जो जीता वही सिकंदर!

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— प्रोफेसर राजकुमार जैन —

से कार्यकर्ता जिन्होंने तमाम उम्र अपनी पार्टी के सिद्धांतों, झंडे के साथ बंध कर गुजारे हो अगर उसका कोई वली वारिस, गॉडफादर, जात, मजहब, दौलत मसल पावर, क्षेत्रीयता का दम अगर नहीं है, तो उसकी पार्टी में क्या हैसियत है, क्या उसको उम्मीदवार बनाया जा सकता है?

चुनाव से पहले किस पार्टी का क्या मेनिफेस्टो था, उसके नेता दूसरी पार्टी, उनके नेताओं के लिए सार्वजनिक रूप से क्या कह रहे थे? वह सब अब बेमानी है। “चुनाव के बाद बहुमत न मिलने के बावजूद, सरकार बनाने की हवस में, जो पार्टी उनके उसूलों से बिल्कुल उलट थी और जिसके नेता उनके सबसे बड़े दुश्मन थे, उनसे हाथ मिलाने में किसी प्रकार का कोई शर्म या गुरेज़ नहीं।”

नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली। उनकी पार्टी अपना बहुमत ना पा सकी। उनकी सरकार के दो बड़े सारथी बिहार के जदयू नेता नीतीश कुमार तथा तेलुगू देशम पार्टी के चंद्रबाबू नायडू बने हैं। अब बताइए, मेनिफेस्टो नीतियों का क्या होगा? क्या वह सब बकवास था,? सिद्धांत क्या होता है? वह तो कहने की बात थी, जुमलों से सियासत थोड़े ही चलती है।

सियासी इतिहास बताता है कि 1952 के चुनाव से लेकर तकरीबन सभी चुनावो में सोशलिस्ट बिहार, उत्तर प्रदेश में पक्ष विपक्ष में अव्वल नंबर पर रहे हैं। इसका कारण है कि आज भी बिहार उत्तर प्रदेश के गांव स्तर पर सोशलिस्ट विचारधारा में रचे पचे कार्यकर्ता झंडा उठाएं रखते हैं। आज के हालात क्या है, बिहार में लालू प्रसाद यादव तथा उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव बड़े जन नेता है। लाखों की भीड़ उनके पीछे है, लालू प्रसाद यादव से बड़ा जन नेता बिहार में नहीं है, इसके बावजूद बिहार में शर्मनाक हार हुई, इसके कारण जानने होंगे। सवाल यह है कि इनमें कितने वैचारिक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता उनके साथ हैं। क्या उनको वैचारिक तालीम, शिक्षण शिविर, संगठन को बनाने के लिए लोहिया के फार्मूले वोट जेल फावड़ा का पाठ पढ़ाने का प्रयास किया गया। वोट प्रतीक था लोकतंत्र का जम्हूरियत का डेमोक्रेसी का। जेल से अभिप्राय संघर्ष का लोहिया का कथन था कि अगर सड़क सुनी हो जाएगी तो संसद आवारा हो जाएगी अर्थात अन्याय, गैर- बराबरी, जुल्म ज्यादती के खिलाफ आंदोलन सड़क से लेकर संसद तक चलना चाहिए, और इसके लिए जेल जाने के लिए हमेशा तैयार रहो। लोहिया का मानना था कि मूल्क की तामीर निर्माण के लिए रचनात्मक कार्यों की ओर भी हर हिंदुस्तानी का फर्ज है, कि वह कम से कम एक घंटा देश के निर्माण के लिए दे। फावड़ा निर्माण का, रचना का प्रतीक है, किसी भी प्रकार का श्रमदान फावड़े का प्रतीक है। भीड़ का कायदा है कि वह फोरी तोर पर जल्द आती भी है, और उसी तरह जल्दी चली भी जाती है।

सोशलिस्ट होने के नाते दिल को तसल्ली दी जा सकती है कि हमने उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पीछे धकेल दिया। पर क्या यह जीत स्थाई है या समय के साथ आगे बढ़ती जाएगी? भाजपा के कारवां को मौजूदा सियासी औजारों से स्थाई रूप से रोकना मुश्किल होगा। उसके लिए वैचारिक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता और लोकतांत्रिक पार्टी का ढांचा है, न कि सुप्रीमो स्टाइल का नेतृत्व या खानदानी विरासत के दावेदार, सत्ता-लोलुप, सिद्धांत-विहीन अवसरवादी धन्धेबाज।

सोशलिस्टों का गौरवमय इतिहास रहा है। 1952 में हुए प्रथम लोकसभा चुनाव में पंडित जवाहरलाल नेहरू की आब के सामने सोशलिस्ट पार्टी ने लोकसभा की 12 सीट जीती थी तथा 10.6% वोट मिला था। 1967 के आम चुनाव में सोशलिस्ट दो भागों में बटे हुए होने के बावजूद संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने 23 तथा प्रजा समाजवादी पार्टी ने 13 सीट चुनाव में जीती थी। इस जीत की सबसे बड़ी खूबी यह थी की हिंदुस्तान के हर सूबे से सोशलिस्ट लोकसभा में चुनकर आए थे। आरएसएस बीजेपी से लंबी लड़ाई लड़ने के लिए जोडतोड़ की सियासत, बेपैन्दी के तथाकथित नेताओं की और आशा भरी निगाहों से देखना ख़ुदकुशी के अलावा और कुछ नहीं। विचारधारा पर खड़ी पार्टीया ही अपना अस्तित्व बचा सकती है। पार्टी सुप्रीमो की शैली, जात, मजहब तथा जिताऊ उम्मीदवारों के बल पर चलने वाली पार्टियों के गुब्बारे की हवा कब निकल जाएगी, कोई गारंटी नहीं। आरएसएस की औलाद भारतीय जनता पार्टी के इतिहास को जानना भी बेहद जरूरी है। वह ऐसे ही दिल्ली की गद्दी पर नहीं बैठ गए। 1925 में बना संघ ,100 साल की लंबी यात्रा में कैसे अपनी विचारधारा, संगठन, अनुशासन से बंध कर उसके स्वयंसेवक दुर्गम रास्तों, झंझावातों को झेलते हुए, जीतोड़ मेहनत के बल पर आगे बढ़े, इसको जानने का मतलब आरएसएस का पिछलगू बनना नहीं। आरएसएस के सैकड़ो ऐसे सहमना, वर्ग संगठन है, जो मुख्तलिफ नाम से पर्दे के पीछे कार्य करते है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, हिंदू स्वयंसेवक संघ, स्वदेशी जागरण मंच, सरस्वती शिशु मंदिर, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, लघु उद्योग भारती, विचार केंद्र, वनवासी कल्याण आश्रम, राष्ट्रीय सिख संगत, प्रवासी भारतीय परिषद, हिंदू जागरण मंच, नेशनल टीचर्स फ्रंट, विवेकानंद केंद्र, जैसे 50 से अधिक संगठन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम करते हैं। 200 से अधिक क्षेत्रीय संगठन कार्यरत है।156 देशों में सक्रिय है।

पुरानी कहावत है की बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है, जो नेता, पार्टी भाजपा की सोहबत में गए उनका क्या हस्र हुआ उसको जानना भी जरूरी है। एक वक्त पंजाब की सबसे मजबूत पार्टी अकाली दल जो भाजपा के साथ गलबाही करती थी रसातल में चली गई। उड़ीसा के नेता नवीन पटनायक जो भाजपा के साथ आंख मिचोनी का खेल खेलते थे भाजपा ने उनका सुपड़ा साफ कर दिया। हिंदू हृदय सम्राट उद्धव ठाकरे भाजपा के हमजोली, की पार्टी को भाजपा हाईजैक कर ले गई। चौटाला खानदान के बड़बोले दुष्यंत चौटाला की क्या दुर्गत भाजपा ने की सबके सामने है। मायावती की भाजपा से मिली भगत के खेल में, देश की तीसरे नंबर की पार्टी, बहुजन समाज पार्टी का लोकसभा में एक भी नुमाइंदा जीत ना सका। और तो और खुदा ना खास्ता कभी नीतीश कुमार ने किन्हीं कारण से भाजपा से अलगाव करने की कोशिश की तो पता चला कि उनके एमपी, एमएलए नरेंद्र मोदी की पार्टी के सक्रिय सदस्य पहले ही बन चुके हैं।

नरेंद्र मोदी ने वोटों की गिनती से पहले ऐलान किया था कि अभी तो आपने ट्रेलर ही देखा है, चुनाव के बाद आपको फिल्म देखने को मिलेगी। एडोल्फ हिटलर के शागिर्द नरेंद्र मोदी ने हिटलर की फौजी फतेह को तो पढ़ लिया, परंतु हिटलर के आखिरी दौर की तारीख को नींद आने के कारण पढ़ नहीं सके।


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