एक क्रांतिकारी विद्वान – लाला हरदयाल

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Lala Hardayal

1884 में दिल्ली के एक कायस्थ परिवार में जब लाला हरदयाल का जन्म हुआ, तो किसी ने नहीं सोचा था कि यह बालक एक दिन तीन महाद्वीपों में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बनेगा। उनके पिता गौरी दयाल माथुर जिला न्यायालय में काम करते थे और फारसी व उर्दू के विद्वान थे। घर में किताबों का माहौल था, बहसों का माहौल था।

सेंट स्टीफन कॉलेज, दिल्ली में पढ़ाई के दौरान वे हर परीक्षा में अव्वल आते। लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर करते समय भी उनकी प्रतिभा चमकती रही। 1905 में उन्हें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के सेंट जॉन्स कॉलेज में अध्ययन के लिए भारत सरकार की छात्रवृत्ति मिली। यह सम्मान की बात थी भारत का सर्वश्रेष्ठ छात्र, ब्रिटिश साम्राज्य के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में।

लेकिन ऑक्सफोर्ड में कुछ बदल गया। हरदयाल क्रांतिकारी विचारों के संपर्क में आए। श्यामजी कृष्ण वर्मा, सी.एफ. एंड्रयूज, भाई परमानंद इन सबसे उनकी मुलाकातें हुईं। वे ‘द इंडियन सोशियोलॉजिस्ट’ पत्रिका में ब्रिटिश राज के खिलाफ तीखे लेख लिखने लगे। 1907 में उन्होंने वह किया जो उस दौर में लगभग अकल्पनीय था ऑक्सफोर्ड की छात्रवृत्ति त्याग दी। उन्होंने ब्रिटिश सरकार को लिखा कि वे उस साम्राज्य से कोई एहसान नहीं लेना चाहते जो उनकी मातृभूमि को गुलाम बनाए हुए है।

1908 में वे भारत लौटे, लाहौर में राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हो गए। ‘मॉडर्न रिव्यू’ और ‘द पंजाबी’ जैसे अखबारों में उनके लेख छपने लगे। ब्रिटिश सरकार ने उन पर नजर रखनी शुरू कर दी। जल्द ही स्थिति ऐसी हो गई कि उन्हें फिर देश छोड़ना पड़ा। 1909 में वे पेरिस पहुंचे और ‘वंदे मातरम’ के संपादक बने। फिर अल्जीरिया और मार्टिनिक गए। वहां उन्होंने संन्यासी जैसा जीवन अपनाया केवल उबले अनाज और सब्जियां, जमीन पर सोना, ध्यान करना। “सादा जीवन, उच्च विचार” यह उनका सिद्धांत बन गया।

1911 में उन्होंने अमेरिका की धरती पर कदम रखा। सैन फ्रांसिस्को बंदरगाह पर उतरे तो कैलिफोर्निया के पंजाबी सिख किसानों ने उनका स्वागत किया। ये लोग बेहतर जीवन की तलाश में यहां आए थे, लेकिन कनाडा और अमेरिका में नस्लभेद का सामना कर रहे थे। अपनी ही धरती पर गुलाम थे, पराई धरती पर भी दोयम दर्जे के नागरिक। हरदयाल ने उनकी पीड़ा को समझा और उन्हें एक दिशा दी

कैलिफोर्निया में उन्होंने ओकलैंड में ‘बाकुनिन इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। वे स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर भी बने। लेकिन उनका असली काम कहीं और था। वे स्टॉकटन, सैक्रामेंटो, फ्रेस्नो जहां भी पंजाबी किसान रहते थे, वहां जाते, उनसे मिलते, बातचीत करते उन्हें बताते कि ब्रिटिश राज कैसे भारत को लूट रहा है, कैसे भारतीय अपनी ही धरती पर पराए हैं।

1913 में ओरेगॉन के एस्टोरिया शहर में एक ऐतिहासिक बैठक हुई। लाला हरदयाल, सोहन सिंह भकना, करतार सिंह सराभा और अन्य साथियों ने मिलकर गदर पार्टी की स्थापना की। ‘गदर’ 1857 के विद्रोह की याद दिलाने वाला नाम। पार्टी का मुख्यालय सैन फ्रांसिस्को में बनाया गया। एक साप्ताहिक अखबार ‘गदर’ निकलना शुरू हुआ गुरमुखी, उर्दू और हिंदी में। इसकी पहली पंक्ति थी: “आज का हुक्म, सरकार का महकूम, दिल्ली तख्त का मालिक, हिंदुस्तान का बादशाह, गदर दी अदालत से निकला है।”

हरदयाल केवल राजनीतिक नेता नहीं थे। वे विद्वान थे, दार्शनिक थे। गदर के दफ्तर में रात-रात भर वे साथियों के साथ बैठकर बहसें करते समाजवाद पर, अराजकतावाद पर, भारतीय दर्शन पर। लेकिन साथ ही सशस्त्र संघर्ष की योजना भी बनाते। विदेशों में रहने वाले भारतीयों से चंदा इकट्ठा करते, हथियार खरीदने की योजनाएं बनाते।

अप्रैल 1914 में अमेरिकी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। आरोप था अराजकतावादी साहित्य फैलाना। ब्रिटिश सरकार का दबाव था। जमानत पर रिहा होने के बाद हरदयाल ने फैसला किया अमेरिका छोड़ना होगा। वे पहले स्विट्जरलैंड गए, फिर बर्लिन। प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। जर्मनी ब्रिटेन के खिलाफ लड़ रही थी। हरदयाल ने सोचा दुश्मन का दुश्मन दोस्त।

बर्लिन में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता समिति के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जर्मन खुफिया विभाग के साथ मिलकर भारत में विद्रोह की योजनाएं बनाईं। हथियारों की खेप भारत भेजने की कोशिशें हुईं। लेकिन ब्रिटिश खुफिया विभाग सतर्क था। कई योजनाएं विफल हो गईं।

युद्ध खत्म हुआ, जर्मनी हार गई। हरदयाल के लिए यूरोप में रहना मुश्किल हो गया। वे लंदन गए। 1930 में लंदन विश्वविद्यालय से बौद्ध संस्कृत साहित्य पर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। फिर स्वीडन गए और दस साल तक भारतीय दर्शन के प्रोफेसर रहे। 1920 के दशक के अंत में फिर अमेरिका लौटे और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में संस्कृत पढ़ाने लगे।

यह एक अजीब विरोधाभास था दिन में विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय ग्रंथों की व्याख्या करते, शाम को क्रांतिकारी साथियों से मिलते। उनकी किताब ‘हिंट्स फॉर सेल्फ-कल्चर’ लिखी, जो व्यक्तिगत विकास को सामाजिक प्रगति का माध्यम बताती थी। स्वामी राम तीर्थ ने उन्हें “अमेरिका आने वाले सबसे महान हिंदू” कहा था।

4 मार्च 1939 की शाम, फिलाडेल्फिया में उन्होंने हमेशा की तरह व्याख्यान दिया। अंतिम शब्द थे, “मैं सबके साथ शांति में हूं।” उसी रात उनका निधन हो गया। अचानक, रहस्यमय। उनके करीबी मित्र लाला हनुमंत सहाय ने जहर देने की आशंका व्यक्त की, लेकिन कोई जांच नहीं हुई।

लाला हरदयाल की जिंदगी एक विरोधाभास थी विद्वान और क्रांतिकारी, शांत और विद्रोही, संन्यासी और योद्धा। उन्होंने ऑक्सफोर्ड की छात्रवृत्ति त्यागी, लेकिन लंदन से डॉक्टरेट ली। उन्होंने सशस्त्र संघर्ष की योजना बनाई, लेकिन जीवन भर सादगी से जिए। उन्होंने तीन महाद्वीपों में भटकते हुए भारत की आजादी के लिए संघर्ष किया, लेकिन खुद कभी आजाद भारत नहीं देख पाए।

लाला हरदयाल की विरासत है एक ऐसे व्यक्ति की जिसने सबकुछ त्याग दिया, लेकिन सपना नहीं छोड़ा।


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