(किशन जी चिंतन और कर्म, दोनों स्तरों पर राजनीति में सदाचार, मानवीय मूल्यबोध और आम जन के हित को केंद्र में लाने के लिए सक्रिय रहे। वह मानते थे, जो कि सिर्फ सच का स्वीकार है, कि राजनीति अपरिहार्य है। इसलिए अगर हम वर्तमान राजनीति से त्रस्त हैं तो इससे छुटकारा सिर्फ निंदा करके या राजनीति से दूर जाकर, उससे आँख मूँद कर नहीं मिलेगा, बल्कि हमें इस राजनीति का विकल्प खोजना होगा, गढ़ना होगा। जाहिर है वैकल्पिक राजनीति का दायित्व उठाना होगा, ऐसा दायित्व उठानेवालों की एक समर्पित जमात खड़ी करनी होगी। लेकिन यह पुरुषार्थ तभी व्यावहारिक और टिकाऊ हो पाएगा जब वैकल्पिक राजनीति के वाहकों के जीवन-निर्वाह के बारे में भी समाज सोचे, इस बारे में कोई व्यवस्था बने। दशकों के अपने अनुभव के बाद किशन जी जिस निष्कर्ष पर पहुंचे थे उसे उन्होंने एक लेख में एक प्रस्ताव की तरह पेश किया था। इस पर विचार करना आज और भी जरूरी हो गया है। पेश है उनकी पुण्यतिथि पर उनका वह लेख।)
भारत की पिछले पचास साल की राजनीति कितनी सार्थक रही या कितनी व्यर्थ रही? अगर इस राजनीति से लोग असंतुष्ट हैं तो उसका कोई विकल्प है या नहीं?
जो लोग थोड़ी-बहुत राजनीति की चर्चा करते हैं वे राजनीति और राजनेताओं के बारे में इस तरह बात करते हैं मानो राजनीति घृणा का विषय है। मगर व्यवहार में अधिकांश शिक्षित लोग राजनीति या राजनेताओं के साथ लिप्त रहते हैं। अकसर देखा जाता है कि जाने-माने ज्ञानी लोग, जिनका अपने कार्यक्षेत्रों में बहुत आदर होता है, बिलकुल घटिया किस्म के राजनेताओं के साथ जुड़े रहते हैं। न सिर्फ जुड़े रहते हैं बल्कि उनको गौरवान्वित करते हैं, फिर भी सामान्य बातचीत में वे राजनीति और राजनेता को एक बुराई समझते हैं। इसको आप विरोधाभास भी कह सकते हैं या पाखंड भी कह सकते हैं। इसका कारण क्या है?
इसका कारण यह है कि विद्यमान राजनीति की बुराइयों को तो हम देख लेते हैं लेकिन राजनीति की श्रेष्ठता और अनिवार्यता को समझते नहीं हैं। इस सच्चाई को भी हम ओझल किये रहते हैं कि जिसका सामाजिक कार्यकलाप जितना अधिक होगा उसको उतना ही राजनीति से नाता जोड़ना पड़ेगा।
दूसरा कारण यह है कि राजनीति से बहुत बड़ी अपेक्षाएं रहती हैं। दायित्व निभाने और सार्वजनिक नैतिकता का पालन करने की जितनी अपेक्षा राजनेता से रहती है उतनी व्यापारी, वकील या प्राध्यापक से नहीं की जाती। यह राजनीति की गरिमा और श्रेष्ठता का ही द्योतक है कि उसके लिए ऊंचे मानदंडों का इस्तेमाल किया जाता है। तो हमें जानना चाहिए कि राजनीति वस्तुतः क्या है?
राष्ट्र या राज्य (यहां दोनों का अर्थ एक ही है) का संचालन करने का काम राजनीति है। यह एक कला है, विज्ञान भी है; नेतृत्व है, और सर्वोपरि एक दायित्व है- राज्य संचालन द्वारा समाज को संतुलित और समन्वित बनाये रखने का दायित्व।
इतना बड़ा दायित्व जिसका है उसको बहुत सारे अधिकार या विशेषाधिकार भी दिये जाते हैं। राज्य के अंदर और किसी (व्यक्ति या समूह) के पास उतनी हिंसा-शक्ति और धन- शक्ति नहीं होती जितनी कि राज्य के पास होती है। जितना बड़ा दायित्व उतना बड़ा अधिकार। इन विशेषाधिकारों के चलते दायित्व द्विगुणित हो जाता है। अधिकार के मुकाबले में एक राजनेता का दायित्व का पलड़ा भारी होना चाहिए। अतः एक राजनेता के लिए पहली कसौटी है दायित्व-वहन की क्षमता। इसके अतिरिक्त परिस्थितियों को समझने तथा लक्ष्य की ओर बढ़ने की बुद्धि भी उसमें होनी चाहिए। प्रगति की दिशा के संबंध में नेहरू या लालबहादुर शास्त्री की समझ नरसिंह राव या लालू प्रसाद से बहुत भिन्न थी ऐसा हम नहीं कह सकते, लेकिन दायित्व-वहन की क्षमता और योग्यता को लेकर इन दो जोड़ियों में कोई तुलना नहीं हो सकती। इसलिए नेहरू और लालबहादुर शास्त्री महान माने जाते हैं। उनका दायित्व-बोध केवल उनका स्वाभाविक गुण नहीं था, बल्कि उनको लंबे समय का एक प्रशिक्षण भी मिला हुआ था।
भारतीय संविधान ने राजनेताओं को बहुत अधिक अधिकार प्रदान किये हैं। लेकिन राजनीति और राजनेताओं को मर्यादित तथा प्रशिक्षित करने के लिए संविधान के अंदर या बाहर कोई भी प्रक्रिया या नियमावली नहीं है।
आजादी के पचास साल में राजनीति की गरिमा नष्ट हुई है, और राजनेताओं की विश्वसनीयता घट गयी है। इन राजनेताओं के द्वारा अपने देश को महान और समाज को न्यायपूर्ण बनाने का विश्वास किसी को भी नहीं है। अतः राष्ट्र के बेहतर भविष्य के लिए वर्तमान राजनीति का एक विकल्प चाहिए यानी वर्तमान राजनेताओं का विकल्प चाहिए। ऐसा नेत़ृत्व चाहिए जिसमें राष्ट्र का दायित्व वहन करने की चारित्रिक क्षमता हो, और राष्ट्र के दिशा-निर्धारण की बौद्धिक कर्म-कुशलता। क्या हम राजनेताओं का एक ऐसा समूह तैयार करने के बारे में सोच सकते हैं?
सबसे पहले चाहिए एक बेहतर भविष्य में आस्था। अगर हम यह कहते रहेंगे कि राजनीति एक गंदी चीज है, तो उसका मतलब होता है कि श्रेष्ठ जन उसमें न जाएं, अपराधी तत्त्वों के हाथ में राजनीति को छोड़ दें। यही तो हो रहा है। अगर समाज को अच्छी राजनीति चाहिए तो उसके तौर-तरीके बनाएं और संस्थाओं का निर्माण करें- जिन संस्थाओं के माध्यम से अच्छे राजनेता पैदा हों। अगर हम समाज की ओर से सोच रहे हैं तो हम खुद इसकी शुरुआत करें- इस आस्था के साथ कि बेहतर राजनीति संभव है, न सिर्फ अल्प समय के लिए, बल्कि हमेशा के लिए कुछ तरीके और नियम बनाये जा सकते हैं जिससे अच्छी राजनीति का सिलसिला चल सके।
(जारी)