
— शंभुनाथ —
कल एक जेनरल स्टोर्स में एक मां अपने 4 साल के बच्चे के साथ घुसी। वह बच्चे को अंग्रेजी में कुछ न कुछ हिदायत दिए जा रही थी। बच्चा एक चीज की ओर इशारा करके हिंदी में बोले जा रहा था, ‘हमको यह खाना है’। मां चाहती थी कि वह अंग्रेजी में बोले और उसके एक शब्द भी अंग्रेजी में न बोलने पर वह बहुत अपमानित महसूस कर रही थी। बच्चे को तो अपने दिल की बात कहनी थी तो वह काहे अंग्रेजी बोले! हां, धीरे -धीरे वह अंततः अंग्रेजी में धकेल दिया जाएगा!
सवाल है, हिंदी क्षेत्र के जो लेखक, शिक्षक और काफी शिक्षित लोग अपनी मातृभाषा हिंदी की जगह भोजपुरी, ब्रज, मैथिली आदि बताते नहीं अघाते, वे कृपा करके बताएं कि उनके बच्चे की मातृभाषा क्या है ! किसी मामूली संपन्न हिंदी भाषी का बच्चा भी आज हिंदी माध्यम से नहीं पढ़ता होगा। और जो ‘समझदार’ पैरेंट्स हैं, वे अपने बच्चे के हिंदी की जगह अंग्रेजी जानने पर ज्यादा ध्यान देते होंगे। क्या बड़े अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले किसी भी बच्चे की मातृभाषा अब हिंदी भी रह जाएगी?
इसलिए पहली बात यह है कि हिंदी भाषी लोग हिंदी को ही अपनी मातृभाषा समझें, जिस तरह बंगाल के लोग अपनी मातृभाषा बांग्ला या महाराष्ट्र के लोग मराठी बताते हैं।
इसके अलावा, संकटग्रस्त भाषाओं के दायरे को विस्तृत करते हुए हम इसके प्रति जागरूक हों कि बाजार, तकनीक, कृत्रिम मेधा आदि के बल पर बढ़ते अंग्रेजी वर्चस्व के युग में खुद हिंदी भी एक संकटग्रस्त भाषा बन चुकी है। बच्चे हिंदी गानों के दीवाने भले हों, पर उनका हिंदी से नाता खत्म होता जा रहा है और इसमें उनके ‘पैरेंट्स’ की अहम भूमिका है!
मैंने सदा कहा है, संस्कृत हिंदी की जननी नहीं है। वह तो ग्रांड -ग्रांड दादी अम्मा है! हिंदी की मांएँ हैं इस क्षेत्र की उर्दू सहित 49 भाषाएं, उपभाषाएं और बोलियां! जैसे दुर्गा की सृष्टि तमाम दैव शक्तियों ने मिलकर की थी, हिंदी को भी इन सारी 49 भाषाओं के लोगों ने मिलकर रचा है। अब हिंदी को बचाना और इसे हर दृष्टि से संपन्न करना एक बड़ी समस्या है। लोग खराब हिंदी बोल और लिख रहे हैं, जो चिंताजनक है!
मैंने लगभग 15 साल पहले केंद्रीय हिंदी संस्थान में कोशिश की थी कि हिंदी क्षेत्र की इन सभी लोकभाषाओं का 49 खंडों में शब्दकोश बने, ताकि इन भाषाओं के वे दुर्लभ शब्द बचें, जिनमें अद्भुत नाद सौंदर्य और अर्थ ध्वनियां हैं। इसके लिए HRD मंत्रालय से करीब 3 करोड़ की राशि मंजूर कराई थी। समांतर कोश के प्रसिद्ध निर्माता अरविंद कुमार को प्रधान संपादक बनाया था। यह परियोजना पूरी हो जाती, तो हिंदी की व्यापक समृद्धि दिखाई पड़ती। लेकिन मेरे निदेशक पद से हटते ही अरविंद कुमार को हटा दिया गया। केवल एक खंड पूरा होकर छप सका।
धनराशि होने पर भी हिंदी लोक शब्दकोश की परियोजना का पूरा न होना हिंदी क्षेत्र के आलस्य और दायित्वबोध के अभाव का एक बड़ा उदाहरण है। यह एक सरकारी हिंदी संस्थान के पतन और अपने भोगवाद में मस्त रहने का चिह्न भी है। मेरा 49 खंडों में मंत्रालय से स्वीकृत कराई गई परियोजना अधूरी रह गई, हिंदी जनता का जो स्वप्न मैंने अपनी आंखों से देखा, वह अधूरा रह गया। अब यह शायद ही मेरे सामने पूरा हो!
मेरी धारणा है कि अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर हमें अपनी मातृभाषा हिंदी बताने में संकोच नहीं करना चाहिए। लेकिन हिंदी की रक्षा का अर्थ है 49 भाषाओं, उपभाषाओं, बोलियों में फैली इसकी सांस्कृतिक जड़ों की भी रक्षा और लोकभाषाओं की शक्ति लेकर हिंदी को अंग्रेजी वर्चस्व के आगे घुटने टेकने नहीं देना!
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.