— परिचय दास —
।। आज के भारत की चेतना, गरिमा और संकल्प को शब्द देने की कोशिश — ऑपरेशन सिन्दूर पर यह समकालीन दृष्टिकोण।।
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे।।
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥
— ‘ श्रीरामचरित मानस’ की यह पंक्तियाँ उस गहन नैतिक चेतना की अभिव्यक्ति हैं, जहाँ प्रतिशोध नहीं, कर्तव्य प्रमुख होता है। भारत द्वारा किए गए ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ की मूल आत्मा भी यही है।
ऑपरेशन सिन्दूर बिना पाक में प्रविष्ट हुए केवल एक सैन्य कार्रवाई नहीं बल्कि एक नैतिक, कूटनीतिक और सामरिक उत्तरदायित्व की पूर्ति है। यह उन सुरक्षा बलों और निर्दोष नागरिकों की स्मृति में की गई कार्रवाही है, जिनके रक्त से भारत की धरती रँगी गई। यह प्रतिशोध नहीं, प्रतिरक्षा थी — ठीक वैसे ही जैसे श्रीराम ने रावण को मारा पर युद्ध का कारण ‘सीता की रक्षा’ और ‘न्याय की स्थापना’ था।
ऑपरेशन सिन्दूर ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत अब केवल निंदा और विरोध के स्तर पर सीमित नहीं रहेगा। यह आत्मरक्षा की संप्रभुता का प्रयोग था, जिसमें आतंक को जन्म देने वाली धरती पर जाकर आतंक के केन्द्रों को निशाना बनाया गया। इसने यह सिद्ध किया कि शांति की आकांक्षा केवल तब तक है जब तक मर्यादा सुरक्षित है।
यह ऑपरेशन भारत की आधुनिक सैन्य शक्ति, इंटेलिजेंस नेटवर्क और तकनीकी निर्भरताओं की सफलता का प्रतीक है। बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के, भारत ने यह स्पष्ट किया कि वह अब ग्लोबल पॉलिटिक्स का समीपवर्ती नहीं, निर्णायक भागीदार है।
जिस समय राष्ट्र में विभाजनों, आशंकाओं और अस्थिरताओं का कुहासा था, ऑपरेशन सिन्दूर ने भारतवासियों को एक साझा गौरवबोध दिया। यह वह क्षण था जब जाति, भाषा, धर्म, मत, क्षेत्र सब पीछे छूट गए और एक राष्ट्रभाव सबसे आगे आया।
यह कार्रवाई केवल सीमा पार एक सैन्य प्रयास नहीं था बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय संदेश था—कि भारत अब पीड़ित की भूमिका से बाहर निकलकर नीति-निर्धारक की भूमिका निभाने को तत्पर है। संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भारत की आवाज़ अब औपचारिक नहीं, प्रभावशाली बन रही है।
ऑपरेशन सिन्दूर के पीछे केवल सरकार नहीं, पूरा देश खड़ा था। विपक्ष और सत्ता, दोनों ने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा। यह भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता का
परिचायक है—जहाँ ‘राष्ट्र’ किसी पार्टी से बड़ा होता है।
‘सिन्दूर’ केवल एक अभियान का नाम नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक प्रतीक भी था—स्त्री की मर्यादा, अस्मिता और जीवन के प्रति प्रतिबद्धता का। ऑपरेशन सिन्दूर ने एक तरह से भारतमाता के मस्तक से मिटाने की कोशिश को पुनः रंग दिया—लाल, तेजस्वी और साहसी।
ऑपरेशन सिन्दूर की सकारात्मकता केवल इसकी सफल सैन्य रणनीति में नहीं, बल्कि उसके पीछे की वैचारिक स्पष्टता और मानवीय दृष्टिकोण में है। यह अभियान प्रतिशोध से प्रेरित नहीं था, बल्कि रक्षण की धर्मनीति से उत्पन्न हुआ था। यह केवल सीमा पार के ठिकानों का विध्वंस नहीं, बल्कि विचार की उस लय का पुनर्निमाण था, जो कहती है—
“सहनशीलता हमारी ताक़त है
किंतु चुप रहना अब हमारी नीति नहीं।”
अन्त में अपने प्रिय कवि विजयदेव नारायण साही की कविता की पंक्तियों का यह अंश –
थोड़ी देर के लिए लगता है
कि अँधेरा एक फैला हुआ सुनसान है
जिसमें एक निर्विकार ठहराव
उगी हुई लौ की तरह
ऊपर उठ रहा है
फिर कोई और…
फिर कोई और…