलेन हुआ जिसमें भूपेंद्र बाबू इस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। 1977 में यदि वे जीवित रहते तो निसंदेह बिहार के मुख्यमंत्री निर्वाचित होते।