लक्ष्मीकांत वर्मा के साहित्य में समय के संकटों की पहचान हो जाती है!

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Parichay Das

— परिचय दास —

हिन्दी के ‘परिमल’ ( जिसका केंद्र इलाहाबाद था ) साहित्यिक- सांस्कृतिक आन्दोलन के व्यक्तित्वों पर समय-समय पर कुछ-कुछ अंतराल पर लिखूंगा।

।। एक ।।

लक्ष्मीकांत वर्मा का साहित्य हिंदी के उस सहज सौंदर्य का प्रतिनिधित्व करता है जो अपने भीतर भारतीय संस्कृति की गहराई, आत्मा की उजास और रचनाशील मन की तपस्विता को समेटे हुए है। वे एक साथ कवि, गद्यकार और आलोचक हैं, लेकिन उनकी विशेषता है कि ये तीनों प्रवृत्तियाँ उनके व्यक्तित्व में एक-दूसरे से अलग नहीं बल्कि परस्पर गुंथी हुई हैं। उनका लेखन एक गम्भीर अनुभूति की उपज है—संयत, कलाभिमुख और विचारोन्मुख।

कविता में लक्ष्मीकांत वर्मा की उपस्थिति एक सजग काव्य-द्रष्टा की है। उनकी काव्य-यात्रा परंपरा से चलती हुई आधुनिकता तक आती है लेकिन वह किसी एक वाद या समयबोध में सीमित नहीं रहती। उनकी कविताएँ भाषा में एक अद्भुत विनय और भावों में संतुलन की साधना करती हैं। न तो वे अधिक आत्मालापी हैं, न ही अति-बाह्य-प्रचारक। उनकी पंक्तियाँ जैसे आत्मा की चुप्पियों में धीरे-धीरे खुलती हैं। प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से वे ऐसे समय-संदेश रचते हैं जो व्यक्तिगत और सार्वकालिक—दोनों स्तरों पर स्पर्श करते हैं। उनकी काव्य-कृतियाँ केवल शब्दों की रचना नहीं हैं, वे सांस्कृतिक चेतना की रचनात्मक अभिव्यक्ति हैं। उनके यहां अतीत कभी रूढ़ नहीं बनता, वह भविष्य की एक मूक भाषा में वर्तमान से संवाद करता है।

लक्ष्मीकांत वर्मा की गद्य-रचना में भी एक प्रकार की काव्यात्मता है। उनका निबंधकार मन सौंदर्य और विवेक के बीच संतुलन साधता है। वे विचारों के जटिल संसार को आसान भाषा में इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि पाठक को लगता है, वह एक सौम्य वार्तालाप में शामिल है। वे विषय को स्पर्श करके उसे खोलते हैं, कभी विवेचनात्मक तो कभी आत्मपरक स्वर में। उनका गद्य अत्यंत विनम्र है, लेकिन भीतर से दृढ़ और सूक्ष्म संवेदना से भरा हुआ। उनकी भाषा में कहीं कोई अधीरता नहीं, कोई दिखावटी बौद्धिकता नहीं—बल्कि एक प्रकार की सांस्कृतिक आत्मगौरव की सूझ और नमी है, जो अपने पाठकों को जोड़ती है, जोड़कर सोचने पर बाध्य करती है।

समालोचना में लक्ष्मीकांत वर्मा की शैली एक अनूठी पहचान रखती है। वे मौलिक-दृष्टि सम्पन्न हैं। नयी कविता के वे प्रतिमान गढ़ते हैं। वे आलोचक होकर भी कठोरता से बचते हैं। उनका विश्लेषण किसी को तोड़ता नहीं बल्कि खोलता है और पाठक को भीतर तक प्रभावित करता है। वे जिस कवि या कृति पर लिखते हैं, उसके भीतर उतरते हैं, जैसे वह स्वयं उस चेतना में शामिल हों। आलोचना उनके लिए केवल मापने-तौलने का उपकरण नहीं है, वह काव्य-संसार के साथ संवाद की एक ललित भाषा है। वे अपने आलोचनात्मक लेखों में भाषा, संवेदना, प्रतीक और काव्य-यात्रा की अंतर्ध्वनियों को समझते हैं और उन्हें इस तरह व्यक्त करते हैं जैसे वे किसी रचना को फिर से जी रहे हों। उनके लेखन में आलोचना एक करुणा-पूर्ण दृष्टि बन जाती है, जहाँ विचार का ताप और संवेदना की कोमलता साथ-साथ बहती है।

लक्ष्मीकांत वर्मा के साहित्य में समय के संकटों की भी पहचान है और आत्मा के अवकाशों की भी। वे न तो केवल भूतकाल में जीते हैं, न ही केवल समकालीन मुद्रा में टिके रहते हैं। उनका रचना-संसार उन मूल प्रश्नों की खोज करता है जो मनुष्य को उसके अस्तित्व के स्तर पर चुनौती देते हैं—प्रेम, मृत्यु, संस्कृति, भाषा, और धर्म जैसे विषय उनके लिए केवल विमर्श नहीं, अनुभव के दायरे हैं। उनकी रचनाओं में शिल्प की लय, भावों की तन्मयता और दृष्टि की पारदर्शिता अद्भुत संतुलन में मिलती है।

लक्ष्मीकांत वर्मा की साहित्यिक उपस्थिति एक सांस्कृतिक व्यक्तित्व की उपस्थिति है—एक ऐसा व्यक्ति जो साहित्य को केवल भाषा का व्यापार नहीं मानता बल्कि उसे जीवन की एक सूक्ष्म साधना के रूप में जीता है। वे जहां भी लिखते हैं, अपने पाठकों को भीतर की यात्रा पर आमंत्रित करते हैं। उनकी रचनाएँ किसी घोषणापत्र की तरह नहीं बल्कि किसी मंदिर की घंटियों की तरह हैं—धीरे-धीरे, गूंजती हुई, और आत्मा को छूती हुई।

।। दो।।

लक्ष्मीकांत वर्मा के साहित्य में समय और संवेदना, संस्कृति और चेतना, भाषा और अनुभूति—इन सबका एक रचनात्मक समन्वय दिखाई देता है। वे आधुनिकता के भीतर पारंपरिकता की दीपशिखा जलाते हैं, और परंपरा के भीतर आधुनिक चेतना की सघन छाया रखते हैं। उनका साहित्य दो छोरों के बीच पुल की तरह है—एक ओर अतीत का गौरव है, दूसरी ओर वर्तमान की विडंबनाएँ। वे जहाँ खड़े होते हैं, वहाँ केवल लेखनी नहीं चलती, वहाँ एक युग बोलता है, एक आत्मा धीरे-धीरे गूंजती है।

काव्य की भूमि पर वर्मा का प्रवेश किसी उद्घोषणा की तरह नहीं, किसी नदी की तरह होता है। उनकी कविता में कोई विस्फोट नहीं, कोई कोलाहल नहीं; वहाँ प्रवाह है, तरलता है, निःशब्द वेदना है और सौंदर्य का अविचल आलोक है। वे प्रतीकों से संवाद करते हैं, मिथकों को पुनः अर्थ देते हैं, और भाषा के भीतर छिपे हुए राग को धीरे-धीरे बाहर लाते हैं। इसलिए उनमें केवल कवि नहीं दिखता, एक दार्शनिक, एक सांस्कृतिक व्यक्तित्व दिखाई देता है जो शब्दों के माध्यम से काल की अनुगूंजों को पकड़ने की चेष्टा करता है।

उनकी कविताएँ किसी सिद्धांत की घोषणा नहीं करतीं, वे मनुष्य के अभ्यंतर की परिक्रमा करती हैं। वे दुःख को छिपाती नहीं, उसे आलोकित करती हैं। मृत्यु उनके यहाँ केवल अंत नहीं है, वह प्रतीक्षा भी है, शून्यता नहीं—संभावना है। उनकी कविता में आकाश और पृथ्वी की दूरी जितनी है, उतनी ही निकटता भी है। वे जहां एक पंक्ति में इतिहास को पकड़ लेते हैं, वहीं दूसरी पंक्ति में मनुष्य के अकेलेपन को चुपचाप छू जाते हैं। उनकी कविता आत्मा की भाषा में लिखी गई स्मृति है।

कई बार गद्य में लक्ष्मीकांत वर्मा का मन जैसे एक मृदुल दर्शक बन जाता है। वे आलोचक नहीं लगते, वे रचनाकारों के साथ सहयात्री की तरह चलते हैं। वे किसी काव्य या साहित्य को नापते-तौलते नहीं, उसे समझते हैं, उसकी तहों में उतरते हैं। उन्होंने जब किसी कवि पर लिखा तो उस कवि के आंतरिक स्वरूप को इस तरह व्यक्त किया मानो वह उनकी आत्मकथा का हिस्सा हो। उनकी समालोचना में आलोचना का शिल्प सौंदर्यबोध के साथ जुड़ता है और विचार की ऊष्मा अनुभव की नमी में घुल जाती है।

उनके निबंधों में विचारों का प्रवाह किसी काव्य-संगीत की भाँति होता है। वे विद्वत्ता को बौद्धिक प्रदर्शन नहीं बनने देते; वहाँ एक विनम्र भाषा है जो पाठक को आमंत्रण देती है कि वह साथ चले, साथ सुने, साथ देखे। उनकी दृष्टि में साहित्य केवल मनोरंजन या विमर्श नहीं, वह संस्कार और संस्कृति का सन्निपात है। उन्होंने लेखन को रचना और साधना का मिलाजुला रूप माना।

समालोचक के रूप में लक्ष्मीकांत वर्मा की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि उन्होंने साहित्य को केवल उसके बाहरी रूप में नहीं देखा। वे उसमें छिपे हुए अर्थ-सूत्रों को ढूँढ़ते रहे—उन प्रतीकों को, जिनमें समय का मौन जमा होता है; उन लयों को, जो शब्दों की नहीं, अनुभूतियों की होती हैं। वे तुलनात्मक दृष्टि रखते हैं लेकिन किसी भी लेखक या युग को किसी ढांचे में नहीं कैद करते।

संस्कृति और इतिहास का उनके साहित्य में गहरा रस है। वे केवल समकालीनता के पर्यवेक्षक नहीं, संस्कारों के सेतुबंधक भी हैं। उनका मन रामायण, महाभारत, वेद, उपनिषद से संवाद करता है, पर वह संवाद बोझिल नहीं होता—वह आंतरिक और सौम्य होता है। वे बिम्बों और लयों से जीवन को देखना चाहते हैं।

उनके उन निबंध और समालोचनात्मक लेख हिंदी कविता के सौंदर्यशास्त्र, भारतीय परंपरा, कवि के धर्म, और संवेदना के विवेक से जुड़े हैं। उनकी शैली सौम्य रचनात्मक है और आलोचनात्मक भी—एक ऐसी भाषा में जो एक साथ नदी की तरह बहती है और दीप की तरह जलती है।लक्ष्मीकांत वर्मा की समालोचना उनके कवि-मन की ही लहर है और उनका कवि-मन उनकी संस्कृति का मौन उत्सव है।

।। तीन।।

“नयी कविता के प्रतिमान” लक्ष्मीकांत वर्मा की एक महत्त्वपूर्ण समालोचना-पुस्तक है जो हिन्दी की नयी कविता पर एक विचारशील, सौंदर्यपरक और वैचारिक आलोचनात्मक दृष्टि प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक में वे केवल नयी कविता की विशेषताओं को नहीं रेखांकित करते बल्कि उसके भीतर के उन मूलभूत परिवर्तनशील बिंदुओं की भी तलाश करते हैं जिनके कारण यह कविता एक अलग स्वर और संवेदना के साथ हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठित हुई।

लक्ष्मीकांत वर्मा ने इस पुस्तक में नयी कविता को किसी घोषित आन्दोलन या पर्चा-निर्मित मुहिम की तरह नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक-अनुभूतिजन्य रचना-प्रवृत्ति के रूप में समझा है। वे नयी कविता को सामाजिक विस्थापन, आत्मबोध, शहरी अकेलेपन, अस्तित्व की पीड़ा और भाषा की शुद्धता की चेतना से उपजा एक नया प्रतिमान मानते हैं। इस चेतना में वे स्वयं एक संवेदनशील कवि की तरह प्रविष्ट होते हैं और आलोचक की भूमिका से अधिक अन्वेषक और आत्मीय सहचर की भूमिका निभाते हैं।

कुछ उल्लेखनीय विशेषताएँ इस पुस्तक की—

1. प्रतिमानों की स्थापना का विवेक – लक्ष्मीकांत वर्मा आलोचना में प्रतिमान को स्थूल या निर्णायक न मानकर गतिशील और सौंदर्यपरक ढाँचा मानते हैं। वे नयी कविता के अनेक कवियों की भिन्न शैलियों, स्वरूपों और संवेदनाओं को एक ही माप से नहीं नापते।

2. कविता और समय का संबंध – वे यह मानते हैं कि नयी कविता केवल कवि की व्यक्तिगत अनुभूति नहीं, बल्कि अपने समय की दार्शनिक और सांस्कृतिक प्रतिक्रिया भी है। इसमें भारतीयता की नई व्याख्या, आधुनिकता के भीतर का अकेलापन और भाषा की नयी खोज सम्मिलित है।

3. प्रमुख कवियों पर विचार – इस पुस्तक में अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह, धूमिल आदि कवियों के काव्य-संसार पर अत्यंत गंभीर, तरल और ललित आलोचना प्रस्तुत की गई है। वर्मा की यह विशेषता है कि वे प्रत्येक कवि की निजता को पहचानते हैं और उसके भीतर छिपे सौंदर्यबोध को उजागर करते हैं।

4. भाषा और संरचना – नयी कविता में आए भाषा-संस्कार, बिम्बविधान, लय, और संरचनात्मक बदलावों को लक्ष्मीकांत वर्मा कविता के सौंदर्यशास्त्र और उसकी आत्मा के स्तर पर समझते हैं, न कि केवल शिल्प के स्तर पर।

5. एक आलोचक का सौंदर्यशील विवेक – इस पुस्तक की भाषा सर्जनात्मक आलोचना की भाषा है—वहाँ न तो सूचना की रूखीता है, न ही वाक्य-विन्यास का बौद्धिक प्रदर्शन। बल्कि वहाँ शब्दों के भीतर से कविता की खुशबू आती है। आलोचक यहाँ उपदेशक नहीं, रचना के भीतर उतरने वाला सहयात्री है।

“नयी कविता के प्रतिमान” केवल आलोचना की पुस्तक नहीं, बल्कि एक ऐसा सृजनात्मक गद्य है, जो नयी कविता के भाव-प्रसंगों को तत्त्वचिंतन और काव्यबोध की सुंदर संगति में प्रस्तुत करता है। यह पुस्तक लक्ष्मीकांत वर्मा के उस रूप का परिचायक है, जहाँ वे एक सर्जक-आलोचक के रूप में अपनी सबसे प्रखर छवि प्रस्तुत करते हैं।

।। चार ।।

लक्ष्मीकांत वर्मा के साहित्य में समय और संवेदना, संस्कृति और चेतना, भाषा और अनुभूति—इन सबका एक रचनात्मक समन्वय दिखाई देता है। वे आधुनिकता के भीतर पारंपरिकता की दीपशिखा जलाते हैं और परंपरा के भीतर आधुनिक चेतना की सघन छाया रखते हैं। उनका साहित्य दो छोरों के बीच पुल की तरह है—एक ओर अतीत का गौरव है, दूसरी ओर वर्तमान की विडंबनाएँ। वे जहाँ खड़े होते हैं, वहाँ केवल लेखनी नहीं चलती, वहाँ एक युग बोलता है, एक आत्मा धीरे-धीरे गूंजती है।

काव्य की भूमि पर वर्मा का प्रवेश किसी उद् घोषणा की तरह नहीं, किसी नदी की तरह होता है। उनकी कविता में कोई विस्फोट नहीं, कोई कोलाहल नहीं; वहाँ प्रवाह है, तरलता है, निःशब्द वेदना है और सौंदर्य का अविचल आलोक है। वे प्रतीकों से संवाद करते हैं, मिथकों को पुनः अर्थ देते हैं, और भाषा के भीतर छिपे हुए राग को धीरे-धीरे बाहर लाते हैं। इनके काव्य -संग्रहों में केवल कवि नहीं दिखता, एक दार्शनिक, एक बौद्धिक एक सांस्कृतिक व्यक्तित्व दिखाई देता है जो शब्दों के माध्यम से काल की अनुगूंजों को पकड़ने की चेष्टा करता है।

उनकी कविताएँ किसी सिद्धांत की घोषणा नहीं करतीं, वे मनुष्य के अभ्यंतर की परिक्रमा करती हैं। वे दुःख को छिपाती नहीं, उसे आलोकित करती हैं। मृत्यु उनके यहाँ केवल अंत नहीं है, वह प्रतीक्षा भी है, शून्यता नहीं—संभावना है। उनकी कविता में आकाश और पृथ्वी की दूरी जितनी है, उतनी ही निकटता भी है। वे जहां एक पंक्ति में इतिहास को पकड़ लेते हैं, वहीं दूसरी पंक्ति में मनुष्य के अकेलेपन को चुपचाप छू जाते हैं। उनकी कविता आत्मा की भाषा में लिखी गई स्मृति है।

ललित गद्य में लक्ष्मीकांत वर्मा का मन जैसे एक मृदुल दर्शक बन जाता है। वे आलोचक नहीं लगते, वे रचनाकारों के साथ सहयात्री की तरह चलते हैं। वे किसी काव्य या साहित्य को नापते-तौलते नहीं, उसे समझते हैं, उसकी तहों में उतरते हैं। उन्होंने जब किसी कवि पर लिखा, तो उस कवि के आंतरिक स्वरूप को इस तरह व्यक्त किया मानो वह उनकी आत्मकथा का हिस्सा हो। उनकी ललित समालोचना में आलोचना का शिल्प सौंदर्यबोध के साथ जुड़ता है, और विचार की ऊष्मा अनुभव की नमी में घुल जाती है।

उनके निबंधों में विचारों का प्रवाह किसी काव्य-संगीत की भाँति होता है। वे विद्वत्ता को बौद्धिक प्रदर्शन नहीं बनने देते; वहाँ एक विनम्र भाषा है, जो पाठक को आमंत्रण देती है कि वह साथ चले, साथ सुने, साथ देखे। उनकी दृष्टि में साहित्य केवल मनोरंजन या विमर्श नहीं, वह संस्कार और संस्कृति का सन्निपात है। उन्होंने लेखन को रचना और साधना का मिलाजुला रूप माना।

समालोचक के रूप में लक्ष्मीकांत वर्मा की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि उन्होंने साहित्य को केवल उसके बाहरी रूप में नहीं देखा। वे उसमें छिपे हुए अर्थ-सूत्रों को ढूँढ़ते रहे—उन प्रतीकों को, जिनमें समय का मौन जमा होता है; उन लयों को, जो शब्दों की नहीं, अनुभूतियों की होती हैं। वे तुलनात्मक दृष्टि रखते हैं लेकिन किसी भी लेखक या युग को किसी ढांचे में नहीं कैद करते।

संस्कृति और इतिहास का उनके साहित्य में गहरा रस है। वे केवल समकालीनता के पर्यवेक्षक नहीं, संस्कारों के सेतुबंधक भी हैं। उनका मन रामायण, महाभारत, वेद, उपनिषद से संवाद करता है, पर वह संवाद बोझिल नहीं होता—वह आंतरिक और सौम्य होता है। वे बिम्बों और लयों से जीवन को देखना चाहते हैं।

इस खण्ड में उनके उन निबंधों और समालोचनात्मक लेखों को विशेष रूप से केंद्र में लाया जा सकता है, जो हिंदी कविता के सौंदर्यशास्त्र, भारतीय परंपरा, कवि के धर्म और संवेदना के विवेक से जुड़ी हैं। उनकी शैली ललित भी है और आलोचनात्मक भी—एक ऐसी भाषा में जो एक साथ नदी की तरह बहती है और दीप की तरह जलती है।

लक्ष्मीकांत वर्मा की समालोचना उनके कवि-मन की ही लहर है और उनका कवि-मन उनकी संस्कृति का मौन उत्सव है।

।। पाँच।।

“नयी कविता के प्रतिमान” लक्ष्मीकांत वर्मा की एक महत्त्वपूर्ण समालोचना-पुस्तक है, जो हिन्दी की नयी कविता पर एक विचारशील, सौंदर्यपरक और वैचारिक आलोचनात्मक दृष्टि प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक में वे केवल नयी कविता की विशेषताओं को नहीं रेखांकित करते, बल्कि उसके भीतर के उन मूलभूत परिवर्तनशील बिंदुओं की भी तलाश करते हैं जिनके कारण यह कविता एक अलग स्वर और संवेदना के साथ हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठित हुई।

लक्ष्मीकांत वर्मा ने इस पुस्तक में नयी कविता को किसी घोषित आन्दोलन या पर्चा-निर्मित मुहिम की तरह नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक-अनुभूतिजन्य रचना-प्रवृत्ति के रूप में समझा है। वे नयी कविता को सामाजिक विस्थापन, आत्मबोध, शहरी अकेलेपन, अस्तित्व की पीड़ा और भाषा की शुद्धता की चेतना से उपजा एक नया प्रतिमान मानते हैं। इस चेतना में वे स्वयं एक संवेदनशील कवि की तरह प्रविष्ट होते हैं और आलोचक की भूमिका से अधिक अन्वेषक और आत्मीय सहचर की भूमिका निभाते हैं।

कुछ उल्लेखनीय विशेषताएँ इस पुस्तक की—

1. प्रतिमानों की स्थापना का विवेक – लक्ष्मीकांत वर्मा आलोचना में प्रतिमान को स्थूल या निर्णायक न मानकर गतिशील और सौंदर्यपरक ढाँचा मानते हैं। वे नयी कविता के अनेक कवियों की भिन्न शैलियों, स्वरूपों और संवेदनाओं को एक ही माप से नहीं नापते।

2. कविता और समय का संबंध – वे यह मानते हैं कि नयी कविता केवल कवि की व्यक्तिगत अनुभूति नहीं, बल्कि अपने समय की दार्शनिक और सांस्कृतिक प्रतिक्रिया भी है। इसमें भारतीयता की नई व्याख्या, आधुनिकता के भीतर का अकेलापन और भाषा की नयी खोज सम्मिलित है।

3. प्रमुख कवियों पर विचार – इस पुस्तक में अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह, धूमिल आदि कवियों के काव्य-संसार पर अत्यंत गंभीर और तरल आलोचना प्रस्तुत की गई है। वर्मा की यह विशेषता है कि वे प्रत्येक कवि की निजता को पहचानते हैं और उसके भीतर छिपे सौंदर्यबोध को उजागर करते हैं।

4. भाषा और संरचना – नयी कविता में आए भाषा-संस्कार, बिम्बविधान, लय, और संरचनात्मक बदलावों को लक्ष्मीकांत वर्मा कविता के सौंदर्यशास्त्र और उसकी आत्मा के स्तर पर समझते हैं, न कि केवल शिल्प के स्तर पर।

5. एक आलोचक का सौंदर्यशील विवेक – इस पुस्तक की भाषा सर्जनात्मक आलोचना की भाषा है—वहाँ न तो सूचना की रूखीता है, न ही वाक्य-विन्यास का बौद्धिक प्रदर्शन। बल्कि वहाँ शब्दों के भीतर से कविता की खुशबू आती है। आलोचक यहाँ उपदेशक नहीं, रचना के भीतर उतरने वाला सहयात्री है।

“नयी कविता के प्रतिमान” केवल आलोचना की पुस्तक नहीं, बल्कि एक ऐसा सृजनात्मक गद्य है, जो नयी कविता के भाव-प्रसंगों को तत्त्वचिंतन और काव्यबोध की सुंदर संगति में प्रस्तुत करता है। यह पुस्तक लक्ष्मीकांत वर्मा के उस रूप का परिचायक है, जहाँ वे एक सर्जक-आलोचक के रूप में अपनी सबसे प्रखर छवि प्रस्तुत करते हैं।

।। छ: ।।

लक्ष्मीकांत वर्मा की आलोचना पुस्तक नयी कविता के प्रतिमान हिन्दी आलोचना का वह स्थल है जहाँ विचार और रस, विवेक और सौंदर्य, तर्क और संवेदना—एक साथ प्रवाहित होते हैं। यह पुस्तक उस समय लिखी गई जब नयी कविता अपने आलोचनात्मक मूल्यांकन के लिए विकल थी और अधिकांश आलोचक या तो उसे खंडित करके देख रहे थे या फिर आंदोलनों के पूर्वग्रहों में उलझा कर। वर्मा ने इस समूचे काव्य-प्रवृत्तिपथ को एक रचनात्मक आलोचक की निगाह से देखा—जहाँ न कोई पूर्वग्रह है, न प्रचार की रूढ़ियाँ। उनके लिए आलोचना, कविता का पूरक नहीं बल्कि उसकी अंतरात्मा में प्रवेश करने की एक आत्मीय कला है।

लक्ष्मीकांत वर्मा नयी कविता को किसी आन्दोलन की तरह नहीं, एक सांस्कृतिक और आत्मिक उत्तरदायित्व की कविता के रूप में देखते हैं। वे मानते हैं कि नयी कविता में वह मनुष्य उपस्थित है जो एक ओर अतीत के उत्तराधिकार से जूझता है और दूसरी ओर आधुनिकता की पीड़ा, बोध और अकेलेपन को झेलता है। उस मनुष्य के शब्द, उसकी चुप्पियाँ, उसकी आकुलताएँ और उसका मौन सब कविता में रूपांतरित हुए हैं।

इस पुस्तक में वर्मा ने नयी कविता को टुकड़ों में नहीं, समग्र में देखा है। वे मुक्तिबोध को पढ़ते हुए उनकी दार्शनिक बेचैनी को समझते हैं, शमशेर की कविता में रंग और रूप की भाषा को आत्मसात करते हैं, रघुवीर सहाय में व्यंग्य और नैतिक बेचैनी के बिम्बों को पहचानते हैं और केदारनाथ सिंह के शब्दों में मिट्टी की गंध और जल की आवाज़ सुनते हैं। यह केवल आलोचना नहीं, बल्कि आलोचक की एक रचनात्मक उपस्थिति है, जहाँ वह हर कवि के पास चुपचाप बैठता है, उसके भीतर जाता है और फिर एक आत्मीय भाषा में उसे समझाता है।

उनके लिए कविता केवल एक सौंदर्य या विचार नहीं, बल्कि संवेदना और भाषा की वह सृजनात्मक संरचना है, जहाँ जीवन के स्पंदन स्पष्ट होते हैं। इसलिए वर्मा किसी वाक्य को केवल उसके अर्थ से नहीं, उसकी अनुगूंज से परखते हैं। वह अनुगूंज ही कविता की आत्मा है और वही आलोचना की भी।

“नयी कविता के प्रतिमान” के माध्यम से लक्ष्मीकांत वर्मा प्रतिमानों को स्थापन नहीं करते, बल्कि उन्हें खोजते हैं, प्रश्न करते हैं, संशोधित करते हैं। इस प्रक्रिया में आलोचना एक पारदर्शी संवाद बन जाती है। न तो कठोर होती है, न समझौतावादी—बल्कि सर्जनशील। वे नयी कविता की जटिलताओं को सुलझाने का दावा नहीं करते, बल्कि उन्हें समझने की प्रक्रिया में कविता की उदात्तता को पहचानते हैं।

यह पुस्तक उन पाठकों के लिए एक प्रकाशस्तंभ की तरह है जो कविता को केवल पढ़ना नहीं, अनुभव करना चाहते हैं। यहाँ आलोचक कोई अंतिम निर्णय नहीं देता, वह पाठक को साथ ले चलता है—कविता के भीतर, कविता के पार और कविता के आसपास।

।। सात ।।

लक्ष्मीकांत वर्मा की आलोचना पुस्तक नयी कविता के प्रतिमान हिन्दी आलोचना का वह स्थल है जहाँ विचार और रस, विवेक और सौंदर्य, तर्क और संवेदना—एक साथ प्रवाहित होते हैं। यह पुस्तक उस समय लिखी गई जब नयी कविता अपने आलोचनात्मक मूल्यांकन के लिए विकल थी और अधिकांश आलोचक या तो उसे खंडित करके देख रहे थे या फिर आंदोलनों के पूर्वग्रहों में उलझा कर। वर्मा ने इस समूचे काव्य-प्रवृत्तिपथ को एक रचनात्मक आलोचक की निगाह से देखा—जहाँ न कोई पूर्वग्रह है, न प्रचार की रूढ़ियाँ। उनके लिए आलोचना, कविता का पूरक नहीं, बल्कि उसकी अंतरात्मा में प्रवेश करने की एक आत्मीय कला है।

इस पुस्तक में लक्ष्मीकांत वर्मा नयी कविता को किसी आन्दोलन की तरह नहीं, एक सांस्कृतिक और आत्मिक उत्तरदायित्व की कविता के रूप में देखते हैं। वे मानते हैं कि नयी कविता में वह मनुष्य उपस्थित है जो एक ओर अतीत के उत्तराधिकार से जूझता है और दूसरी ओर आधुनिकता की पीड़ा, बोध और अकेलेपन को झेलता है। उस मनुष्य के शब्द, उसकी चुप्पियाँ, उसकी आकुलताएँ और उसका मौन सब कविता में रूपांतरित हुए हैं।

इस पुस्तक में वर्मा ने नयी कविता को टुकड़ों में नहीं, समग्र में देखा है। वे मुक्तिबोध को पढ़ते हुए उनकी दार्शनिक बेचैनी को समझते हैं, शमशेर की कविता में रंग और रूप की भाषा को आत्मसात करते हैं, रघुवीर सहाय में व्यंग्य और नैतिक बेचैनी के बिम्बों को पहचानते हैं और केदारनाथ सिंह के शब्दों में मिट्टी की गंध और जल की आवाज़ सुनते हैं। यह केवल आलोचना नहीं, बल्कि आलोचक की एक रचनात्मक उपस्थिति है, जहाँ वह हर कवि के पास चुपचाप बैठता है, उसके भीतर जाता है और फिर एक आत्मीय भाषा में उसे समझाता है।

उनके लिए कविता केवल एक सौंदर्य या विचार नहीं, बल्कि संवेदना और भाषा की वह सृजनात्मक संरचना है, जहाँ जीवन के स्पंदन स्पष्ट होते हैं। इसलिए वर्मा किसी वाक्य को केवल उसके अर्थ से नहीं, उसकी अनुगूंज से परखते हैं। वह अनुगूंज ही कविता की आत्मा है और वही आलोचना की भी।

“नयी कविता के प्रतिमान” के माध्यम से लक्ष्मीकांत वर्मा प्रतिमानों को स्थापन नहीं करते, बल्कि उन्हें खोजते हैं, प्रश्न करते हैं, संशोधित करते हैं। इस प्रक्रिया में आलोचना एक पारदर्शी संवाद बन जाती है। न तो कठोर होती है, न समझौतावादी—बल्कि सर्जनशील। वे नयी कविता की जटिलताओं को सुलझाने का दावा नहीं करते, बल्कि उन्हें समझने की प्रक्रिया में कविता की उदात्तता को पहचानते हैं।

यह पुस्तक उन पाठकों के लिए एक प्रकाशस्तंभ की तरह है जो कविता को केवल पढ़ना नहीं, अनुभव करना चाहते हैं। यहाँ आलोचक कोई अंतिम निर्णय नहीं देता, वह पाठक को साथ ले चलता है—कविता के भीतर, कविता के पार और कविता के आसपास।

।। आठ ।।

लक्ष्मीकांत वर्मा हिन्दी कविता के उन विरल सर्जकों में हैं जिनकी काव्य-दृष्टि एक साथ गहराई और गरिमा, समर्पण और संशय, करुणा और विद्रोह—सबको आत्मसात करती है। उनका कवि केवल देखने और दिखाने की चेष्टा नहीं करता, वह अपने भीतर की चुप्पियों, आशंकाओं, मोहभंगों और स्मृतियों को ऐसी काव्यात्मक भाषा में ढालता है जो पाठक के मन में उतरती नहीं, उगती है।

उनकी कविता का पहला स्पर्श शब्द की शालीनता से होता है—वहाँ कोई अधीर उद्घोष नहीं, न ही शिल्प का प्रदर्शन। बल्कि एक मौन, संयत, किंतु भीतर से जलती हुई भाषा। वे कविता में एक ऐसे भारतीय बोध को रचते हैं जो परंपरा से मुक्त नहीं, पर उससे ग्रस्त भी नहीं। वे अपनी परंपरा को ‘अनुभव के पाट’ पर रखकर परखते हैं और आधुनिकता को केवल borrowed concept की तरह नहीं, आत्मान्वेषी बेचैनी की तरह जीते हैं।

उनकी कविताओं में बार-बार एक भीतर की यात्रा है—वहाँ कोई तात्कालिक उथल-पुथल नहीं, बल्कि एक चिरंतन लय में बंधा हुआ प्रश्न। जैसे वे पूछना नहीं चाहते, लेकिन चुप रहकर सब कुछ कह देना चाहते हैं।

उनकी कविता में लोक नहीं है, न शहरी कोलाहल—बल्कि वह ‘तीसरा प्रदेश’, जो आदमी की संवेदना का वास्तविक भूगोल है। वहाँ स्मृति है, मृत्यु का सन्नाटा है, प्रेम की निस्पंदता है, जीवन की थकी हुई चेतना है। और सब कुछ होते हुए भी वहाँ एक असंगत आशा बची रह जाती है—शब्दों की अंतिम हद पर।

लक्ष्मीकांत वर्मा की काव्य-दृष्टि उन्हें किसी परंपरा में सीमित नहीं करती। वे न अज्ञेय के अनुयायी हैं, न शमशेर के छाया-पथिक। वे अपने समय की कविता को स्वतः अर्जित आत्मवेदना से भरते हैं। वहाँ भाषा आभूषण नहीं, संवेदना की नाड़ी है। उनके लिए कविता कोई ‘काव्य-पाठ’ नहीं, बल्कि एक रहस्यमय रचना-अनुभव है, जहाँ जीवन की नश्वरता के भीतर से ही अर्थ के अस्थायी फूल उगते हैं।

उनकी भाषा में कोई अतिरिक्त सौंदर्य नहीं, कोई सज्जा नहीं, लेकिन फिर भी एक ऐसा शब्द-संयम, जो प्रत्येक कविता को विचार नहीं, वाणी में बदल देता है। यही उनकी काव्य-दृष्टि की मूल धारा है—शब्द से अधिक मौन पर विश्वास, दृश्य से अधिक आंतरिकता पर आग्रह, और कविता से अधिक मनुष्य की अंतिम संवेदना पर टिके रहना।

लक्ष्मीकांत वर्मा की कविताएँ जीवन से सीधे संवाद करती हैं। वे किसी आन्दोलन के कवि नहीं, मानव-मन के आदिम अंधकार और आधुनिक प्रकाश के बीच की अंतर्ध्वनि हैं। उनके लिए कविता सत्य की अनुगूंज है, जीवन की आहट और मृत्यु की प्रतीक्षा भी।

।। नौ ।।

लक्ष्मीकांत वर्मा का गद्य उनकी कविता की तरह ही संयमित, सूक्ष्म और आंतरिक ताप से भरा हुआ है। वे गद्य में वाग्जाल नहीं बुनते, संवेदना की नक्काशी करते हैं। उनका निबंधकार एक विचारशील सर्जक है, जो किसी विचारधारा का प्रचारक नहीं, बल्कि आत्मा की गूंज में लिखने वाला लेखक है। उनके गद्य में कहीं भी आलोचना का अहंकार या तथ्यों की अकड़ नहीं, बल्कि विवेक का सौंदर्य और विनय का आलोक है।

लक्ष्मीकांत वर्मा की निबंधात्मक भाषा कविता के समीप खड़ी भाषा है—जहाँ तर्क और भाव, विचार और लय, संवाद और आत्म-संवेदन सब एक साथ होते हैं। वे किसी लेखक या काव्यधारा को देखते हुए उसकी त्वचा नहीं, उसके रक्त-संचार तक पहुँचते हैं। और यह पहुँच किसी वाद या वर्चस्व से नहीं, बल्कि आत्मीय आलोचना की पारदर्शिता से संभव होती है।

उनका गद्य न तो शुष्क है, न अतिनाटकीय। वह एक गहरी धुन की तरह चलता है—धीरे, पर दूर तक। जब वे कविता पर लिखते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे कविता स्वयं अपनी व्याख्या कर रही हो। और जब किसी कवि पर लिखते हैं, तो ऐसा लगता है मानो वे उस कवि के भीतर बैठकर बोल रहे हैं। यह शैली निबंध को आत्मीय काव्य में बदल देती है।

उनके निबंधों में अक्सर एक शब्दशास्त्रीय सादगी होती है, जिसमें भावनाओं का संतुलन, भाषा की नमी और विचार की गरिमा साथ-साथ उपस्थित रहते हैं। वे कहीं भी उद्धरणों की भीड़ नहीं लगाते, क्योंकि उनका आलोचनात्मक आत्मविश्वास उन्हें किसी दूसरे सहारे की आवश्यकता नहीं पड़ने देता। यही स्वतंत्र आत्मा उनके गद्य को अपूर्व बनाती है।

लक्ष्मीकांत वर्मा का आलोचक एक ऐसा सौंदर्यद्रष्टा है जिसे पाठ की न केवल पंक्तियाँ दिखती हैं, बल्कि अंतर्ध्वनियाँ भी सुनाई देती हैं। वे केवल यह नहीं बताते कि कोई कवि क्या कह रहा है, बल्कि यह भी रेखांकित करते हैं कि वह क्यों और कैसे कह रहा है। यही अंतर उन्हें एक साधारण समीक्षक से एक ‘काव्यात्म आलोचक’ में रूपांतरित करता है।

उनका गद्य केवल पढ़ने के लिए नहीं, जीने के लिए है। वहाँ निबंध, टिप्पणी, समीक्षा, सब कुछ होते हुए भी एक निशब्द सौंदर्य का स्पर्श है। यह स्पर्श उनके आलोचनात्मक लेखन को निबंध की श्रेणी में नहीं, बल्कि आलोचना की श्रेष्ठ परंपरा में प्रतिष्ठित करता है—जहाँ रामचंद्र शुक्ल की गम्भीरता, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी की आत्मीयता और अज्ञेय की बौद्धिक विरासत एकत्र हो जाती है।

लक्ष्मीकांत वर्मा का गद्य उस ‘तीसरे मार्ग’ का अनुगमन करता है जहाँ आलोचना न तो केवल अकादमिक होती है और न ही केवल रचनात्मक—बल्कि एक अंतर्यात्रा, एक अवकाश और एक आत्मीय संवाद का प्रदेश बन जाती है।

।। दस ।।

लक्ष्मीकांत वर्मा का साहित्य एक ऐसी सांस्कृतिक नदी की तरह है, जो किसी घोषित स्रोत से नहीं, बल्कि धरती की भीतरी नमी से फूटती है—अलक्षित, आत्मगर्भित, किन्तु असंदिग्ध। उनके काव्य में कोई ललकार नहीं, कोई आंदोलन नहीं, कोई परिपाटीगत आग्रह नहीं—फिर भी वह कविता की वस्तु और आत्मा दोनों को बदल देने की क्षमता रखता है।

वे उस कवि परंपरा के साधक हैं जहाँ कविता केवल अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि एक अंतर्यात्रा है। उनके शब्द किसी वक्तव्य की तरह नहीं आते—वे जैसे किसी मौन प्रार्थना की तरह प्रकट होते हैं। उनके भीतर कोई घोषणापत्र नहीं, कोई नारा नहीं, कोई प्रतिरोध की लहर नहीं—फिर भी उनके शब्दों में काल का ताप है, और आत्मा की ठंडी परछाईं।

लक्ष्मीकांत वर्मा के यहाँ भाषा कभी भाषा नहीं रह जाती, वह संकोच, एकाकीपन, मोह और मृत्यु के भय में डूबी कोई धीमी ध्वनि बन जाती है। कभी वह एक छाया है, जो पाठक की पीठ पर हाथ रख देती है। कभी एक गंध, जो स्मृति की अलमारी खोल देती है। और कभी एक मूक उजाला, जो कविता को कविता से आगे ले जाता है।

उनके गद्य में एक कविता की हल्की आभा है और उनकी कविता में गद्य की सांद्रता। वे किसी लकीर के रचनाकार नहीं, वे उन लकीरों के बीच की मौन रिक्तियों के लेखक हैं—जो न दिखाई देती हैं, न पढ़ी जाती हैं, लेकिन जिनके बिना शब्दों का कोई अर्थ नहीं बनता।

वर्मा को पढ़ना दरअसल स्वयं को पढ़ना है—अपने भीतर की उस आवाज़ को सुनना है, जो रोज़मर्रा की भीड़ में दब जाती है। वे जीवन को किसी दार्शनिक दृष्टिकोण से नहीं देखते, बल्कि विलीन क्षणों की तरह पकड़ते हैं—उन अनदेखी दरारों में से, जिनमें स्मृति गिरती है, प्रेम जम जाता है, और मृत्यु पास आकर बैठ जाती है।

उनकी कविताएँ किसी युग की घोषणा नहीं करतीं, किसी विचारधारा की प्रस्तुति नहीं करतीं, बल्कि एक आत्मीय संवाद रचती हैं—एक ऐसी आवाज़हीन आवाज़, जिसे केवल वही सुन सकता है जो कविता को पढ़ नहीं, सुन सकता है।

वर्मा का काव्य संसार मौन के रंगों से बना है—वहाँ करुणा भी है, चुप्पी भी, विकलता भी और सौंदर्य की एक ऐसी दीप्ति भी जो बाहर से नहीं, भीतर से आती है। उनकी कविता किसी वृत्त की तरह नहीं चलती, वह किसी वलय की तरह फैलती है, जिसमें केंद्र का पता नहीं चलता लेकिन उसकी छाया पूरे समय को घेर लेती है।

लक्ष्मीकांत वर्मा केवल एक कवि नहीं हैं—वे कविता में छिपे आत्मसंघर्ष, निर्मल सौंदर्य और मौन पीड़ा के प्रतिनिधि हैं। वे एक ऐसे रचनाकार हैं जो लिखते नहीं, धीरे-धीरे अस्तित्व के भीतर उतरते हैं।

वर्मा की कविता को व्याख्या नहीं चाहिए, उसे सुननेवाली आत्मा चाहिए। वह पाठ से नहीं, अनुभव से बोलती है। और यही उनका साहित्य है—वर्णन से परे लेकिन अनुभव में अमर।

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