अगर किसी व्यक्ति का ज़िक्र होते ही आपके स्मृति-संसार में एकसाथ आपका एक प्रिय उपन्यास, बेहद पसंदीदा फिल्म, अत्यंत रोचक इतिहास वर्णन, बेचैन कर देनेवाला प्रकृति चित्रण, सबसे रोमांचक जनांदोलन और सबसे साहसी साहित्यकार जीवंत हो जाएँ तो आप उनको क्या कहेंगे? कोई भी एक विशेषण नाकाफी रहेगा। शायद कम से कम दो शब्दों की एकसाथ जरूरत पड़ेगी– अविश्वसनीय और अविस्मरणीय! हम रेणु जी को इसी कोटि का मानते हैं। ‘परती-परिकथा’ जैसे कालजयी उपन्यास के सर्जक रेणु जी थे। बम्बइया फिल्मों की मायानगरी में ‘तीसरी कसम’ जैसी ‘मील का पत्थर’ साबित हुई फिल्म के हीरामन और हीराबाई की सहज प्रेमकथा को गढ़नेवाले रेणु जी थे। ‘नेपाली जनक्रांति’ का अद्वितीय वृत्तांत रेणुजी की कलम के जरिए दशकों बाद पुन: जीवंत हुआ। जल की प्रकृति के दोनों पक्षों– आतंककारी सूखा और भयंकर बाढ़- को एकसाथ ‘ऋणजल-धनजल’ में मर्मभेदी शब्दों की लम्बी श्रृंखला में बाँधना रेणुजी के ही बस की बात थी। संपूर्ण क्रांति के सपने के लिए लोकशक्ति के अद्वितीय आंदोलन में राष्ट्रीय ख्याति के साहित्यकार के रूप में बेहद असरदार हस्तक्षेप का किस्सा भी रेणु जी के ही खाते में लिखा गया है।
बिहार आंदोलन में फारबिसगंज में जन प्रदर्शन संगठित करना, अररिया में गिरफ्तार होना, पूर्णिया जेल में अनशन करना, जेल से जयप्रकाश जी को विस्तृत चिट्ठी लिखकर 1942 और 1974 के बीच जेल-व्यवस्था में बढ़ी दुर्दशा का सच उजागर करना, उत्तर में जेपी का ‘उत्साहित और भविष्य के लिए आशान्वित होना’, फिर 4 नवंबर के विराट जन-प्रदर्शन में जयप्रकाश जी पर पुलिस प्रहार और रेणु जी द्वारा इसके विरोध में राष्ट्रपति के दिए ‘पद्मश्री’ सम्मान को लौटाना और बिहार सरकार की जीवन भर के लिए दी गयी मासिक सम्मान वृत्ति का 18 नवंबर की पटना के गांधी-मैदान की ऐतिहासिक जनसभा में मंच से बिहार राज्यपाल को लौटाने का एलान करना और इस अद्भुत साहस और भरोसे से लोकनायक का अपने संबोधन के आरंभ में विह्वल हो जाना– यह सब रेणु जी के रोमांचक जीवन वृत्तांत में 1974 के कुल पांच महीनों- जुलाई से नवंबर- के दौरान हुई घटनाओं का हिस्सा था!
चार नवंबर और अठारह नवंबर के बीच रेणु जी के मनोभावों को समझने के लिए उनकी मार्मिक कविता ‘डेट लाइन पाटना– चार थेके आठारो नभेम्बर’ हमारे पास विरासत के तौर पर है। बांग्ला में लिखी अट्ठावन पंक्तियों की इस सशक्त कविता की अंतिम अठारह पंक्तियाँ तो बार बार पढ़ने-सुनाने लायक हैं। क्योंकि इसमें बिहार आंदोलन का, इसकी लोकप्रियता का, इसके अहिंसक चरित्र का, राज्यसत्ता की हिंसा का और लोकनायक जयप्रकाश की निडरता का रेणु जी की अद्वितीय शैली में प्रभावशाली वर्णन है-
एदेरई कब्जि (कलाई) ते सोनाली-राखी बेंधे आदर कोरेछिलो– मायेरा-दीदीरा-बोनेरा…?
कलकातार छेले आमार छोट भाईयेर मत,
आरो एकटा बड़ो कथा बलेगेल से दिन (बोल गया उस दिन)
‘आर, आपनादेर ए लड़ाई ? एकटा अद्भुत व्यापार
मार खाबो अथच मारबो ना
‘हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा’
एई स्लोगनेर एत ‘धक’ ?
आमादेर अंतत: आमार जाना छिलो ना.
एतो राउंड टियर गैस एतो हैवी लाठी चार्ज
तबू एकटा ढील बा पाथर केउ छुंडे मारलो ना?
आर जेपी जखन जीप थेके लाफिये नेमे
मारो! मारो! मुझे मारो! –
निजेर माथा पेते ‘यहाँ मारो!’
तारपरे जा घटेगेल ना!
जा घटेछे आमि देखे छि अद्भुत सब व्यापार.’
आमियो देखे छि आमि बलि
परेर चिठी तो सब कथा खुले लिखबो तारपर ….
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देश भर में सक्रिय हम आंदोलनकारी युवजनों के लिए रेणु जी ऐसे अनूठे साहित्यकार थे जिन्होंने संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान न सिर्फ पुराने-नए कवियों की टोली के साथ बिहार की राजधानी पटना में नुक्कड़-नुक्कड़ कविता पढ़कर लोक-जागरण में प्रवाह पैदा किया बल्कि एक कदम आगे बढ़कर स्वयं आन्दोलनकारी बने। गंभीर अस्वस्थता के बावजूद जेल गए। फिर लोकनायक जयप्रकाश और अहिंसक जन-प्रदर्शन पर पुलिस बर्बरता के विरुद्ध राष्ट्रपति को विरोधपत्र लिखकर ‘पद्मश्री’ सम्मान लौटाने के जरिये देशभर के आंदोलन समर्थकों का हौसला बढ़ाया और शांतिमय आंदोलनकारियों के बर्बर दमन के विरुद्ध बिहार के राज्यपाल को चिट्ठी लिखकर बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा 1972 से प्रदत्त आजीवन मासिक सम्मान राशि को भी वापस करके मदांध सत्ताधीशों के अहंकार को सीधी चुनौती दी।
रेणु जी ने राष्ट्रपति को लिखा कि, “1970 और 1974 के बीच देश में ढेर सारी घटनाएं घटित हुई हैं। उन घटनाओं में, मेरी समझ से, बिहार का आंदोलन अभूतपूर्व है। 4 नवंबर को पटना में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में प्रदर्शित लोक इच्छा के दमन के लिए लोक और लोकनायक के ऊपर नियोजित लाठी प्रहार झूठ और दमन की चरम पराकाष्ठा थी। आप जिस सरकार के राष्ट्रपति हैं वह कब तक लोक इच्छा को झूठ, दमन और राज्य की हिंसा के बल पर दबाने का प्रयास करती रहेगी? ऐसी स्थिति में मुझे लगता है कि पद्मश्री का सम्मान अब मेरे लिए ‘पापश्री’ बन गया है। साभार यह सम्मान वापस करता हूँ…”
इसी प्रकार बिहार के राज्यपाल को रेणु जी ने दो-टूक शब्दों में लिखा कि “बिहार सरकार द्वारा स्थापित एवं निदेशक, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना द्वारा संचालित साहित्यकार, कलाकार, कल्याण कोष परिषद द्वारा मुझे आजीवन 300 रु. प्रतिमाह आर्थिक वृत्ति दी जाती है। अप्रैल 1972 से अक्टूबर 1974 तक यह वृत्ति लेता रहा हूँ। परन्तु अब उस सरकार से, जिसने जनता का विश्वास खो दिया है, जो जन आकांक्षा को राज्य की हिंसा के बल पर दबाने का प्रयास कर रही है, उससे किसी प्रकार की वृत्ति लेना अपना अपमान समझता हूँ। कृपया इस वृत्ति को अब बंद कर दें…।” यह नहीं भुलाया जा सकता कि इस साहसपूर्ण त्याग में जनकवि बाबा नागार्जुन का भी उनको साथ मिला।
इसका सभी आंदोलनकारियों और देश के जनमत पर क्या असर हुआ होगा इसका अनुमान इसी बात से हो जाना चाहिए कि स्वयं जयप्रकाश नारायण ने 18 नवंबर 1974 की गांधी मैदान की ऐतिहासिक विराट जनसभा में अपना भाषण रेणु जी के साहस और विश्वास की चर्चा से शुरू किया और भावुक होकर रो पड़े। जेपी ने कहा, “वैसे रेणुजी आज सुबह मिले थे और राष्ट्रपति और राज्यपाल को लिखे अपने पत्रों का ‘ड्राफ्ट’ पढ़कर सुनाया था। तो मुझे पूर्व सूचना थी। परन्तु जब यहाँ आकर उन्होंने बिहार और देश की जनता के चरणों में इतना बड़ा आदर और तीन सौ रुपये मासिक की यह आजन्म वृत्ति, उसका परित्याग किया तो मैं अपने को सँभाल नहीं सका। नागार्जुन जी ने भी, जिन्हें हिंदी साहित्य में संघर्ष का प्रतीक माना जा सकता है, तीन सौ रुपये की वृत्तित्याग की घोषणा की। यह सारा दृश्य मेरी आँखों के सामने कई पुराने ऐतिहासिक अवसरों को जीवित खड़ा कर देता है। रेणु जी ने और नागार्जुन जी ने देश के तमाम लेखकों के सामने एक उदाहरण रखा है। एक रास्ता बताया है कि कलम भी किस प्रकार न्याय के, क्रांति के संघर्ष में हथियार बन सकती है…”
हमारी पीढ़ी का यह सौभाग्य था कि हमने रेणुजी के आरोहण को देखा था। जाना था। माना था। वैसे हमलोग मोहभंग की निरंतरता से अभिशप्त पीढ़ी रहे हैं। हमें बहुत-से व्यक्तियों, रचनाओं और घटनाओं ने खिन्न किया। कम ही आकर्षक और सम्मोहक लगे। इसलिए जो पसंद आए उन्हें हम सबने ‘गरीब के गहने’ की तरह बार-बार निहारा है। अपनी यादों की दुनिया में सहेज कर रखा है। रेणुजी के जीवन में शुरू से अंत तक की साहित्य-साधना में राजनीतिक प्रतिबद्धता और सामाजिक सक्रियता के ताने-बाने की बड़ी महत्ता है। बनारस पढ़ने गये तो काशी हिंदू विश्वविद्यालय में इंटरमीडिएट करते करते 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े। भारत में आज़ादी आई तो नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में 1950 की नेपाली जनक्रांति में जुट गए। 1954 में ‘मैला आँचल’ ने उनको एक व्यापक पहचान दिलाई और उसके बाद की सृजन-साधना से उनकी छबी में निखार आता गया। भरत यायावर द्वारा संपादित और राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित रेणु रचनावली के पाँच खंड से इसको समझा जा सकता है। लेकिन उन्होंने जेपी के आह्वान पर 1974-77 में जो किया उसका किसी को भी अनुमान नहीं था।
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आइए, इस कथा को रेणुजी की मदद से ही जानें जिसे उन्होंने स्वयं जेल से जेपी के नाम एक पत्र में विस्तार से लिखा था। यह पत्र और जयप्रकाश नारायण द्वारा रेणु जी के पत्र का उत्तर ‘दिनमान’ में 25 अगस्त, 1974 को छपकर पूरे देश की जानकारी में आया। तब हम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के शोधछात्र के रूप में जेपी के अभियान के प्रति आकर्षित विद्यार्थी-कार्यकर्ता थे और हमने भी इसे दिनमान में ही पढ़कर रोमांचित महसूस किया था।
रेणु जी 7 जुलाई से अपने गाँव में थे और आंदोलन के अगले चरण की तैयारी कर रहे थे। 1 अगस्त को फारबिसगंज जनसंघर्ष समिति के आह्वान पर सामूहिक उपवास किया गया। इसके बाद इलाके में अभूतपूर्व बाढ़ आ गई। यह योजना बनी कि छात्र एवं जनसंघर्ष समिति के सदस्य आंदोलन के साथ ही राहत का भी कार्य करें। इस प्राकृतिक प्रकोप से पीड़ितों को राहत दिलाने के लिए फारबिसगंज के लायंस क्लब के सहयोग से करीब पच्चीस हजार रुपए इकट्ठा किए गए और रेणुजी स्वयं छात्रों की एक टोली के साथ नरपतगंज के संकटग्रस्त क्षेत्र में पहुंचे। जोगबनी, कुसुमादा, अमहारा, रमई आदि क्षेत्रों में पुराने तथा नए कपड़े, घाव की दवाइयाँ, चूड़ा, चना, किरासन तेल, दियासलाई के डिब्बे आदि सामग्रियों का वितरण करवाया। यह राहत कार्य 9 अगस्त के प्रदर्शन के दौरान रेणु जी की गिरफ्तारी के बाद भी कार्यकर्ताओं द्वारा जारी रहा। हालांकि अधिकारी और पुलिसवाले छात्र-स्वयंसेवकों के पीछे पड़े हुए थे और बाधा डाल रहे थे।
इसी बीच संपूर्ण क्रांति आंदोलन के कार्यक्रम के अनुसार 9 अगस्त को ‘अंग्रेजो, भारत छोडो आंदोलन’ की जयंती पर एक विशाल जुलूस का आयोजन किया गया। इसमें करीब ढाई हजार प्रदर्शनकारी शामिल हुए। जब रेणुजी इस जुलूस को लेकर प्रखंड विकास कार्यालय की ओर अपनी माँगों का ज्ञापन देने जा रहे थे तभी सीताधर पुल (रानीगंज रेणु) पर स्थानीय पुलिस दारोगा और इंस्पेक्टर केन्द्रीय रिजर्व पुलिस की टुकड़ी के साथ इस तरह खड़े थे मानो प्रदर्शनकारी स्त्री-पुरुष पुल तोड़ने या उड़ाने जा रहे हों। पुल के पास पहुँचते ही अगली पंक्ति पर लाठियों से प्रहार हुआ और रिक्शों को इस तरह धकेला गया कि रिक्शे पुल के नीचे अथाह जल में गिरते गिरते बचे। रिक्शा चालक जहूरी यादव और नारे लगानेवाले साथी रमाशंकर गुप्ता को लाठी से चोट लगी।
रेणुजी लिखते हैं कि “ हमने आगे बढ़कर पुलिसवालों को रोका और कहा ‘आप यह क्या कर रहे हैं? लाठी चार्ज क्यों करवा रहे हैं?’ ” दारोगा ने मुझसे कहा, “ जुलूस यहाँ से आगे नहीं बढ़ेगा।”
“क्यों आप हमें बी.डी.ओ. से मिलने नहीं देंगे? आप देख नहीं रहे हैं कि जुलूस में दर्जनों बच्चे हैं, बूढ़ियाँ हैं। इनसे आपको क्या खतरा है? ये सभी बाढ़ पीड़ित हैं और इन्हें बी.डी.ओ. से फ़रियाद करनी है।”
पुलिस दारोगा ने कहा, “आपको नहीं मालूम कि धारा 144 लागू है?”
“मालूम है। और आपको यह नहीं मालूम कि सारा इलाका बाढ़ से पीड़ित है? हम तो जुलूस लेकर आगे बढ़ेंगे, आप लाठी चलाएं या गोली।”…
इसके बाद रेणुजी ने अपनी अनूठी शैली में लिखा कि “इसके बाद हम आगे बढ़े। करीब तीस-चालीस मिनट तक गुत्थमगुत्थी और घेरघार होता रह। अंतत: वे हमें रोकने में असमर्थ रहे। हम जब ब्लाक आफिस पहुँचे तो वहाँ पहले से ही मुख्य द्वार पर सीआरपीएफ़ के जवान तैनात थे। फिर वही रस्साकशी शुरू हुई। अंत में मैं अन्य छह साथियों (श्री लालचंद साहनी, सत्यनारायण लाल दास, शिव कुमार नेता, जयनंदन ठाकुर, रत्नेश्वर लाल दास, एवं रामदेव सिंह) के साथ अंदर बी.डी.ओ. के दफ्तर में पहुँचा। हमारे साथियों ने कार्यालय में जनता का ताला लटकाया और हमने बी.डी.ओ. से कहा कि बाढ़ से सारा इलाका तबाह है और आप सिर्फ ‘ला एंड ऑर्डर’ मेंटेन कर रहे हैं? हमने अपनी माँग उनके सामने रखी तो वह बोले कि आप लोग मिल कर खाली कांग्रेस को बदनाम करने का काम कर रहे हैं। आप यह जान लें कि महँगाई और भ्रष्टाचार को कोई भी पार्टी और कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, नहीं मिटा सकता।”
“हमने उनसे बात करना फिजूल समझा और हमने एलान किया कि हम आपका कोई भी काम नहीं चलने देंगे और हम अपने साथियों सहित धरना पर बैठ गए। पुलिस दारोगा ने आगे बढ़कर कहा, “ हमने आप लोगों को गिरफ्तार किया।”
“हम गिरफ्तार हो गए। किन्तु बाहर प्रदर्शनकारी प्रखंड के मुख्य द्वार को घेर कर खड़े रहे, जिसमें सात साल के बच्चे और पचहत्तर साल की बूढ़ी औरत भी थी। प्रदर्शनकारी नारे लगा रहे थे, “हमारे नेताओं को रिहा करो या हमें भी गिरफ्तार करो।” पुलिस ने उन्हें खदेड़ने की बहुत चेष्टा की किंतु वे अडिग रहे। अंतत: पुलिस ने 205 प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया जिसमें 27 औरतें भी (गोद में बच्चे लेकर) थीं। एक ट्रक, एक बस और एक जीप में भरकर हमें फारबिसगंज थाना ले गए… हमने अपने कान से बिहार पुलिस के जवानों को आपस में बात करते सुना, “यह तो जुल्म है। हमें तीन सौ, ढाई सौ महीना देंगे ये, चावल तीन रुपये किलो है। ये लड़के ठीक ही तो कर रहे हैं। अफसर लोग चलावें इन पर लाठी, हमसे तो यह पाप नहीं होगा।”.
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रेणुजी और अन्य आंदोलनकारी नौ अगस्त को दिन में करीब ढाई बजे गिरफ्तार किए गए। वहाँ से अररिया 9 बजे रात को पहुँचाए गए। लेकिन अररिया के जेलर ने इन लोगों को लेने से इनकार किया क्योंकि इतने लोगों को गिरफ्तारी में रखने की जगह नहीं थी। इसके बाद इन सबको पूरी रात खुले में पुलिस क्लब के भीगे मैदान में घेर कर रखा गया। पुलिस ने खाने-पीने की कोई व्यवस्था नहीं की। बल्कि सभी लोगों को सीआरपीएफ के घेरे में छोड़कर चले गए। तब सबने रात के डेढ़ बजे फैसला किया कि आंदोलनकारी एसडीएम के घर पहुँचकर प्रदर्शन करें। इसपर इन्हें फिर घेरा गया। भोजन तथा पानी की माँग की गई। लेकिन कोई इंतजाम नहीं हुआ। तीन बजे रात अररिया के एसडीओ तथा सहायक पुलिस सुपरिटेंडेंट दल-बल सहित पहुँचे। रेणुजी समेत 14 लोगों को अलग किया। बाकी लोगों को जबरदस्ती बसों में धकेल कर फारबिसगंज भेज दिया। इसके बाद ये अधिकारीगण फिर गायब हो गए! रेणुजी आदि रात भर वहीँ बैठाए रखे गए। सुबह नारेबाजी करने पर एक पुलिस दारोगा आकर बोला कि इन सभी लोगों को तुरंत पूर्णिया भेजा जा रहा है। लेकिन 11 बजे तक अधिकारीगण फिर गायब रहे। अपराह्न 1 बजे सबका वारंट तैयार करा दिया गया और चलने को कहा। मजिस्ट्रेट के सामने हाजिर किए बिना वारंट पर दस्तखत कराने के एतराज की कोई सुनवाई नहीं हुई। सबको पकड़ कर खुले ट्रक में चढ़ाया गया। सभी 10 अगस्त को अपराह्न 4 बजे पूर्णिया जेल पहुँचे। रेणुजी समेत सभी पर चार–चार वारंट और दस-दस दफाएँ लगाई गई थीं।
इस पत्र में रेणु जी ने अंतिम बात के रूप में क्या लिखा था? रेणु जी ने जेपी को चिट्ठी के अंतिम पैरा में लिखा कि “मेरा स्वास्थ्य ठीक ही है। यों, पिछले एक सप्ताह से मेरा पेप्टिक दर्द का दौर शुरू हुआ है। फिर भी मैं मानसिक रूप से पूर्ण स्वस्थ हूँ। जेल की बात? कुछ दिन पहले जुगनू ने मुझसे कहा था कि गुलाम भारत के जेल और स्वतंत्र भारत के जेल में काफी अंतर है. सचमुच पूर्णिया जेल मौजूदा भारत का असली नमूना है, जिसमें आदमी भी जानवर बन जाए। एक हजार एक सौ बासठ कैदियों में शायद एक भी व्यक्ति स्वस्थ नहीं है। शायद नरक ऐसा ही होगा…1942 और 1974 में इतना अंतर?”
इसके बाद क्या हुआ? 10 अगस्त को फारबिसगंज बाजार पूरी तरह बंद रहा। नरपतगंज प्रखंड आफिस में तालाबंदी हुई। फारबिसगंज में दो छात्रनेताओं मोहन यादव और अशोक दास को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बावजूद आंदोलनकारियों ने यह फैसला लिया कि पुलिस जुल्म के खिलाफ 13 अगस्त को फारबिसगंज में आठ चौराहों पर बारह घंटे का अनशन किया जाएगा। 15 अगस्त को काला दिवस मनाने का भी निर्णय हुआ।
जयप्रकाश जी ने भी तत्काल 14 अगस्त को रेणु जी को उत्तर लिखा- ” पत्र पढ़कर बड़ा उत्साहित और भविष्य के लिए आशान्वित हुआ। आपके पत्र से जहाँ एक ओर यह प्रकट होता है कि यह शासन कितना नीचे उतर सकता है, वहाँ दूसरी ओर यह सिद्ध होता है कि जहाँ भी जनता को सही नेतृत्व मिलता है, वहाँ वह कितना ऊँचा उठ सकती है और तब वह क्या नहीं कर सकती है। आपके पत्र से एक बात और प्रकट होती है कि यदि शासन के कुछ अधिकारी जैसे फारबिसगंज के बीडीओ शासन की भ्रष्ट नीतियों के कट्टर समर्थक बने हुए हैं तो दूसरी ओर पुलिस के सिपाही तथा अन्य गरीब तबके के अधिकारी हृदय से इस क्रांतिकारी संघर्ष के साथ हैं क्योंकि वे इसमें अपनी भी मुक्ति देखते हैं। इनमें से कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो मारपीट और बर्बरता के अन्य काम कर डालते हैं परंतु हमारा विश्वास है कि सरकारी क्षेत्र का गरीब वर्ग दिल से हम लोगों के साथ है – आज भले ही उन्हें अपने पेट के लिए गुलामी करनी पड़ती हो…”
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रेणु जी को पूर्णिया जेल की दुर्दशा मथती रही। रेणु जी को जेल में चलनेवाले भ्रष्टाचार की सूचना देनेवाले भुवनेश्वर कामती नाम के नौजवान हवालाती को बुरी तरह पीटा गया और कई दिनों तक उसे डंडा-बेड़ी लगी रही। रेणु जी को पेट के अल्सर की गंभीर बीमारी थी इसलिए शाम को डबल रोटी मिलती थी, वह बंद कर दी गई। बड़ी संख्या में छात्र और युवक उनसे मिलने गए तो जेल अधिकारियों ने गाली-गलौज की। रेणु जी ने पत्र लिख कर कलक्टर से मिलने के लिए समय माँगा। लेकिन वह पत्र जेल में ही रोक लिया गया। इस सब के विरुद्ध रेणु जी ने 8 सितंबर को अनशन प्रारंभ कर दिया। रेणु जी के वकील श्री प्रणव चटर्जी 9 सितंबर को एक रिट अर्जी दी कि रेणु जी को गिरफ्तारी के बाद मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया गया। उनके जैसे राष्ट्रीय ख्याति के लेखक को पुलिस ने ‘पुराना अपराधी’ बताया है। श्री प्रणव चटर्जी ने इस दरखास्त में यह भी लिखा कि उनकी गिरफ्तारी संविधान की धारा 22 (2) का उल्लंघन करती है।
रेणु जी की गिरफ्तारी से देश भर में बुद्धिजीवियों और पाठकों में विरोध का तूफ़ान पैदा हो गया। सिर्फ देश की राजधानी से प्रकाशित ‘दिनमान’ के 8 सितम्बर, 15 सितंबर और 22 सितंबर 1974 के अंकों के ‘मत-सम्मत’ स्तंभ (पाठकों के पत्र) में ही सैकड़ों लोगों के व्यक्तिगत और सामूहिक निंदा–वक्तव्य छपे। एक तरफ विष्णु प्रभाकर (दिल्ली), नंद चतुर्वेदी (उदयपुर), हरिशंकर परसाई (जबलपुर), और शलभ श्रीराम सिंह (कलकत्ता) जैसे वरिष्ठ साहित्यकार और दूसरी तरफ केशवराव जाधव (हैदराबाद) और शिवपूजन सिंह (डालमियानगर) जैसे समाजवादी नेताओं ने इसकी सख्त आलोचना की। दूसरी तरफ वाराणसी, सतना, अल्मोड़ा, पठानकोट, इटारसी, दमोह, घुसुड़ी, कायस्थपुरा, पटना, भीलवाड़ा, सीकर, बड़नगर आदि से साधारण पाठकों की नाराजगी की चिट्ठियाँ छपीं। जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ जैसे महत्त्वपूर्ण साहित्यिक संगठनों से लेकर ‘द्विमासिकी’ (रतलाम) और क्रांतिकारी युवा मंडल (पठानकोट) जैसे मंचों से विरोध-पत्र आए। हैदराबाद, जयपुर, जोधपुर, रतलाम और मुजफ्फरपुर के लेखकों-लेखिकाओं द्वारा भेजे गए सामूहिक निंदा-वक्तव्य भी थे।
जेल से बाहर आने पर रेणु जी ने कहा कि, “जेल जाने के बाद से ऐसा मालूम होता है कि मेरी उम्र 25 साल कम हो गई है। अफ़सोस होता है कि बहुत पहले ही जेल क्यों नहीं गया। शायद तब मेरा लेखक और जीवंत होता।”
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‘रेणु’ जी (4 मार्च 1921 – 11 अप्रैल 1977) की जन्मशताब्दी के वर्ष में उनकी प्रेरक स्मृति को सादर नमन!
प्रिय रचनाकार रेणु के बारे में एक साथ इतनी जानकारी पाकर अच्छा लगा. रेणु का साहित्य जीवन के सभी हलचलों के बीच रचा गया है. इसीलिए वह आंदोलनधर्मी के साथ उत्सवधर्मी और रसधर्मी भी हैं.
क्या रेणु जी बंगाली जानते थे?
उनकी अपनी कविता कोशी महानंदा के बीच बोली जाने वाला मातृ जबान में रहा होगा।
हां, रेणु जी बांग्ला जानते थे। बहुत अच्छी तरह।