मेरा जीवन और लेखन : सच्चिदानन्द सिन्हा

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(सच्चिदानंद सिन्हा को उन्हें जाननेवाले प्रायः सभी लोग सच्चिदा जी कहते, बुलाते हैं। और जो भी उन्हें जानते हैं वे सहज ही यह अंदाजा लगा लेंगे कि बेहद संकोची, प्रचार-प्रसार से परहेज करनेवाले और अहंभाव से दूर सच्चिदा जी ‘मेरा जीवन और लेखन’ जैसे शीर्षक से शायद ही कुछ कहेंगे। यह शीर्षक उनका दिया हुआ नहीं है, यह शीर्षक हमारी तरफ से, क्षमा याचना सहित, सिर्फ इसलिए लगाया गया ताकि पहली नजर में ही पाठक जान सकें कि वे क्या पढ़ने जा रहे हैं। यह आत्मकथ्य सच्चिदानंद सिन्हा रचनावली में ‘लेखक की ओर से’ शीर्षक से लिखे गए आत्मकथ्य का अंश है। रचनावली का संपादन प्रख्यात पत्रकार अरविंद मोहन ने किया है, और यह आत्मकथ्य हासिल करना कितना कठिन रहा होगा वही जानते होंगे। सच्चिदानंद सिन्हा प्रसिद्ध लेखक-चिंतक हैं। इस कोटि में कई नाम गिनाये जा सकते हैं। यों चिंतन की गहराई, विषयों की तह तक जाने और आमजन के प्रति संवेदनशीलता में भी उनका सानी नहीं। पर जो चीज सच्चिदा जी को और भी विशिष्ट बनाती है वह है उनका अनासक्त जीवन, ऋषितुल्य व्यक्तित्व। उन्होंने अपने ज्ञान, अपनी मेधा और ख्याति का कभी रंचमात्र निजी लाभ नहीं उठाया। कभी कुछ पाने के फेर में नहीं पड़े। समाजवादी धारा के वह एक शीर्ष चिंतक तो हैं ही, प्रेरणा पुरुष भी हैं। देर से ही सही, उनका विपुल लेखन आठ भागों में राजकमल प्रकाशन से आया है (पेपरबैक में पूरी रचनावली की कीमत 4000 रु.)। नब्बे पार के सच्चिदा जी शतायु हों, इस शुभकामना के साथ उनकी रचनावली का स्वागत कीजिए। किताब स्तंभ में अरविंद मोहन ने, हमारे अनुरोध पर, सच्चिदा जी की शख्सियत और रचनावली के बारे में एक संक्षिप्त परिचय मुहैया कराया है।)

मेरी सक्रिय राजनीति की शुरुआत 1942 के आंदोलन से हुई और एक छात्र के रूप में हम स्कूल से ही आंदोलन मेँ जुड़ गये थे। हालांकि राजनीति से मेरा परिचय तभी हो गया था जब मैं चार साल का था। ननिहाल में था तब 1932 में मेरे नाना श्री रामचरित्तर सिंह (बाद में 1946 से 1957 तक बिहार की पहली सरकार में सिंचाई एवं बिजली मंत्री) को गिरफ्तार करने टमटम लेकर पुलिस वाले आए थे। मैं और मेरे ही हमउम्र मामा चंद्रप्रकाश सिंह एक दीवार के पीछे से इस घटना को देख रहे थे। इसके बाद नाना के घर से सारा सामान पुलिस ले गयी। यह शायद कुर्की की कार्रवाई थी।

1942 के दौरान जिस भूमिगत आंदोलन की शुरुआत हुई, उसमें जयप्रकाश नारायण, लोहिया, अरुणा आसफ अली, अच्युत पटवर्द्धन आदि थे। इन लोगों ने कांग्रेस अधिवेशन के समय खुद को गिरफ्तारी से बचा लिया था। जेपी तो हजारीबाग जेल से छह साथियों के साथ निकल भागे थे। इसी समूह के साथ नौवीं के छात्र के रूप में मैं जुड़ा। उस समय विश्वनाथ जी हमारे उस्ताद थे, जो आगरा के सेंट जोंस कॉलेज के छात्र थे। वे गुप्त रूप से हमारे हॉस्टल में आते थे और परचा-पंफलेट आदि दे जाते थे। हमलोग चुपचाप उसे वितरित कर दिया करते थे। इसी तरह मैं भूमिगत आंदोलन से जुड़ा।

अशोक सेकसरिया के साथ

जहां तक मुझे याद है, उसी समय एक पुस्तिका, जो जेपी की दूसरी चिट्ठी ‘ए लेटर टु ऑल फाइटर्स फॉर फ्रीडम’  थी, विश्वनाथ जी के माध्यम से हमलोगों के पास पहुंची। इसी समय लोहिया की लघु पुस्तिका ‘रिबेल्स मस्ट एडवांस’ पढ़ने को मिली। इसमें विस्तार से क्या था  इसपर ध्यान नहीं गया, लेकिन इससे हमें दिशा दर्शन होता था कि क्या करना है। हमारे एक साथी विश्वेश्वर प्रसाद शाही मुजफ्फरपुर के एक गांव चढ़ुंआ के थे और हमारे साथ बी.बी. कॉलेजिएट के हॉस्टल में रहते थे। वे इतने साहसी थे कि 26 जनवरी को रात में बिना सीढ़ी के स्कूल के भवन पर चढ़ गये और  तिरंगा फहरा दिया। दूसरे दिन शहर में काफी हंगामा हो गया। शहर में फौज का एक प्लाटून रहता था, जो दन से स्कूल में पहुंच गया। हमारे हेडमास्टर पी.के. सेन काफी घबरा गये क्योंकि शहर में कहीं कुछ नहीं हुआ और उनके स्कूल में झंडा लग गया था। वह काफी डर भी गये। रात को हम पर्चा शहर में बांट आते थे।

समाजवादी आंदोलन से जुड़ने का यही सूत्र रहा क्योंकि यही नेता लोग समाजवाद के प्रणेता थे। इसी के साथ स्वतंत्रता संग्राम की भावना जुड़ी थी। हम उसी के बाद समाजवाद की ओर मुड़ गये। इस आंदोलन में मेरे नाना जी श्री रामचरित्तर सिंह, मेरे पिताजी श्री ब्रजनंदन सिन्हा जेल में थे। पिताजी पहले इसी स्कूल में शिक्षक रह चुके थे और इस्तीफा दे चुके थे। इसलिए स्कूल के तब के शिक्षक लोग भी हमारे खिलाफ पुलिस को कुछ नहीं बताते थे। इसी से हम बचे रह जाते। मैं 1945 में मैट्रिक पास कर पटना साइंस कॉलेज से आई.एस.सी. करने चला गया। वहां छात्र कांग्रेस का गठन हुआ। पहले एक ही स्टूडेंट्स फेडरेशन था। लेकिन युद्ध के सवाल पर इसमें विभाजन हो गया। जो कम्युनिस्ट पार्टी समर्थक थे, उनका फेडरेशन पर वर्चस्व रह गया था। जो लोग आंदोलन के समर्थक थे, उन लोगों ने अलग होकर छात्र कांग्रेस का गठन किया था। मैं जब गया तब इसी कांग्रेस का अधिवेशन पटना में हुआ और इसका उद्घाटन जवाहरलाल नेहरू किया और अध्यक्षता पूर्णिमा बनर्जी ने की थी। हमारे जैसे छात्र इसी छात्र कांग्रेस से जुड़ गये।

वैसे मैं साइंस कॉलेज का छात्र था, जहां की पढ़ाई काफी अच्छी और गंभीर थी। मेरी सक्रियता आंदोलन में होने से पढ़ाई ठीक से नहीं होती थी। इंटर किसी तरह सेकेंड डिवीजन से पास किया। इसके पहले कॉलेज की आंतरिक परीक्षा के दौरान आजाद हिन्द फौज के तीन जनरलों को हुई फांसी की सजा के खिलाफ हमलोग कॉपी फाड़कर परीक्षा हॉल से बाहर आ गये थे। बाद में प्रिसिंपल ने फिर से  यह परीक्षा करवायी।

बी.एस.सी. के फर्स्ट ईयर की समाप्ति के पहले मैंने तय कर लिया कि अब पढ़ाई नहीं करनी है। बसावन सिंह सोशलिस्ट पार्टी के मजदूर संगठनों के प्रभारी थे। उनसे मैंने यह बताया। उन्होंने मुझे एक चिट्ठी देकर हजारीबाग के यरगडा भेज दिया। वहां चार बड़े खदान थे- यरगडा, सिरका, भुलकुंडा और रेलिगढ़ा। यहां मजदूर संगठन थे। उनमें काम करने चला गया। इसके साल भर के बाद ही सोशलिस्ट पार्टी ने ही मुझे पटना बुला लिया। उस समय उसका ‘ब्लिट़्ज’ नाम का अखबार निकलता था। उसमें अशोक मेहता लिखा करते थे। उस समय दिगाम में आया कि आंदोलन को आगे बढ़ाने का माध्यम पत्रकारिता भी हो सकती है। उस समय बंबई में प्रो. पी.जी. राव हॉर्निमैन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म चलाते थे। उसमें एडमिशन लिया। एक साल का कोर्स करने के बाद मैं वहीं पर मिल मजदूर सभा में पूरावक्ती कार्यकर्ता (होलटाइमर) के तौर पर काम करने लगा। उसी समय सोशलिस्ट पार्टी में वैचारिक मतभेद उभर गया। अशोक मेहता वहां के नेता थे। उन्हें लगता था कि नीचे के स्तर पर कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ सहयोग करना चाहिए। इस विचार के खिलाफ एक समूह उभरा जिसे अखबारवालों ने मिलिटेंट सोशलिस्ट कहना शुरू किया।

फोटो द टेलीग्राफ से साभार

मैं इस समूह के साथ जुड़ गया था। यह समूह अशोक मेहता के कांग्रेसी रुझान के खिलाफ था। इसमें मजदूर नेता साथ आ गये। मिल मजदूर सभा के बापूराव जगताप, गुलाब राव गणाचार्य आदि थे। कुछ लोग जो बोल्शेविक लेनिनवादी पार्टी से सोशलिस्ट पार्टी में आए थे, वे भी इस समूह में आ गये। इसके अलावा ट्रास्ट्रकीवादी पार्टी से कुछ लोग आ गये थे। इसमें तुलसी वोरा जैसे मजदूर नेता थे। मिल मजदूर सभा की अगुआई में 1951 में दो महीने की मजदूर हड़ताल चली। 1952 के चुनाव में मैंने बाबासाहब आंबेडकर के चुनाव मेँ सहयोग किया था। पर चुनाव के बाद सोशलिस्ट पार्टी में लेफ्ट-राइट का झगड़ा तेज हो गया। इसमें मैं चूंकि लेफ्ट के साथ था, इसलिए अशोक मेहता ने मुझे फुलटाइमर से हटा दिया और मुझे पार्टी से मिलनेवाला खर्च बंद हो गया।

इसके बाद मैंने रेलवे में खलासी के रूप काम शुरू किया, जो करीब दो साल चला। यहां सोशलिस्ट मजदूर संगठन काफी मजबूत था जो लेफ्ट प्रभाव में था। ऑल इंडिया रेलवेमेंस एसोसिएशन के अध्यक्ष तब जेपी हुआ करते थे। इसके बाद मैंने करीब डेढ़ साल तक एक डॉक में टैली क्लर्क का काम किया। वहां बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट जनरल वर्कर्स यूनियन में सक्रिय रहा। चुनाव के बाद बंबई छोड़कर पटना आ गया। उस समय कृपलानी जी की पार्टी के साथ मिलकर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के गठन के खिलाफ हमारे जैसे कुछ लोगों ने सोशलिस्ट पार्टी को बनाये रखने का विचार किया और एक पाक्षिक पत्रिका शुरू की जो कुछ दिनों के बाद बंद हो गयी।

1956 में डॉ. लोहिया ने मुझे ‘मैनकाइंड’ में काम करने के लिए हैदराबाद बुला लिया। वहां कुछ महीने काम करने के बाद ही एपेंडिसाइटिस बीमारी हो गयी तो यह काम छोड़कर पटना आ गया। वहां सोशलिस्ट पार्टी के दफ्तर में पता चला कि पार्टी ने रामकरण सहनी को मुजफ्फरपुर के बोचहां से विधानसभा का टिकट दिया है। मैं वहां से उनके चुनाव में काम करने मणिका, मुजफ्फरपुर आ गया। उसी समय से मणिका से परिचय हुआ और यहां रहना शुरू किया। आज यही मेरा गांव और निवास है जबकि मूलत: हमलोग पूर्वी चम्पारण से हैं। मेरे पिता भी साहेबगंज से विधायक होते थे। बंबई में रहने के दौरान ही अशोक मेहता ने अपने विचार को प्रचारित करने के लिए लंबी व्याख्यान शृंखला चलायी। इसके खिलाफ हमलोगों ने छोटा-छोटा स्टडी सर्किल शुरू किया। इसके लिए मैंने बहुत-सारे नोट्स तैयार किये थे। मणिका आने के बाद इन्हीं नोट्स के आधार पर मैंने पहली पुस्तक ‘समाजवाद के बढ़ते चरण’ तैयार की, जो मुजफ्फरपुर के आचार्य नरेंद्रदेव अध्ययन केंद्र से प्रकाशित हुई।

इसके बाद मेरी गतिविधि लगभग अपने इलाके में ही रही। इस बीच तीन बहनों का विवाह हुआ। पिताजी की तबीयत खराब होने के कारण मुख्य रूप से जिम्मेदारी मेरे पास ही थी। इस बीच लंगट सिंह कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर महंत श्यामसुंदर दास को मैंने दस-बारह पुस्तकें पुस्तकालय से लाने को कहा। लेकिन इनमें से कोई पुस्तक नहीं मिली। महंत जी ने कहा, यहां ये सब किताबें नहीं मिलती हैं। जिनको जरूरत है वे दिल्ली जाते हैं। तब मेरी सबसे छोटी बहन की शादी हो चुकी थी और पिताजी का 1967 में देहांत हो चुका था।

1969 में मैं दिल्ली चला गया। यहां 18 वर्षों तक मुख्य रूप से अध्ययन और लेखन में ही सक्रिय रहा। इस दौरान एक के बाद एक कई पुस्तकें लिखने का मौका मिलता गया। यहां से सोशलिज्म एंड पॉवर, इंटरनल कॉलोनी, इमरजेंसी इन पर्सपेक्टिव, परमानेंट क्राइसिस ऑफ इंडिया, बिटर हॉर्वेस्ट, केयॉस एंड क्रिएशन, कास्ट सिस्टम, अनआर्म्ड प्रॉफेट, कोएलिशन इन पॉलिटिक्स, एडवेंचर्स आफ लिबर्टी, जिंदगी सभ्यता के हाशिए पर,  उपभोक्तावादी संस्कृति, मार्क्सवाद को कैसे समझें- पुस्तकें प्रकाशित हुईं। तभी अखबारों और पत्रिकाओं के लिए भी नियमित लेखन शुरू हुआ।

1987 में मैं वापस मणिका आ गया। यहां संस्कृति और समाजवाद, मानव सभ्यता और राष्ट्र-राज्य, भारतीय राष्ट्रीयता और सांप्रदायिकता, संस्कृति विमर्श, नक्सली आंदोलन का वैचारिक संकट, सोशलिज्म : ए मैनिफेस्टो फॉर सर्वाइवल, पूंजी का अंतिम अध्याय, वर्तमान विकास की सीमाएं, पूंजीवाद का पतझड़ आदि पुस्तकें प्रकाशित हुईं। इस दौरान अखबारों में लेख लिखता रहा, जिनको लेकर भी दो-तीन पुस्तकें बनी हैं।

आठ खंडों वाली मेरी रचनावली में पहला खंड कला, संस्कृति और समाजवाद पर केंद्रित है। दूसरा खंड स्वतंत्रता, राष्ट्रीयता, किसान समस्या और शहरी गरीबी पर केंद्रित है। तीसरे खंड में गांधी, लोहिया, जेपी और नक्सलवाद सम्बन्धी लेखन को समाहित किया गया है। चौथे खंड में आपातकाल, जनता पार्टी का प्रयोग, पंजाब संकट, राजनीतिक गठबंधनों के प्रयोगों को लेकर किये गये लेखन को रखा गया है। पांचवें खंड में जाति व्यवस्था, जातीयता और सांप्रदायिकता से संबधित लेखन है। छठा खंड नये समाजवाद, पुराने समाजवाद की विशेषताओं पर केंद्रित है। सातवें खंड में उदारीकरण और वैश्वीकरण पर लिखे लेखों और व्याख्यानों को लिया गया है। अंतिम खंड आंतरिक उपनिवेशीकरण और बिहार केंद्रित शोषण पर आधारित है।

बच्चों को उपदेशात्मक अंदाज में लिखी कविता की पुस्तक ‘बच्चों इनसे सीखो हरदम’ करीब 30 पक्षियों के माध्यम से बच्चों के लिए कुछ सीख देती है।

इन पुस्तकों की रचना की प्रेरणा समाजवादी आंदोलन के दौर में उसमें उभरी विभिन्न समस्याओं और इसके समाधान को लेकर हुए प्रयासों से मिली।

2 COMMENTS

  1. Sachidanand Sinha ji par yaha lekh bahut acha laga. Arvind mohan ko dhanyavaad; he has taken immense efforts to bring out the writings of sachida ji. Reading sachida ji always a pleasure.

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