1.
सुबह
जब हुकूमत की
सांसें फूलने लगी हैं
‘रामराज्य’ पतन की ओर अग्रसर है
एक बार फिर कुछ बहुत साधारण लोग मौत से
दो-दो हाथ करने की हिम्मत जुटाकर बाहर
निकल आये हैं
साफ नजर आ रहे हैं
जिंदगी की लड़ाई लड़ते लोगों की ओर अपार
आत्मीयता के साथ बढ़ते हुए हाथ
अंधेरा चाहे जितना
घना, हताशा और भय से भरा हुआ हो
सफर में कोई साथ हो तो सुबह बहुत दूर नहीं
होती
2.
मोबाइल की समझ
हम बार-बार दुख लिखते हैं
तो मोबाइल अनुमान लगा लेता है
कि द से अक्सर दुख ही लिखा जाएगा
दुख और सुख के फर्क को
वह इतना ही समझ पाता है
कि सुखद लिखते हुए दुखद और दुखद
लिखते हुए सुखद का विकल्प
प्रस्तुत करता है
मोबाइल से बात करते-करते
हम भी धीरे-धीरे स्मार्ट मशीन होते जा रहे हैं
हमें रोते-रोते हंसना और
हंसते-हंसते रोना आ गया है
किसी की मृत्यु पर शोकांजलि
लिखने के एक क्षण बाद ही अगर
हमें लिखना हो, बहुत खुशी हुई
तो कोई फर्क नहीं पड़ता
मोबाइल हमारी उंगलियों का
पीछा करता है लगातार
वह देखता रहता है कि हम
क्या देखते हैं कितनी बार
क्या-क्या खोजते हैं बार-बार
प्रेम, घृणा, उदासी, अकेलापन
अश्लीलता या कुछ और
जो किसी को बताना नहीं चाहते
च, स, र या ह लिखते ही सैकड़ों विकल्पों के
साथ उसकी स्मृति आ धमकती है
हमारी मदद के लिए
किसी को शुभकामनाएँ भेजनी हैं
तो भेजिए मगर सावधान रहिए
क्योंकि मोबाइल जानता है कि श से आपने
कई बार शोक लिखा है
कई बार श्रद्धांजलि भी
3.
बह रहा हूँ नदियों में
महीनों से मेरी चिता धधक रही है
यहां जलने की गंध के अलावा
कुछ भी नहीं है दूर-दूर तक
मुर्दनी के हाहाकार में घुलकर
धूप ठंडी और उदास हो गयी है
नदी में लपटों के साथ थरथरा रहा है चांद
सारी लकड़ियाँ राख हो चुकी हैं
फिर भी मैं जल रहा हूँ सूखी घास की तरह
महीनों से बह रहा हूँ नदियों में
सांसों के बिना तिनके जैसा हल्का हो गया हूँ
अभी कोई पक्षी मेरे ऊपर उतरा और
एक बड़ा टुकड़ा लेकर उड़ गया
किनारे कुत्ते घात लगाये खड़े हैं
कुछ खाया जा चुका हूँ, कुछ सड़ गल गया हूँ
फिर भी बह रहा हूँ, बहता रहूंगा इसी तरह
जब तक नदी बहती रहेगी
चिता की आंच पहुँच रही है राजधानियों तक
हत्यारों की सांसें भी उखड़ने लगीं हैं
वे भी आयेंगे एक दिन अनजान मुर्दों की
तरह बहते हुए इसी रास्ते

रेखांकन : बसंत भार्गव
4.
मुर्दे
जिनमें दूसरों के लिए मर
जाने का साहस होता है
सिर्फ वही जिंदा रह जाते हैं
मुर्दे अपने पांवों पर खड़े नहीं हो सकते
वे सड़ने लगते हैं कुछ ही दिनों में
जो सुनकर भी नहीं सुन पाये
मरते हुए लोगों की पुकार
जो खुद को बचाने में
ही लगे रहे लगातार
वे जिंदा कहां बच पाये
मुर्दों को कभी पता नहीं चल पाता कि वे मुर्दे हैं
5.
जयजयकार
उसने जिंदगी बचाने की
पहल की और श्मशानों, कब्रिस्तानों पर
भीड़ कई गुना बढ़ गयी
अंधों ने जयजयकार किया
वह समय पर सक्रिय नहीं होता तो न जाने और कितनी जानें चली जातीं
उसके काम करने का यही तरीका है
वह तारीख तय करता है, भगदड़ मच जाती है
फैसले करता है और सांसें
थमने लगती हैं
6.
उम्मीदों का साथ
धरती पर बार-बार
उमड़ा दुख का समुद्र
गांवों, कस्बों, शहरों के ऊपर से गुजरीं लहरें
एक दिन पानी उतरा, एक फूल खिला
अनजाने जीव जाने कहां से निकल आये
और चल पड़ी जिंदगी
एक उल्का पिंड
जलता, घहराता पृथ्वी से टकराया
लाखों कुंतल गर्म राख छा गयी आसमान पर
एक दिन एक किरन उतरी वीराने में
सूखे विशाल गह्वर से निकल पड़ीं लताएं
पत्थर चीरकर निकल आयीं झाड़ियां
जीवन का संगीत बज उठा वर्षों से
फैले अंधेरे के बीच
महामारियां आयीं
सैकड़ों बार तबाही की धुन बजाती
आदमी का मजाक उड़ातीं, हाहाकार मचाती
बार-बार जिंदगी संभली, उठ खड़ी हुई
अंतरिक्ष की विद्युत शक्तियों ने थामा
उसका कमजोर हाथ
जब सब कुछ छूट गया तब भी
नहीं छूटा उम्मीदों का साथ