दिनेश कुशवाह की चार कविताएँ

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'रेखांकन' मुकेश बिजोले

ईश्वर के पीछे
(स्टीफन हाकिंग के लिए)

ईश्वर के अदृश्य होने के अनेक लाभ हैं
इसका सबसे अधिक फायदा
वे लोग उठाते हैं
जो लोग हर घड़ी यह प्रचारित करते रहते हैं
कि ईश्वर हर जगह और हर वस्तु में है।

इससे सबसे अधिक ठगे जाते हैं वे लोग
जो इस बात में विश्वास करते हैं कि
भगवान हर जगह है और,
सब कुछ देख रहा है।

बुद्ध के इतने दिनों बाद
अब यह बहस बेमानी है कि
ईश्वर है या नहीं है
अगर है भी तो उसके होने से
दुनिया की बदहाली पर
तब से आज तक
कोई फर्क़ नहीं पड़ा।

यों उसके हाथ बहुत लम्बे हैं
वह बिना पैर हमारे बीच चला आता है
उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती
अंधे की लकड़ी के नाम पर
वह बंदों के हाथ में लाठी थमा जाता है
और ईश्वर के नाम पर
धर्म युद्ध की दुहाई देते हैं
बुश से लेकर लादेन तक।

ईश्वर की सबसे बड़ी खामी यह है कि
वह समर्थ लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ पाता
समान रूप से सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान
प्रभु प्रेम से प्रकट होता है पर
घिनौने बलात्कारियों के आड़े नहीं आता
अपनी झूठी कसमें खाने वालों को वह
लूला-लंगड़ा-अंधा नहीं बनाता
आदिकाल से अपने नाम पर
ऊँच-नीच बनाकर रखने वालों को
सन्मति नहीं देता
उसके आस-पास
नेताओं की तरह धूर्त
छली और पाखण्डी लोगों की भीड़ जमा है।

यह अपार समुद्र
जिसकी कृपा का बिन्दु मात्र है
उस दयासागर की असीम कृपा से
मजे में हैं सारे अत्याचारी
दीनानाथ की दुनिया में
कीड़े-मकोड़ों की तरह
जी रहे हैं गरीब।

ईश्वर के अदृश्य होने के अनेक लाभ हैं
जैसे कोई उस पर जूता नहीं फेंकता
भृगु की तरह लात मारने का सवाल ही नहीं
उस पर कोई झुंझलाता तक नहीं
बल्कि लोग मुग्ध होते हैं कि
क्षीरसागर में लेटे-लेटे कैसी अपरम्पार
लीलाएं करता है जगत का तारनहार
दंगा-बाढ़ या सूखा के राहत शिविरों में गये बिना
मंद-मंद मुस्कराता हुआ
हजरतबल और अयोध्या में
देखता रहता है अपनी लीला।

उसकी मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता
सारे शुभ -अशुभ  भले-बुरे कार्य
भगवान की मर्जी से होते हैं
पर कोई प्रश्न  नहीं उठाता कि
यह कौन-सी खिचड़ी पकाते हो दयानिधान?
चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी
तुम्हारे न्याय में देर नहीं, अंधेर ही अंधेर है कृपा सिन्धु।

ईश्वर के पीछे मजा मार रही है
झूठों की एक लम्बी जमात
एक सनातन व्यवसाय है
ईश्वर का कारोबार।

महाविलास और भूखमरी के कगार पर
एक ही साथ खड़ी दुनिया में
आज भले न हो कोई नीत्से
यह कहने का समय आ गया है कि
आदमी अपना ख़याल ख़ुद रखे।

पहाड़ लोग 

अपना सबकुछ देते हुए
पूरी सदाशयता के साथ
शताब्दियों के उच्छेदन के बाद भी
बचे हैं कुछ छायादार और फलदार वृक्ष
नीच कहे जाने वाले परिश्रमी लोगों की तरह।

जिन लोगों ने झूले डाले इनकी शाखों पर
इनके टिकोरों से लेकर मोजरों तक का
इस्तेमाल करते रहे रूप-रस-गंध के लिए
जिनके साथ ये गर्मी-जाड़ा-बरसात खपे
यहाँ तक कि जिनकी चिताओं के साथ
जलते रहे ये
उन लोगों ने इन पर
कुल्हाड़ी चलाने में कभी कोताही नहीं की।

देश भर में फैले पहाड़
ये ही लोग हैं
जिन्हें हर तरह से
नोंचकर नंगा कर दिया गया है।

इतिहास में अभागे

इतिहास के नाम पर मुझे
सबसे पहले याद आते हैं वे अभागे
जो बोलना जानते थे
जिनके खून से
लिखा गया इतिहास

जो श्रीमंतों के हाथियों के पैरों तले
कुचल दिये गये
जिनके चीत्कार में
डूब गया हाथियों का चिघाड़ना।

वे अभागे अब कहीं नहीं हैं इतिहास में
जिनके पसीने से जोड़ी गयी
भव्य प्राचीरों की एक-एक ईंट
पर अभी भी हैं मिस्र के पीरामिड
चीन की दीवार और ताजमहल।

सारे महायुद्धों के आयुध
जिनकी हड्डियों से बने
वे अभागे अब
कहीं भी नहीं हैं इतिहास में।

सारे पुरातत्ववेत्ता जानते हैं कि
जिनकी पीठ पर बने वकिंघम पैलेस जैसे महल
वे अभागे भूत-प्रेत-जिन्न
कुछ भी नहीं हुए इतिहास के।

इतिहास के नाम पर मुझे
याद आते हैं वे अभागे बच्चे
जो पाठशालाओं में पढ़ने गये
और इस जुर्म में
टाँग दिये गये भालों की नोक पर।

इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी बच्चियां
जो राजे-रजवाड़ों के धायघरों में पाली गयीं
और जिनकी कोख को कूड़ेदान बना दिया गया।

इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी
घसिआरिन तरुणियां
जिनसे राजकुमारों ने प्रेम किया
और बाद में उनके सिर के बाल
किसी तालाब में सेवार की भाँति तैरते मिले।

इतिहास नायकों का भरण-पोषण
करने वाले इनके अभागे पिताओं के नाम पर
नहीं रखा गया
हमारे देश  का नाम भारतवर्ष।

हमारी बहुएं और बेटियां
जिन्हें अपनी पहली सुहागिन-रात
किसी राजा-सामंत या मंदिर के पुजारी के
साथ बितानी पड़ी
इस धरती को
उनके लिए नहीं कहते भारत माता।

विश्वग्राम की अगम अँधियारी रात

आजकल ईमानदार आदमी
कुर्सी में चुभती कील जैसा है
कोई भी ठोक देता है उसे
अपनी सुविधा के अनुसार
बहुत हुआ तो
निकालकर फेक देता है।

ईमानदार आदमी का हश्र देखकर
डर लगता है कि
बेईमानों की ओर देखने पर वे
आँखें निकाल लेते हैं ।

जिन लोगों का कब्जा है स्वर्ग पर
उनके लिए ईमानदार आदमी
धरती का बोझ है।

ईमानदार आदमी की खोज वे
संसार की सैकड़ा भर लड़कियों में
विश्व सुन्दरी की तरह करते हैं
और बना लेते हैं
अपने विज्ञापनों का दास।

इधर लोग
देह, धरम, ईमान बेचकर
चीजें खरीदना चाहते हैं
सच्चाई-नैतिकता पर लिखी किताब
लोकार्पित होती है
माफिया मंत्री के हाथों।

इतिहास के किस दौर में आ गये हम
कि सामाजिक न्याय के लिए आया
मुख्यमंत्री मसखरी के लिए
महान परिवर्तन के लिये आई नेत्री
हीरों के गहनों के लिए
इक्कीसवीं सदी के लिए आया प्रधानमंत्री
तोप के लिए
रामराज्य के लिए आया प्रधानमंत्री
प्याज के लिए
ईमानदारी का पुतला प्रधानमंत्री
घोटालों की सरकार के लिए।
और अच्छे दिनों का प्रधानमंत्री
सबसे बुरे दिनों के लिए जाना जायेगा।

 

3 COMMENTS

  1. कवि इन कविताओं में परिवेश के मूल्यांकन और उससे प्राप्त अनुभव बोध एवं असंतुष्टि की पीड़ा कोअपने अतिसमृद्ध अध्ययन के विराट फलक पर सहजता से उकेरता चला जाता है. अभिव्यक्ति की आत्मनिष्ठ ईमानदारी पाठक को इस कदर बांध लेता है कि धर्मभीरु मानसिक सहयात्री भी साथ नहीं छोड़ता बल्कि आखिरी तथ्य या सत्य के दर्शन कि लालसा लिए साथ चलता चला जाता है. नीत्से का नाम ज़रूर लेते हैं अपना ध्यान रखने का इंसान को है देते हैं. सारी परिभाषाएं ईश्वर के पक्ष में या विपक्ष में जो दी जाती रही हैं उन्हें सांकेतिक रूप में ही सही सामने रखते हुए यह बस लाने का सार्थक प्रयास किया गया है कि आपके जीवन में परिवर्तन आपके अपने परिश्रम या परिजनों के परिश्रमके परिजनों के परिणाम स्वरूप भी आ सकते हैं. वस्तुतः मैं यहां पर परिजन नहीं जोड़ना चाहता था लेकिन पता नहीं मन किया कि कुछ लोग यह सोचते हो कि कुछ के जीवन में परिवर्तन उनके अपनों के द्वारा भी लाया जाता है ऐसा देखा गया है. विरोधाभास ही द्यो तक है बिराटता का. विभिन्न संदर्भों और उधर 9 को प्रस्तुत करते हुए यह बस लाने का प्रयास किया गया है कि विकास का दौर आज हमें एक साथ महा विलास और भुखमरी महा विनाशक मुहाने पर ला खड़ा किया है.
    इतिहास के अभागे कविता के बारे में मैं अपनी ओर से नहीं कुछ कहते हुए सिर्फ राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्तियां हैं :-
    अंधा चकाचौंध का मारा
    क्या जाने इतिहास बेचारा
    साखी है उनकी महिमा के
    सूर्य चंद्र भूगोल खगोल
    कलम आज उनकी जय बोल.
    इन कविताओं में जबरदस्त व्यंग है इसका प्रभाव अनुभव में उतरता है. यह कविताएं आलोचक से धैर्य पूर्वक विश्लेषण की मांग करती हैं जो इनके अंदर उतरकर इसके पैनी धार को महसूस कर सके और उसके पड़ने वाले प्रभाव को सही ढंग से अंकित कर सके.
    मैं ना तो कोई आलोचक हूं और ना कवि और न साहित्यकार मैं ने जो कुछ कहा है एक पाठक की हैसियत से और सिर्फ एक बार पढ़ते हुए जो मन पर प्रभाव परा सिर्फ वह कह डाला है. पहले पाठ की प्रतिक्रिया कह सकते हैं. आदरणीय दिनेश कुशवाहा जी को बहुत-बहुत शुभकामनाएं इन कविताओं में यह साफ अनुभव होता है कि उनके विचार अब शब्द नहीं ढूंढते, बल्कि शब्द बन जाते हैं.
    बहुत-बहुत धन्यवाद

  2. शानदार रचनायें हैं । समकालीन साहित्य में ऐसा तथ्य और भाव अन्वेषक दुर्लभ है।
    गुरुजी की अलौकिक आभा हमे इसी तरह रचनाओं से आलोकित करती रहे ।
    ईश्वर उत्तरोत्तर आपके लेखन को प्रभावी बनाये

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