नरेंद्रदेवजी की शिक्षा-पद्धति और गांधीजी की शिक्षा-पद्धति में अंतर मुख्यतया भारतीय समाज की भावी रचना की भिन्नता से उत्पन्न है। गांधीजी के समाज का चित्र ग्रामस्वराज और कुटीर उद्योगों से बनता है। उनकी समझ में यूरोप का औद्योगिक समाज मानवता के लिए शाप है। गांधीजी ने प्रतिपादित किया कि उत्पादन क्रिया के माध्यम से ज्ञान की उपलब्धि अधिक सार्थक और अपेक्षतया कम समय में होती है। उनकी पद्धति में इस कार्य के लिए मुख्यतया उत्पादन क्रिया ही सार्थक क्रिया है और संबंधित क्रियाओं और वस्तुओं को ज्ञान का वाहक बनाया जाता है। यह काम एक वस्तु से दूसरी वस्तु का और वस्तु से ज्ञान का सहसंबंध स्थापित करके किया जाता है। दूसरे, गांधीजी विद्यार्थियों के उत्पादक श्रम द्वारा शिक्षा को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के पक्ष में हैं। ग्राम उनके स्वराज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई और कृषि तथा ग्रामोद्योग शिक्षा की सबसे महत्वपूर्ण सामग्री है।
नरेंद्रदेवजी के भावी समाज का चित्र गांधीजी के चित्र से भिन्न है। वह भावी भारत को मुख्यतया एक औद्योगिक समाज के रूप में देखते हैं और स्वराज में शासनें की केंद्रीय तथा प्रादेशिक इकाइयों को महत्वपूर्ण स्थान देते हैं। ग्राम-समाज शासन की एक इकाई है, जिसका महत्व कई कारणों से घट रहा है। अतः उन्होंने स्वतंत्र भारत की शिक्षा को औद्योगिक समाज की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाने की कोशिश की। उन्होंने गांधीजी की बेसिक शिक्षा से उद्योग और कृषि को कला एवं शिल्प के रूप में ग्रहण किया, जिसमें आवश्यकतानुसार ग्राम उद्योग और कृषि का भी समावेश है।
यह विचार रवींद्रनाथ ठाकुर की रचनात्मक क्रिया के विचार के अधिक निकट है। नरेंद्रदेवजी ने यह स्वीकार किया कि क्रिया और प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित शिक्षा में ज्ञान का वाहन अधिक तीव्रता से और अधिक सार्थकता से होता है। पर साथ ही यह माना कि यह विधि व्यावहारिक नहीं है, विशेषकर जबकि शिक्षा का प्रसार तीव्र गति से और व्यापक रूप से करना है। उनका यह भी मत है कि सब प्रकार का ज्ञान रचनात्मक क्रियाओं के माध्यम से प्रेषित नहीं किया जा सकता। आचार्यजी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर शिक्षा को भी अव्यावहारिक मानते हैं। उत्तर प्रदेश में 1938 में प्राथमिक शिक्षा और माध्यमिक शिक्षा के सुधार के लिए जो समितियां बनी थीं उनकी संयुक्त समिति के और माध्यमिक शिक्षा समिति के अध्यक्ष नरेंद्रदेवजी थे।
अतः उत्तर प्रदेश में बुनियादी शिक्षा को कुछ सुधार के साथ स्वीकार किया गया था। इसके साथ ही नरेंद्रदेव की दृष्टि स्वतंत्र भारत के भावी प्रशासन को चलाने वाले प्रशासकों की ओर कुछ अधिक थी। इसके अतिरिक्त औद्योगिक समाज के लिए अनेक प्रकार के वैज्ञानिकों, प्रबंधकों और तकनीकविदों की आवश्यकता को उन्होंने ध्यान में रखा। उनके सामने यह स्पष्ट था कि इन विशेषज्ञों की उत्तरोत्तर अधिक संख्या की आवश्यकता स्वतंत्र भारत को होगी, जिसे भारत के पूंजीपति वर्ग की शक्ति और सुविधा के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। इस शिक्षा-प्रणाली में राज्य की महत्वपूर्ण और केंद्रीय भूमिका है। गांधीजी शिक्षा में राज्य की भूमिका को समन्वयात्मक प्रयासों तक सीमित रखने के पक्ष में हैं। वह नीचे से लेकर उच्चतम स्तर तक की शिक्षा को सरकार के नियंत्रण से मुक्त रखने के पक्षधर हैं।
उच्चस्तरीय शिक्षा के भाषाई माध्यम के बारे में भी गांधीजी और नरेंद्रदेवजी के मत अलग अलग हैं। नरेंद्रदेवजी विश्वविद्यालयी शिक्षा का माध्यम हिंदी को बनाने के पक्ष में हैं। इसके विपरीत गांधीजी और रवींद्रनाथजी ठाकुर मातृभाषा को ही आरंभ से अंत तक शिक्षा का उपयुक्त माध्यम मानते हैं। एक दूसरा अंतर शिक्षा में धर्म के स्थान को लेकर है। गांधीजी विभिन्न धर्मों में समन्वय के पक्षधर हैं और शिक्षां-प्रणाली में धर्म की शिक्षा के विरोधी नहीं हैं। तो भी, उनकी धार्मिक शिक्षां का मुख्य अर्थ है सभी धर्मों में निहित सदाचरण और नैतिकता की सामान्य शिक्षा।
नरेंद्रदेवजी धर्मों का आधार लिए बिना नैतिकता और सदाचरण की शिक्षा के समर्थक हैं। स्थापित धर्मों-संप्रदायों को वह मध्ययुगीन तथा वर्गीय मूल्यों और अंधविश्वासों से युक्त समझते हैं। नरेंद्रदेवजी की नैतिकता का आधार समाज और सेकुलरवाद में है। उनकी इस बारे में समझ यह है कि विभिन्न धर्मों में समन्वय संभव नहीं है, वह एक-दूसरे के प्रतियोगी हैं और परस्पर विरोधी विश्वासों एवं अंधविश्वासों वाले हैं जिनका निराकरण संभव नहीं है।
नरेंद्रदेवजी की शिक्षा-योजना में नागरिकता और लोकतंत्र की शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। वह लोकतंत्र की दलीय और संसदीय प्रणाली को स्वीकार करते हैं और लोकतंत्र को जीवन-प्रणाली के रूप में देखते हैं। अतः इसके लिए उपयुक्त शिक्षण का प्रावधान करते हैं। गांधीजी संसदीय तथा दलीय प्रणाली के आलोचक और निंदक हैं। वह सदाचार और नैतिकता की शिक्षा में नागरिकता की शिक्षा को समाविष्ट मानकर चलते हैं। उन्हें मुख्यतया ग्राम-रचना के कर्मियों की आवश्यकता है। वहीं से उच्च कक्षा के कर्मी एवं तकनीकज्ञ अनुभव तथा परवर्ती प्रशिक्षण के बाद मिलते जाएंगे। उनकी योजना में उद्योगों की पूर्ति के लिए विविध प्रकार के विज्ञानों और इंजीनियरिंग आदि की शिक्षा का भार उद्योगपति वर्ग का दायित्व है।
दोनों शिक्षाविदों की शिक्षा-प्रणालियों में समानता के अनेक बिंदु हैं। दोनों की शिक्षा का मुख्य मुद्दा यह है कि कर्तव्यशील और समाजोन्मुख नागरिक कैसे तैयार किए जाएं? सत्य और अहिंसा का गांधीजी का संदेश मानव-मात्र के लिए है। वह विश्वव्यापी बंधुता और नागरिकता में आस्था रखते हैं। नरेंद्रदेवजी भी विश्वबंधुता के पोषक और समर्थक हैं। वह उग्र राष्ट्रवाद के विरोधी हैं, और राष्ट्रीय भावना को अंतर्राष्ट्रीय भावना से मर्यादित करते हैं। अतः गांधीजी, नरेंद्रदेवजी और रवींद्रनाथजी सभी समान रूप से शिक्षा के माध्यम से विश्वबंधुत्व की भावना को पुष्ट करने के पक्ष में है। नरेंद्रदेवजी ने राष्ट्रीय भावना के प्रसंग में विश्वबंधुत्व के इस तत्व को उजागर किया है। वह कहते हैं, “हमें राजनीतिक स्वतंत्रता बहुत देर में ऐसे युग में मिली है जबकि राष्ट्रीय भावना जनतांत्रिक समाजवाद के द्वारा पराभूत हो चुकी है। एक अर्थ में यह अच्छा है, क्योंकि इससे राष्ट्रीयता की अति नहीं हो सकती।”1
गांधीजी और रवींद्रनाथजी ठाकुर में एक मतभेद उद्योग को शिक्षा का साधन बनाने को लेकर है। रवींद्र बाबू शिक्षा को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की कल्पना नहीं करते। वह कला को अपनी शिक्षा में विशेष स्थान देते हैं। उनकी दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को अपने परिवेश से और समस्त विश्व से सुसंगति तथा समरसता स्थापित करने में मदद करना है। वह प्रकृति को ज्ञान का अकूत भंडार मानकर चलते हैं। गांधीजी भी मनुष्य को प्रकृति के निकट रखने के पक्षधर हैं, और भारतीय संस्कृति का हृदय वन्य संस्कृति में मानते हैं।
नरेंद्रदेवजी की शिक्षागत दृष्टि की एक स्पष्ट झलक उनके उस वक्तव्य में मिलती है जो उन्होंने मार्च 1949 में दिया था और जो उनके समाजवादी पार्टी के गया सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण का अंग है। वह कहते हैं :
“शिक्षा के महत्व को समझना होगा, क्योंकि शिक्षा के माध्यम से ही राष्ट्र के तरुणों में प्रजातांत्रिक तरीकों की आदतें डाली जा सकती हैं। देश के उन तरुणों को जो ध्वंसात्मक सिद्धांतों के विषैले प्रभाव में आ गए हैं, पुनः शिक्षण द्वारा इसके दुष्परिणामों से बचाना है और इसके लिए हमारे शिक्षा केंद्रों में जनतांत्रिक विचारों एवं भावों का वातावरण तैयार करना है। इस नए कार्य में देश के विश्वविद्यालय प्रमुख भाग ले सकते हैं। इन विश्वविद्यालयों को सृजनात्मक विचारों का केंद्र स्थल बन जाना है।
यहां अध्येताओं को अपने अध्यापकों के निकट संपर्क में आने और निरंतर विचारों का आदान-प्रदान करने का अवसर मिले। इसी कारण शिक्षण संस्थाओं को देश के जीवन से अलग नहीं रहना चाहिए और इसे मान लेने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि गौरवदायी पार्थक्य की नीति निश्चित रूप में हानिकारक है। वर्तमान समस्याओं पर तर्क-वितर्क करने को प्रोत्साहन मिलना चाहिए और अध्यापकों को देश के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में भाग लेने का अधिकार मिलना चाहिए। विश्वविद्यालयों को बढ़ते हुए अधिनायकवाद और उसी तरह के सिद्धांतों
के कुप्रभावों से मोर्चा लेने में प्रमुख भाग लेना चाहिए। लोकतंत्र को पुष्ट करना और नवयुवकों को अपनी आजीविका के लिए ही नहीं बल्कि नागरिकता के दायित्वों का पालन करने के लिए भी तैयार करना इन विश्वविद्यालयों का दायित्व है। वह अपने विद्यार्थियों को स्पष्ट और साहसपूर्ण चिंतन करना और सत्य को स्वीकार करना सिखाएं, चाहे सत्य प्रिय लगे या अप्रिय। शिक्षा एक सतत प्रवाह है। इसलिए समय समय पर मन का परिष्कार आवश्यक है, जिससे चित्त उस सामाजिक चेतना के गुण से वंचित न हो जाए जिसकी मानंव-विकास के लिए अत्यंत आवश्यकता है।
पाठ्यक्रमों में विज्ञान और मानविकी दोनों प्रकार के विषयों का समावेश होना चाहिए। यह प्रयास किया जाना चाहिए कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ देश के युवकों के हृदय में सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों का महत्व उजागर हो जाए। हमें यह याद रखना है कि विज्ञान के विकास और सामाजिक समस्याओं पर उसके प्रयोग से ही संस्कृति का समाजीकरण तथा दरिद्रता का निवारण संभव हुआ है।
प्राचीन समाज में, जबकि समाज के आर्थिक ढांचे को मूलतया परिवर्तित करना संभव न था, दयालुजन, जो दरिद्रों और दलितों की दशा पर द्रवित होते थे, धनीमानी व्यक्तियों को उनके प्रति उदारता बरतने का उपदेश ही दे सकते थे। यह विज्ञान ही है जिसने हमारे लिए उन नवीन मूल्यों को प्रस्तुत किया है, जिनके सहारे हम सामाजिक न्याय एवं समता प्राप्त कर सकते हैं। समाजवाद निश्चय ही एक स्वप्न मात्र रह जाता और एक विश्वव्यापी आंदोलन का वर्तमान स्वरूप कभी न प्राप्त करता, यदि विज्ञान और तकनीकी विद्या ने बहुलता का युग न ला दिया होता। किंतु वैज्ञानिक दृष्टिकोण को मानव मूल्यों में आस्था रखकर ही आगे बढ़ना है, जिससे निकृष्ट प्रयोजनों की सिद्धि के लिए विज्ञान का दुरुपयोग न हो। वैज्ञानिक ज्ञान को सभ्यता के विकास तथा कल्याणकर उद्देश्यों की पूर्ति के निमित्त समाज की सेवा में अर्पित होना होगा।