— किशन पटनायक —
मधु लिमये शुरू से मेरे लिए आदर, ईर्ष्या और असंतोष के पात्र रहे। ईर्ष्या की बात को यह कहकर समाप्त कर दूँ कि एक व्यक्ति के तौर पर और एक राजनीतिक नेता के रूप में मधु जी जितने ऊँचे, मँजे हुए और व्यवस्थित थे, उतना मैं कभी नहीं हो पाया। उन जैसा विद्वान मैं नहीं हो पाया, उन जैसा कला-प्रेमी नहीं हो सका, उन्होंने गोवा आंदोलन के दौरान जिन कष्टों को जिस तरह झेला और मुंगेर (बिहार) में जिस तरह जानलेवा हमले का मुकाबला किया, वैसा अनुभव मुझे नहीं हुआ। तो कहीं न कहीं मेरी निर्भीकता निम्न कोटि की है! सन् 1980 के बाद वे किसी दल में या पद पर नहीं रहे। संसद और राजनीति को मधु जी ने जिस हद तक प्रभावित किया, वहाँ मैं कभी भी नहीं पहुँच पाऊँगा।
ईर्ष्या की बात में मुझे कोई संकोच नहीं है क्योंकि उसमें कभी विद्वेष का पुट नहीं रहा। वह शायद मेरे स्वभाव में है कि ईर्ष्या उसके प्रति होती है जिसके लिए मेरा प्रेम है। संभवतः ईर्ष्या यही है। सन् 1968 से ही राजनीतिक क्षेत्र में मधु जी से मैं अलग होकर रहा। उनसे मेरी असहमतियाँ बहुत रहीं। लेकिन दो घटनाओं को छोड़कर मैंने कभी उनकी तीखी आलोचना नहीं की। उनकी आलोचना करते समय मेरा लहजा होता था, “मधु जी ऐसा क्यों नहीं करते हैं?”
दो घटनाओं में एक थी वी.वी. गिरि के राष्ट्रपति पद पर चुनाव का प्रसंग। श्री गिरि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के उम्मीदवार थे। उन दिनों राजनारायण और मधु लिमये एक ही दल में थे। दोनों ने मिलकर तय किया कि गिरि का समर्थन किया जाए। हमने इसकी लिखित आलोचना की। हमारी राय में यह गैर-कांग्रेसवाद के विरुद्ध था, जबकि दल की घोषित नीति गैर-कांग्रेसवाद की थी। दूसरा अवसर 1980 के आसपास का था, हमें लग रहा था मधु जी सोवियत कूटनीति के जाल में फँस रहे हैं। कई बार मित्रों तथा साथियों की बैठकों में मैंने यह टिप्पणी की थी। उन तक मेरी बात पहुँची या नहीं, मुझे मालूम नहीं, लेकिन दूसरों ने भी आलोचना की होगी। बाद में मधु जी सँभल गए; शीघ्र ही।
उम्र में मधुजी मुझसे मामूली बड़े थे; मेरे बहुत पहले समाजवादी आंदोलन में (सोशलिस्ट पार्टी में) सक्रिय थे। जब मैं दल की एक राज्य इकाई का कार्यालय-सचिव था, मधु जी राष्ट्रीय संयुक्त-मंत्री थे और एक किताब लिख चुके थे। एक नौसिखिए के तौर पर मैं कम्युनिस्ट आंदोलन को समझना चाहता था। ओड़िशा में मेरे मार्गदर्शकों ने मधु लिमये द्वारा लिखित कम्युनिस्ट पार्टी : तथ्य और झूठ नामक अँग्रेजी किताब पढ़ने की सलाह दी। इस किताब को पढ़कर मैं असंतुष्ट हुआ। मैं कम्युनिस्ट आंदोलन की ताकत और त्रुटियाँ दोनों जानना चाहता था। कम्युनिस्ट आंदोलन क्यों सर्वव्यापी है और उसका तेवर क्यों समाजवादियों की तुलना में अधिक क्रांतिकारी है? इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला; सिर्फ कम्युनिस्टों की राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय तिकड़मों के बारे में तथ्य दिए हुए थे। मैंने उसका दोष दल के तत्कालीन महामंत्री और नेता अशोक मेहता पर लादा। मैंने सोचा अशोक मेहता के प्रभाव में यह किताब लिखी गई है। अशोक मेहता की एक किताब जनतांत्रिक समाजवाद मुझे अच्छी लगी थी। उसमें कम्युनिस्ट विद्वेष नहीं था। लेकिन उनकी राजनीतिक लाइन कम्युनिस्ट-विरोध की थी। (नए लोगों को समझना होगा कि कम्युनिस्ट-विरोध का मतलब कम्युनिस्टों की आलोचना नहीं है, कम्युनिस्ट-विरोध पूँजीवाद द्वारा उकसाई गई एक विश्वव्यापी धारा था; एक विचारधारा जैसा था)
भारतीय समाजवाद का महत्त्वपूर्ण हिस्सा कम्युनिस्ट-विरोध की बीमारी से पीड़ित था। अशोक मेहता का यह चरित्र ज्यादा स्पष्ट होने लगा जब उन्होंने डेमोक्रेटिक रिसर्च सर्विस नामक एक प्रकाशन संस्था शुरू की। इसका मुख्य काम था कम्युनिस्ट-विरोधी साहित्य और सूचनाओं को प्रसारित करना। मधु लिमये की पुस्तक इसके द्वारा प्रकाशित नहीं थी। इस संस्था के साथ मधु जी जुड़े नहीं। अशोक मेहता से उनकी स्वतंत्रता स्पष्ट हुई। कुछ ही समय के अंदर अशोक मेहता की संपूर्ण राजनीतिक लाइन के विरोध में मधु जी खड़े हो गए। तब से मधु लिमये की एक प्रिय छवि हम लोगों के दिल में अंकित हो गई। 1967 के बाद की असहमतियों के लंबे सिलसिले के बावजूद यह छवि कभी मिटी नहीं। शायद इसलिए कि उनका जीवन प्रचलित राजनीति के सारे अवगुणों से मुक्त था।
एक श्रेष्ठ कोटि के सांसद के रूप में उनकी प्रतिष्ठा हुई। मंत्रियों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनका हमला इतना कारगर होने लगा कि बड़े नेताओं में उनके प्रति एक भयपात हुआ। 1964 से 67 के बीच एक सांसद के रूप में जो उनका उत्थान हुआ, उसका मैं प्रत्यक्षदर्शी था। संसदीय प्रणाली और संविधान के बारे में उनका ज्ञान अद्वितीय था। आजादी पूर्व समय के राजनेताओं और राजनीति के बारे में उनकी जो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, वे उच्चकोटि की हैं। उनकी अन्य विषयों पर लिखी गई किताबों से अलग करके इन किताबों का मूल्यांकन होना चाहिए।
लोहिया की मृत्यु (1967) के बाद हमारे जैसे समाजवादियों को (जिनका अपना प्रभाव कुछ नहीं था) जो जरूरत थी, मधु लिमये ने उसको पूरा नहीं किया। इस वजह से हम लोग उनसे हटते गए और विरोधाभास यह बनता गया कि मधु जी का कद और प्रतिष्ठा ज्यों-ज्यों बढ़ती गई हम उनसे अलग होते गए। हमें एक ऐसा प्रतिष्ठित व्यक्ति चाहिए था जो समाजवादी आंदोलन को संचालित कर सके। राजनारायण, एस.एम.जोशी और मधु लिमये- ये तीन प्रतिष्ठित नेता हमारे बीच थे। इनकी कठिनाइयाँ क्या थीं, काम कितना बीहड़ था, हमारे जैसे लोगों की क्या-क्या कमियां थीं- इन बातों का विश्लेषण इस वक्त गैर-जरूरी है। बाद की स्थिति में मधु जी का स्वास्थ्य बिगड़ गया। फिर भी घर के अंदर रहकर वे जितना काम कर लेते थे, इससे अपेक्षा बनती थी कि अपने लेखों, वक्तव्यों और साक्षात्कारों द्वारा भी वे समाजवादी धारा के मार्गदर्शक हो सकते थे। समाजवाद के वर्तमान और भविष्य के बारे में उन्होंने कुछ नहीं लिखा- यह बहुत बड़ा अभाव रह गया।
1990 के बाद यह बात ज्यादा चुभने लगी। 1990 के बाद से विश्वव्यापी साम्राज्यवाद का हमला तीव्र होता गया और भारत की आर्थिक गुलामी की स्थिति स्पष्ट हो गई। इसका मुकाबला वही कर सकता है जिसके विचार राष्ट्रवादी भी हों और समाजवादी भी। मधु लिमये को दोनों धाराओं की प्रतिष्ठा मिली हुई थी। उनका राष्ट्रवाद कभी-कभी स्वायत्ततावादियों को खटकता था; कारण एक अखंड और आदर्श राष्ट्र की कल्पना उनमें इतनी मजबूत थी कि अमर्यादित स्वायत्तता की माँगें उनको अच्छी नहीं लगती थीं। लेकिन आर्थिक गुलामी के खिलाफ उनका कोई स्पष्ट वक्तव्य नहीं होना अंत तक एक विचित्र विरोधाभास बना रहा। हम उस कमी को इस तरह समझते थे,“शायद मधु जी अत्यधिक व्यावहारिकतावादी (प्रागमेटिस्ट) हो रहे हैं। वे समझ रहे हैं कि आर्थिक गुलामी के खिलाफ लड़ने लायक छोटी ताकत भी देश में नहीं है…इसलिए इसको छेड़ें क्यों।”
यह उत्तर संतोषप्रद नहीं होता है। कुछ लोग कितना विरोध कर रहे हैं जिनको मधु लिमये जैसी हस्ती का प्रोत्साहन जरूरी है, उनका सहारा मधु जी को बनना चाहिए था। हमारे समूह से उनका संपर्क कम था। लेकिन जॉर्ज फर्नांडीस उनके काफी करीब थे और संसद में नई अर्थनीति के सबसे मुखर आलोचक थे। अपने कुछ लेखों के द्वारा मधु जी ने जॉर्ज फर्नांडीस को भी हतोत्साहित किया। फिर कि नई आर्थिक नीति अच्छी चीज है और देश का भविष्य सुरक्षित है। यह क्या था; कौशलपूर्ण तटस्थता या विचार की कमी?
हम सोचते रहे कि इतने बड़े सवाल पर मधु लिमये ज्यादा दिन अस्पष्ट नहीं रह सकेंगे। उनको हमारे पक्ष में बोलना पड़ेगा। मृत्यु के कुछ माह पहले ‘सर्वोदय प्रेस सर्विस’ ने उनका एक लेख प्रसारित किया। बड़े धनी राष्ट्रों की दुरंगी नीतियों की आलोचना उसमें की गई थी। लेख पढ़कर मेरी आशा बढ़ी। मेरी आशा इतनी अधिक हो गई कि बाद में उनका एक लेख पढ़कर मैंने गलत अर्थ लगा लिया। मेनस्ट्रीम में पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार की औद्योगिक नीति के संबंध में मधु लिमये का एक लेख छपा था। उसमें मार्क्सवादी नेतृत्व की तीखी आलोचना थी- इससे मुझे गलतफहमी हुई और मैंने समझा कि औद्योगिक नीति की आलोचना की गई है। बाद में एक मित्र ने कहा कि मधु जी ने ज्योति बसु की औद्योगिक नीति की सराहना की है। तो मैंने दुबारा उस लेख को निकालकर पढ़ा तो निराश हुआ। मेरी तीव्र इच्छा और इस लेख की व्यंग्यात्मक शैली के कारण मैंने गलत अर्थ लगा लिया था। यह एक सबूत है कि मेरी पीढ़ी के समाजवादियों की मधु लिमये पर कितनी निर्भरता थी।