— शर्मिला जालान —
अपने पहले कहानी संग्रह आखिरी टुकड़ा में संजय गौतम ने पिछले अढ़ाई-तीन दशक में लिखी पच्चीस कहानियों के द्वारा देश में हो रहे बदलाव के तुमुल कोलाहल के बीच ग्रामीण जीवन में जो दिख रहा है, जो देखा गया है, जीवन की तमाम छोटी-बड़ी चीजों को, कड़वे-मीठे-रूखे सच को मानवीय और भाविक स्तर पर समझने, लिखने और साझा करने की कोशिश की है।ग्रामीण और महानगरीय समाज के सच और स्वप्न के अंतर्विरोधों को संतुलित और विनोदी शैली के माध्यम से दिखाया है।
‘आखिरी टुकड़ा’ कहानी संग्रह की पृष्ठभूमि को समझने के लिए कुछ बातों को दुहरा लेना आवश्यक है जो अवांतर बातें लग सकती हैं, पर कभी-कभी मदद भी करती हैं। हम जानते हैं कि हिंदी समाज बड़ा और बहुत दूर तक फैला हुआ समाज है। जिसके लेखक विभिन्न प्रदेशों से आते हैं और उनका लिखा उन विशेष प्रदेशों का योगदान भी कहा जा सकता है। हिंदी कथा संसार ने अपने आप को विविध, वैयक्तिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि लिये हुए सवालों, समस्याओं से जोड़ने की कोशिश की है। हम यह भी जानते हैं कि बहुलतावादी, बहुसांस्कृतिक, जनतांत्रिक और पारम्परिक देश भारत में तरह-तरह की जटिल समस्याएँ हैं जिनकी चुनौतियों का सामना लेखकों को करना पड़ता है। हिंदी कथा साहित्य ने इस तरह की समस्याओं को समझा है और उससे जुड़ा भी है।
सन् 1991 में भारत सरकार ने मुक्त बाजार वाली अर्थव्यवस्था को अपनाया। रूस के विघटन और चीन में समाजवादी सत्ता के संरचनागत परिवर्तन ने दुनिया भर में वैश्विक मुक्त बाजारवादी अर्थव्यवस्था और उसकी सहयोगी संस्थाओं का वर्चस्व स्थापित कर दिया। ग्रामीण जीवन भी बाजार से प्रभावित हुआ। गाँव शहर की तरफ पलायन करने लगा। अन्धाधुन्ध विकास की अवधारणा से ग्रामीणों का पलायन, बाजार का गाँव में आतंक, औरत की जिन्दगी ये वे विषय हैं जो हम इस संग्रह में पाते हैं।
‘आखिरी टुकड़ा’ संग्रह की पच्चीस कहानियों में अधिकतर कथाएँ ग्रामीण परिवेश को, वहाँ के जगत और उस क्षेत्र को, वहाँ की भाषा को पाठक के करीब लाती हैं।
संग्रह का नाम जिस प्रमुख कहानी पर है उसमें दो पीढ़ी के तनाव को, ग्रामीण जीवन के सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव, जो किसी न किसी रूप में हर रोज सामने आते हैं, को विविध कथा सामग्री और शिल्प के द्वारा साधा गया है। गाँव में शहर घुस गया है और परिवार पर संकट के बादल हैं। पूरा गाँव प्लांटिंग कर रहा है। जिसे देखो वही जमीन बेचकर पक्का तनवा रहा है और पूछो क्या कर रहे हो, तो कहेगा- रियल स्टेट का धंधा कर रहे हैं।
‘आखिरी टुकड़ा’, ‘बसंता का दुख’, ‘बंजर’, ‘गाँव की गंगा’, ‘मास्टर सुलेमान का मोबाइल’ आदि कहानियाँ ग्रामीण समाज के विभिन्न पक्षों कोआवश्यकतानुसार विविध स्वर में चित्रित करते हुए गाँव में आ रहे परिवर्तन की प्रक्रिया को, विडम्बनाओं को मार्मिक ढंग से वर्णित करती हैं। यह नब्बे के बाद का ग्रामीण यथार्थ है जो सघन अनुभव, चित्र एवं बिम्बों के माध्यम से आता है। यह समस्या किसी अंचल या प्रदेश तक सीमित न होकर देशव्यापी समस्या है। आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध, अहंकारी समकालीन युवा ग्रामीण नागरिक के जीवन के दारुण सच को यहाँ व्यक्त किया गया है।
ग्रामीण समाज की विकृतियों और विषमताओं को लेखक जनपदीय बोलियों के सर्जनात्मक प्रयोग से, कई प्रविधियों से रचते हैं। सीधे कथा वर्णन के साथ कविता, फिल्मी गाने, लोकोक्ति, गीत, लेखकीय टिप्पणियों का प्रयोग किया गया है। यहाँ यथार्थ के बहुविध रूप, कल्पना और फंतासी के माध्यम से आते हैं।
भारत एक ऐसा देश है जो न सिर्फ पुराना है बल्कि यहाँ विभिन्न सभ्यता और संस्कृतियों का आदान-प्रदान भी होता है। भारत अनेक भाषाओँ और बोलियों से भी बनता है। संजय गौतम की कहानियों में बोलियों- भोजपुरी, अवधी, बांग्ला- का बहुत प्रभाव है। यह भाषा उस परिवेश का अटूट हिस्सा है, जहाँ से कहानी के पात्रों को उठाया गया है। उनकी कहानियों के पात्र, परिवेश, भाषा और समाज परस्पर घुले-मिले हैं। ये पात्र, भाषा और परिवेश लेखक के अनुभव से नि:सृत एवं सम्बद्ध हैं। कथाभाषा में लोकतत्त्व का समावेश उसे जीवन्त, रोचक और विश्वसनीय बनाता है। लोकजीवन उनकी कहानियों का आधारभूत तत्त्व है, जिसके माध्यम से अनेक आयामों को दिखाया गया गया है। भाषा लोक से और रोजमर्रा के जीवन अनुभवों से ऊर्जा ग्रहण करती है। इन कहानियों का रिश्ता हिंदी के जिन कथाकारों से बनता नजर आता है उनमें प्रेमचंद, रेणु और शिवमूर्ति आदि रचनाकारों को हम याद कर सकते हैं।
ग्रामीण जीवन के आलावा कुछ कहानियाँ ऐसी हैं जो अलग अनुभव संसार में ले जाती हैं।
एक था राजा पंचतंत्र की शैली में लिखी गयी कहानी है जिसकी पारम्परिक पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में सोचते हुए ‘बैताल पच्चीसी’ और ‘अंधेर नगरी’ जैसी रचनाओं की याद आती है। कालजयी नाटक ‘अंधेर नगरी’ बहुत रोचक ढंग से आज के समय, सत्ता, न्याय व्यवस्था के अंतर्विरोधों को, सतह के नीचे की अराजक स्थितियों-परिस्थितियों को, समस्याओं से निपटने के विवेकशून्य औजारों को दिखाता है। यह कार्य यह रचना ट्रेजेडी और कॉमेडी के द्वारा करती है। ऐसा ही कुछ ‘एक था राजा’ में भी होता है। यह दिलचस्प कहानी छोटे-छोटे आठ सर्गों में लिखी गयी है। इसके पारंपरिक शिल्प की बानगी हम यहाँ देख सकते हैं –
( एक )
सुनो पप्पू !
एक था राजा”- दादी कहती थीं।
वह जंगल का राजा था। ….
………………….
वह रोज सुबह उठता था और पूरे राज्य में फैले हुए अपने भोंपुओं से चिल्ल्लता था- ओ नागरिको! पडोसी जंगल का राजा तुमको खाने वाला है, इसलिए तुम सारी शक्ति हमें दे दो, जैसे कहूँ वैसे रहो, तुम्हारी सुरक्षा मैं करूँगा। तुम्हें कुछ नहीं करना होगा, तुम्हें बस अपनी सत्ता हमें दे देनी होगी।’
सुनो पप्पू! जनता अपनी सारी शक्ति राजा को देती रही और राजा राज करता रहा!”
स्त्री जीवन की दशा और दिशा पर जो कहानियाँ इस संग्रह में हैं उनमें स्त्री की यातना को संवेदनशीलता के जिस धरातल पर वर्णित किया गया है, उससे कहानियाँ अधिक ग्राह्य, मार्मिक बनी हैं। स्त्री प्रधान कहानियों की स्त्री पात्रों में सबसे प्रभावशाली पात्र ‘रुपकल्ली की लाठी’ कहानी की‘रुपकल्ली’ है। ऐसा लगता है इस संग्रह के तमाम स्त्री पात्र रुपकल्ल्ली में जाकर पूरी तरह से विकसित हुए हैं। रुपकल्ली अनपढ़ होते हुए भी स्वाभिमानी, साहसी और संघर्षशील हैं, अन्याय और शोषण का प्रतिकार करती हैं। समर्पण नहीं करती, अपने आत्मसम्मान के साथ अविचल खड़ी रहती हैं। यहाँ कोई स्त्री-विमर्श नहीं है। बल्कि परिस्थितियों के बीच से स्त्री का विद्रोही रूप उभरता है। महादेवी वर्मा के रेखाचित्र ‘भक्तिन’ की याद आती है। जबकि ‘भक्तिन’ कहानी और ‘रुपकल्ली की लाठी’ में कोई समानता नहीं है। पर दोनों स्त्री पात्रों में एक समानता है वह है अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान के प्रति सजग होना।
संग्रह की प्रेम कहानियाँ जिनमें- ‘अर्थराग’, ‘तुम होती तो’ अंडरटोन की कहानियाँ हैं। भाषा कहानी के अंतर्जगत को प्रकट करती है। भाषा की बानगी हम अन्य कहानियों जैसे ‘तीन स्वप्न कथाएँ’ में भी देख सकते हैं |
‘एक शहर : पाँच कथाएँ’ कहानी में महानगर के जीवन की झलकियाँ हैं। तो ‘पंख जम जाएँ तो’ कहानी स्वप्न और यथार्थ के बीच आत्मीय वार्तालाप, संवाद शैली में लिखी गयी है जिसमें लेखक का हस्तक्षेप कम है। ‘पंख जमना’ शीर्षक असंगत महत्त्वाकांक्षा के साथ ही अन्य व्यंजना भी करता है।‘बुनना एक कहानी का’ में कहानी बुनी नहीं उधेड़ी जा रही है। कुछ कहानियाँ जो शुरुआती दौर की हैं, जब संजय गौतम ने लिखना शुरू किया था, वे छोटी और अल्प विकसित हैं और साढ़े चार पृष्ठों में समाप्त हो जाती हैं पर बाद की कहानियाँ छह, आठ, दस और तेरह पन्नों तक फैलती और विकसित होती जाती हैं। प्रारम्भ की कहानियों में ‘आखिरी टुकड़ा’ और ‘रुपकल्ली की लाठी’ के बीज छुपे हैं।
इस संग्रह को पढ़ा जाना चाहिए इसकी सादगी के लिए, कहानियों में जो चिंताएँ और सरोकार हैं, मानवीय और सामाजिक यथार्थ को पकड़ने की सफल-असफल कोशिशें हैं, प्रेम और उल्लास है उनको जानने-समझने के लिए।
# आखिरी टुकड़ा (कहानी संग्रह); लेखक- संजय गौतम; प्रतिश्रुति प्रकाशन, कोलकाता; मूल्य- 220.00 रु.; संपर्क- 9830010032