— नंदकिशोर आचार्य —
दलित वर्ग के प्रति महात्मा गांधी और बाबासाहब आंबेडकर की नीति को लेकर काफी अरसे से एक अनावश्यक और निरर्थक बहस चलायी जाती रही है। पिछले कुछ दिनों से इस बहस में एक नया आयाम यह जुड़ गया है कि महात्मा गांधी की आलोचना किये बिना मानो डॉ आंबेडकर के पक्ष को सुस्थापित नहीं किया जा सकता- बल्कि कुछ इस तरह की तर्क-पद्धति अपनायी जाती है मानो महात्मा गांधी दलित वर्ग के साथ सहानुभूति के नाम पर उनके खिलाफ कोई षड्यंत्र रच रहे थे और उन्हें इस षड्यंत्र में फँसाकर सदैव के लिए दलित ही रहने देना चाहते थे।
इसका मुख्य कारण यह बताया जाता है कि महात्मा गांधी वर्ण-व्यवस्था के समर्थक थे और वर्ण-व्यवस्था के बने रहते हुए दलितों को समानता का अधिकार नहीं मिल सकता। यह स्पष्टतः महात्मा गांधी के वर्ण-व्यवस्था संबंधी विचारों को एक पूर्वग्रह के साथ समझना है। इस पूर्वग्रह के कारणों को समझा जा सकता है और उसके बीज निश्चय ही हिंदू समाज के इतिहास में दलितों के साथ हुए निरंतर अन्याय में मौजूद हैं। लेकिन महात्मा गांधी उस अन्याय को पाप मानते और उसे मिटा देने के लिए कृत-संकल्प हैं।
इसलिए जब वह वर्ण-व्यवस्था की बात करते हैं तो वह एक आदर्श कल्पना की तरह है, जैसे उनकी स्वराज की अवधारणा एक आदर्श कल्पना है और उस आदर्श कल्पना से नीचे की कोई भी स्थिति उनके लिए काम्य नहीं है। जिस तरह वह स्वराज के नाम पर प्रतिनिधि सत्तात्मक लोकतंत्र को स्वीकार नहीं करते तथा संसद तक को निष्फल और ‘वेश्या’ तक कह देते हैं, उसी प्रकार वर्ण-व्यवस्था के नाम पर प्रचलित हिंदू समाज-व्यवस्था को भी पाप मानते और उसे बदल देना चाहते हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि गांधीजी के लिए पाप से अधिक घृणात्मक कोई और शब्द नहीं है। इसीलिए वह हिंदू शास्त्रों के बारे में भी निस्संकोच यह कह पाते हैं कि हिंदू शास्त्रों में लिखा प्रत्येक शब्द और श्लोक उनके लिए ‘दैवी प्रेरणा’ से रचित नहीं है तथा उनकी ऐसी कोई भी व्याख्या स्वीकार नहीं की जा सकती जो विवेक और नैतिक बोध के प्रतिकूल हो।
यह उल्लेखनीय है कि वर्ण-व्यवस्था में असमानता का प्रदूषण खान-पान और विवाह आदि पारस्परिक संबंधों में लगाये गये प्रतिबंधों के कारण विकसित हुआ है। गांधीजी इन निषेधों को अनावश्यक और नुकसानदेह मानते हुए अंतरजातीय खान-पान और विवाह को वर्ण-धर्म का उल्लंघन मानने से पूरी तरह न केवल असहमत होते हैं, बल्कि दलित वर्ग के साथ विवाह संबंधों को वैचारिक ही नहीं, नैतिक और व्यावहारिक समर्थन भी देते हैं।
वर्तमान वर्ण-व्यवस्था की स्थिति के बारे में उनका स्पष्ट कथन था कि ‘जहां तक मैं समझता हूं वर्ण-व्यवस्था को लेकर पूर्ण भ्रम फैला हुआ है और मैं चाहता हूं कि सभी हिंदू स्वेच्छापूर्ण अपने को शूद्र घोषित कर दें।’ उनकी राय में वास्तविक वर्ण-धर्म के पुनरुद्धार का यही एकमात्र रास्ता हो सकता है। यह भी उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी की वर्ण-व्यवस्था में किसी तरह के उच्चावच क्रम का कोई स्थान नहीं है, इसलिए किसी एक वर्ण को श्रेष्ठ या अश्रेष्ठ मानने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
दलित वर्ग के अभ्युत्थान के लिए गांधीजी के प्रयासों को इसी संदर्भ में समझे जाने की जरूरत है। यह भी उल्लेखनीय है कि जहां एक ओर वे इसके लिए सामाजिक स्तर पर प्रयास करना चाहते हैं, वहीं दलित वर्ग को कानूनी संरक्षण और समानता का अधिकार दिये जाने का भी समर्थन करते हैं- बल्कि यह उन्हीं के कारण हो सका कि कांग्रेस ने स्वतंत्रता प्राप्त होने से पूर्व ही अस्पृश्यता समाप्त करने की घोषणा (1920-21) कर दी थी। साथ ही, यह भी स्पष्ट समझ लिया जाना चाहिए कि जब गांधीजी सवर्ण समाज से यह आग्रह करते हैं कि उन्हें दलित वर्ग की सामाजिक स्थिति में सुधार और उसके लिए शिक्षा तथा आर्थिक विकास के अवसर जुटाने के लिए सचेष्ट होना चाहिए, तब इसका यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि दलितों को अपने पर हो रहे अन्याय को सहते रहना चाहिए।
गांधीजी की दृष्टि में अन्याय को सहना भी अनुचित है, इसलिए यदि दलित अपने अधिकारों की प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष करते हैं तो वह गांधीजी को सदैव मान्य ही होगा- उसकी शर्त केवल अहिंसा ही हो सकती है। लेकिन अहिंसा तो उनके लिए भारत की स्वतंत्रता की भी शर्त है।
इसके अतिरिक्त, किसी भी लोकतांत्रिक समाज में अहिंसात्मक संघर्ष ही एकमात्र रास्ता हो सकता है। यहां इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि स्वयं बाबासाहब आंबेडकर को भी संघर्ष का अहिंसक रूप ही काम्य था। लोकतांत्रिक पद्धति से संगठित नैतिक दबाव के माध्यम से कानूनी अधिकार प्राप्त करने का तरीका अहिंसक ही हो सकता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बाबासाहब सैद्धांतिक रूप से किसी आंदोलन को न केवल अहिंसा बल्कि कानून-सम्मत तरीकों से चलाये जाने पर जोर देते थे, जबकि महात्मा गांधी के लिए कानून-सम्मत होना उतना जरूरी नहीं था, जितना अहिंसक होना। इसीलिए उनके आंदोलनों को अहिंसक विद्रोह कहा जाता है। संभवतः यही कारण था कि महात्मा गांधी के आंदोलनों को बाबासाहब का समर्थन नहीं मिला और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे अभूतपूर्व आंदोलन के समय भी वह गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के सदस्य बने रहकर आंदोलन के दमन के ब्रिटिश तरीकों को अपना नैतिक समर्थन देते रहे।
इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि आंबेडकर दलित वर्ग को जो अधिकार दिलाना चाहते हैं, गांधीजी भी न केवल उनका समर्थन करते हैं बल्कि सवर्ण समाज को उन अधिकारों को स्वीकार कर लेने के लिए भावात्मक-नैतिक स्तर पर तैयार कर लेने का प्रयत्न करते दिखाई देते हैं। इसमें विरोध की क्या बात है?
यह भी स्पष्ट है कि ऐसा करते हुए वह दलित वर्ग को दया का पात्र बताकर उनके प्रति उदारता बरतने को नहीं कहते। उनकी दृष्टि में दलित वर्ग के अभ्युत्थान के लिए सवर्ण समाज द्वारा किये जानेवाले प्रयास स्वयं सवर्ण समाज के नैतिक अभ्युदय के लिए अनिवार्य हैं। यह दलित वर्ग पर कोई एहसान नहीं बल्कि सवर्ण समाज का प्रायश्चित्त है और प्रायश्चित्त किसी और के लिए नहीं बल्कि अपने पापों के लिए किया जाता है- अपनी आत्मशुद्धि और आत्मविश्वास के लिए। इसलिए जब गांधीजी सवर्ण समाज से अपने पापों के लिए प्रायश्चित्त करने का आग्रह करते हैं तो उसका प्रयोजन दलित वर्ग पर दया करना नहीं बल्कि ‘पाप’ में लिप्त एक समाज को उस ‘पाप’ से मुक्त करना है।
यदि दलितों द्वारा अपने अधिकारों के लिए अहिंसक संघर्ष को स्वीकृति देते हुए महात्मा गांधी हिंदू समाज का एक सदस्य होने के नाते अपने समाज को उसके पाप का बोध करवाते हुए प्रायश्चित्त के माध्यम से उसकी आत्मशुद्धि करने का प्रयत्न करते हुए दिखाई देते हैं तो उनके इस प्रयत्न को किस आधार पर अनुचित कहा जा सकता है? यह समझ में आनेवाली बात नहीं है। क्या किसी को अपने पाप के प्रायश्चित्त का अधिकार देने में भी किसी को कोई एतराज हो सकता है?
इसके अतिरिक्त, किसी भी बौद्धिक विमर्श में किसी विचार और विकास की प्रक्रिया को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यदि हम ऐसा करते हैं तो इसका सीधा तात्पर्य यही है कि हमारा प्रयोजन किसी विचार को समझना नहीं बल्कि उसपर बहस के माध्यम से किसी राजनीतिक प्रयोजन- स्थूल अर्थों में किसी राजनीतिक प्रयोजन- की सिद्धि करना है। गांधीजी के कथनों के संदर्भच्युत और अधूरे उद्धरणों को उनके मूल मंतव्य से काटकर प्रस्तुत करना कुछ ऐसे ही प्रयास का लक्षण हो जाता है।
यह देखना चाहिए कि किसी विचार या नीति का विकास धीरे-धीरे किस प्रकार होता है। यदि हम इस बात को ध्यान में न रखें तो सहज ही गांधीजी को एक ऐसे कामुक व्यक्ति के रूप में चित्रित कर सकते हैं जो अपने पिता के मृत्युशैया पर होने के समय पास ही के कमरे में अपनी पत्नी के साथ हमबिस्तर था। लेकिन इस घटना की जानकारी आखिर स्वयं गांधीजी ही तो हमको देते हैं और यही घटना आगे चलकर उनके ब्रह्मचर्य जीवन का बीजाधार बनती है, जो इस बात का प्रमाण है कि महात्मा गांधी का जीवन एक अनवरत शोध है और अनवरत शोध का तात्पर्य ही यह है कि हर शोध में कोई चीज छूट जाती है, जिसे जानने के प्रयास भविष्य में होते रहने अनिवार्य हैं। यह प्रयास वह व्यक्ति स्वयं भी कर सकता है और अन्य लोग भी।
प्रयास के अधूरे रहने या असफल रह जाने का अर्थ सदैव मंतव्य या नीयत की कमी नहीं माना जा सकता- और ऐसे व्यक्तित्व के साथ तो उसे जोड़ना और भी अन्याय होगा जो निरंतर अपने प्रयोग के अधूरेपन को पहचानता और उस दिशा में और आगे बढ़ने के लिए सजग और सचेष्ट रहता है। यदि महात्मा गांधी के प्रायश्चित्त को हम असफल भी मानें तो भी उनके प्रयासों की ईमानदारी और अहिंसात्मक उपायों से सामाजिक समानता स्थापित करने में उनकी निष्ठा की प्रामाणिकता पर किसी भी तरह का संदेह करना उनके प्रति अन्यायपूर्ण और हमारी बौद्धिक प्रामाणिकता के लिए अस्वास्थ्यकर होगा।
यदि हम ऐसा न समझें तो स्वयं बाबासाहब को समग्रतः समझने में भी हमें दिक्कत ही होगी। स्वयं बाबासाहब के विचारों के विकास को न देखा जाए तो उन्हें भी गलत समझा जा सकता है। ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौर में उनके गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी का सदस्य होने की बात तो पहले की ही गयी है। लेकिन सन 1927 में साइमन कमीशन के समक्ष अपनी गवाही में बाबासाहब ने आदिवासियों को मतदान का समान अधिकार देने के विरुद्ध राय व्यक्त की थी, जबकि बाद में संविधान की प्रारूप-समिति में उनके नेतृत्व में ही यह अधिकार उन्हें मिला। यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि वह जिन्ना के ‘द्वि-राष्ट्र’ सिद्धांत के समर्थक थे और उसका कारण लगभग वही था जिसके आधार पर आज हिंदू संप्रदायवादी भारतीय मुसलमानों के प्रति प्रतिशोध का भाव अपनाये हुए हैं- यद्यपि स्वयं बाबासाहब में इस तरह के प्रतिशोध की बात नहीं है, पर इस्लाम को एक कट्टर धर्म मानते हुए वे पाकिस्तान की माँग स्वीकार कर लेने की सलाह देते हैं ताकि हिंदू सुखपूर्वक रह सकें।
दरअसल, गांधजी सबको मिलाकर चलते हुए समस्याओं के अहिंसात्मक समाधान को उचित मानते हैं और बाबासाहब विभक्ति के माध्यम से समाधान चाहते हैं। समाज आज विभक्त है, यह यथार्थ गांधीजी से छिपा हुआ नहीं है, पर वह इसे एक रोग मानकर उसका उपचार चाहते हैं। कोई चाहे तो उनसे असहमत हो सकता है, पर उनकी कामना की वांछनीयता और प्रामाणिकता पर संदेह नहीं हो सकता।