श्रीलंका में जनक्रांति हो रही है। मानो फैज अहमद फैज की मशहूर नज़्म ‘हम देखेंगे’ हमारी आंखों के सामने उतर आई है:
जब जुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां (घने पहाड़),
रुई की तरह उड़ जाएंगे,
हम महकूमों (शासितों) के पांवों तले,
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी,
और अहल-ए-हाकम (सत्ताधारियों) के सर ऊपर,
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी,
… सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे।
आज श्रीलंका में जनता सड़क पर उतर आई है, नेताओं से जवाब मांग रही है और सड़क पर ही उनका हिसाब कर रही है। धरती धड़क रही है, बिजली कड़क रही है, ताज उछाले जा रहे हैं, तख्त गिराए जा रहे हैं। इस छोटे से द्वीप के लंका काण्ड को हम जंबूद्वीप के निवासी बेपरवाह तमाशबीन बन देख रहे हैं। जरा ध्यान से देखें तो श्रीलंका रूपी इस छोटे से आईने में हमें भारत की दशा और दिशा की एक झलक दिखाई दे सकती है। जाहिर है, ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है कि श्रीलंका में जो हो रहा है, वैसा हमारे यहां होना अवश्यंभावी है। उनकी और हमारी स्थिति में जमीन-आसमान का फर्क है। लेकिन ऐसा मानना भी मूर्खता होगी कि इन घटनाओं का हमारे लिए कोई सबक नहीं है।
पहला सबक यह है कि लोकतांत्रिक अधिनायकों की लोकप्रियता क्षणभंगुर होती है। अजेय और सर्वशक्तिमान दिखनेवाले नेताओं की सत्ता एक क्षण में ताश के पत्तों के महल की तरह ढह जाती है।
श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे किसी गठबंधन की सरकार के कमजोर मुखिया नहीं थे। 2019 के राष्ट्रपति चुनाव में ही उन्हें विशाल बहुमत मिला था। संसद में उनका इतना बहुमत था, जिसके दम पर उन्होंने श्रीलंका के संविधान को बदल दिया।
राजपक्षे परिवार का वर्चस्व कोई नया नहीं है। वर्ष 2004 से पहले महिंदा राजपक्षे और फिर उन्हीं के भाई गोटबाया राजपक्षे श्रीलंका की राजनीति पर छाए रहे। इस बीच 4 वर्ष छोड़कर इस परिवार का श्रीलंका की राजनीति पर कब्जा रहा है। एक संकटग्रस्त देश में मजबूत नेतृत्व की आकांक्षा को पूरा करते हुए महिंदा और गोटबाया राजपक्षे ने फौज को अपने पक्ष में किया, धीरे-धीरे देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त किया, न्यायपालिका को काबू किया, मीडिया का मुंह बंद किया, अपने राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाला या गायब करवा दिया। और यह सब चुनाव में लोकप्रियता साबित कर लोकतंत्र के नाम पर किया। आज इसी राजपक्षे परिवार को किसी अज्ञात स्थान पर सेना के घेरे में अपनी जान बचाकर छुपने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। इतिहास गवाह है कि लोकप्रियता के शिखर पर चढ़नेवाले अधिनायकों का यही अंत होता है।
दूसरा सबक यह है कि अर्थव्यवस्था को जुमलों के सहारे नहीं चलाया जा सकता। लोकलुभावन वायदों के जरिए जनता को भरमाया जा सकता है, मीडिया का गिरेबान पकड़ देश की आर्थिक स्थिति के बारे में जनता को अंधेरे में रखा जा सकता है, लेकिन इससे अर्थशास्त्र के नियम नहीं बदलते।
श्रीलंका की मुसीबत महज इतनी नहीं है कि देश में गैस, पैट्रोल, बिजली, दवाइयों और खाद्य पदार्थों की किल्लत है, बुनियादी समस्या यह है कि पूरी अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। अंतरराष्ट्रीय कर्ज नहीं चुका पाने के कारण श्रीलंका दिवालिया हो गया है। देश में आयात करने के लिए विदेशी मुद्रा खत्म हो गई है। श्रीलंका के रुपए की कीमत लगातार गिर रही है। महंगाई 18 प्रतिशत (खाद्य पदार्थों की महंगाई 24 प्रतिशत) हो चुकी है।
गौरतलब है कि यह संकट रातोरात नहीं आया। सन 2015 से श्रीलंका की आर्थिक स्थिति खराब हो रही थी, लेकिन सरकार आंख बंद किए बैठी रही, जनता को सच बताने की बजाय जुमले सुनाए गए, सच बतानेवालों को देश का दुश्मन करार दिया गया। सरकार ने केंद्रीय बैंक की बांह मरोड़ी और अर्थव्यवस्था को धक्का पहुंचाने वाले तुगलकी फैसले लिये। अंतत: अर्थव्यवस्था की सच्चाई सामने आ ही जाती है।
तीसरा और शायद सबसे गहरा सबक यह है कि बहुसंख्यकवाद किसी भी देश की जड़ों को खोखला कर देता है।
एक जमाने में श्रीलंका दक्षिण एशिया का सबसे सम्पन्न और सबसे शांतिप्रिय देश होता था। श्रीलंका के सिंहला भाषी (75 प्रतिशत), बौद्ध धर्मी (70 प्रतिशत) बहुसंख्यक आबादी वहां के तमिल भाषी (15 प्रतिशत), हिंदू (13 प्रतिशत), मुसलमान (10 प्रतिशत) और ईसाई (7 प्रतिशत) के साथ मिलजुल कर रहती थी। लेकिन 50 और 60 के दशक में वहां सिंहला बौद्ध बहुसंख्यकवाद का उभार हुआ। ‘श्रीलंका में रहना है तो सिंहला भाषा बोलनी होगी’ जैसे नारों का उदय हुआ। संविधान में बौद्ध धर्म को विशेष स्थान दिया गया। तमिल और गैर-बौद्ध अल्पसंख्यकों पर नाना किस्म की बंदिशें लगाई गईं।
इसके फलस्वरूप वहां तमिल पृथकतावादी आतंकवाद पनपा, जिसने कालांतर में एल.टी.टी.ई. (लिट्टे) नामक सैन्य विद्रोह की शक्ल ली। लगभग 20 साल तक श्रीलंका गृहयुद्ध की आग में झुलसता रहा। वैसे तो 2009 में हजारों तमिल नागरिकों की हत्या के साथ इस गृहयुद्ध का अंत हो गया, लेकिन खून के दाग मिटाए नहीं मिटते। सिंहला बनाम तमिल (और कुछ हद तक बौद्ध बनाम हिंदू और मुसलमान) की इस लड़ाई ने श्रीलंका के समाज को खोखला बना दिया। राष्ट्रवाद के नाम पर चले इस गृहयुद्ध ने श्रीलंका की सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को पंगु कर दिया।
जिन औजारों का इस्तेमाल कर पहले अल्पसंख्यक तमिलों का दमन किया गया था, उन्हीं औजारों के सहारे फ़िर बहुसंख्यक सिंहला समाज के भीतर विरोधियों, आंदोलनों, बुद्धिजीवियों का भी दमन किया गया। अल्पसंख्यकों को खत्म करने के अभियान का अंत देश के खात्मे में होता है।
लंका से अयोध्या वापस आने पर भगवान राम कहते हैं कि रावण को मैंने नहीं मारा, उसको उसके ‘मैं’ ने, यानी उसके घमंड ने मार दिया। लंका कांड का यह सबक जितना रामचरितमानस के समय सच था उतना ही आज भी है।
(नवोदय टाइम्स से साभार)