जयप्रकाश नारायण और आज का भारत : स्मृति और उत्तरदायित्व

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Parichay Das

— परिचय दास —

।। एक ।।

ज की तारीख़ इतिहास के पन्नों में एक गहरी साँस की तरह दर्ज है—वह साँस जो कभी जयप्रकाश नारायण ने इस देश को दी थी। वे किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं थे, एक विचार का विस्तार थे। वे राजनीति में नहीं, लोकनीति में विश्वास करते थे। उनके भीतर भारत का गाँव धड़कता था, भारत का युवा बोलता था और भारत का भविष्य उम्मीद की तरह मुस्कुराता था। वे जन के आदमी थे किन्तु जन में रहते हुए भी व्यक्ति की मर्यादा और आत्मा के सम्मान को सबसे ऊपर रखते थे।

जयप्रकाश नारायण—यह नाम एक आह्वान की तरह है। जैसे किसी गहरे अँधेरे में कोई दीपक फूट पड़े और कहे—”यहाँ अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है।” उन्होंने नारे नहीं गढ़े, उन्होंने आत्मा को जगाया। वे उन विरलों में थे जिन्होंने सत्ता को विरोध का पर्याय नहीं बल्कि जवाबदेही का प्रतीक बनाना चाहा। उनके लिए लोकतंत्र कोई संस्थागत औपचारिकता नहीं था बल्कि जीवंत आस्था थी—ऐसी आस्था जिसमें शासन जनता के भीतर से उठता है और जनता के लिए ही श्वास लेता है।

वे राजनेता नहीं थे, पर राजनेताओं के लिए वे एक स्थायी दर्पण थे। उनके जीवन में कोई राजसी ठाठ नहीं था, कोई मंचीय अभिनय नहीं था—केवल सत्य की सघन साधना थी। उन्होंने जो कहा, वही जिया। उनका जीवन एक खुली किताब की तरह था जिसमें हर पृष्ठ पर नैतिकता की रोशनी थी। वे जानते थे कि भारत केवल संविधान से नहीं, बल्कि आत्मा से चलता है; और वही आत्मा अगर सो जाए तो संविधान भी काग़ज़ हो जाता है।

उनके शब्दों में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ केवल व्यवस्था परिवर्तन का नारा नहीं था, वह मनुष्य की आत्मा की पुकार थी। वह भीतर की क्रांति थी, आत्म-साक्षात्कार की क्रांति। उन्होंने कहा था—“सत्ता बदलने से कुछ नहीं होगा, सोच बदलनी होगी।” यही वह पंक्ति थी जिसने असंख्य युवाओं को दीवानगी दी और एक पीढ़ी को सिखाया कि स्वतंत्रता केवल बाहर से नहीं आती—वह भीतर से उपजती है।

उनकी पुण्यतिथि पर स्मरण का अर्थ शोक नहीं है, बल्कि उस आत्मा की पुनः खोज है जिसने अपने समय को भी पीछे छोड़ दिया। वे गांधी की परंपरा के अंतिम साधक थे—न किसी पद की आकांक्षा, न किसी सत्ता की वासना। वे कहते थे—“लोकतंत्र में जनता ही अंतिम निर्णायक है।” और शायद यही उनकी सबसे बड़ी वसीयत थी। आज जब लोकतंत्र के भीतर संवाद की जगह शोर ने ले ली है, जब जनता से अधिक जनभावना पर राजनीति होती है, तब जयप्रकाश की याद एक नैतिक हस्तक्षेप की तरह आती है।

उनका चेहरा कठोर नहीं था, उसमें करुणा की सौम्यता थी। वे क्रोध में भी संयमित रहते थे। वे जानते थे कि व्यवस्था से लड़ने के लिए पहले मनुष्य को अपने भीतर की अशांति से मुक्त होना पड़ता है। उनके भीतर एक साधु का धैर्य था और एक योद्धा की दृष्टि। उन्होंने जेल में भी अपनी आत्मा को स्वतंत्र रखा, और राजनीति में भी अपने विवेक को कैद नहीं होने दिया।

अगर कभी कोई यह पूछे कि जयप्रकाश नारायण का धर्म क्या था—तो कहना चाहिए, ‘स्वतंत्रता’ और उनका कर्म क्या था—‘सत्य’। वे उस युग में खड़े थे जब राजनीति में ईमानदारी का अर्थ मूर्खता समझा जाता था, फिर भी उन्होंने सत्य का पक्ष लिया। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि आदर्श कोई पुराना शब्द नहीं बल्कि वह धारा है जो हर समय को पवित्र बनाती है।

आज जब हम उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें स्मरण करते हैं, तो यह स्मरण केवल श्रद्धा नहीं है, यह आत्मावलोकन है। क्या हम उस भारत में हैं जिसके स्वप्न जयप्रकाश ने देखे थे? क्या आज भी राजनीति जन की आवाज़ है, या वह केवल गणना और गठजोड़ का खेल रह गई है? जयप्रकाश ने जिस सम्पूर्ण क्रांति की बात की थी, वह आज फिर उतनी ही आवश्यक लगती है—लेकिन अब उसका क्षेत्र केवल शासन नहीं, समाज और व्यक्ति का मन है।

उनकी स्मृति हमारे लिए दर्पण की तरह है—हम उसमें अपना वर्तमान देख सकते हैं और अपने भविष्य की दिशा तय कर सकते हैं। उन्होंने अपने जीवन से यह दिखाया कि सच्ची राजनीति का आरंभ आत्मा से होता है और अंत सेवा में। उनका देहांत केवल शरीर का अन्त था, विचार का नहीं। वे आज भी बोलते हैं—कभी किसी किसान के गीत में, किसी छात्र की बेचैनी में, किसी लेखक की जिम्मेदारी में।

उनका जाना किसी अध्याय का समाप्त होना नहीं, बल्कि एक अधूरे वाक्य का संकेत है, जो हर पीढ़ी से अपने उत्तर की माँग करता है। जयप्रकाश नारायण आज भी भारतीय आत्मा में जीवित हैं—उस धड़कन में जो अन्याय देखकर चुप नहीं रह सकती, उस आँख में जो झूठ पहचान सकती है, और उस स्वप्न में जो फिर से एक सच्चे भारत का निर्माण करना चाहता है।

उनकी पुण्यतिथि केवल एक दिन नहीं, एक स्मृति पर्व है—जहाँ राष्ट्र उन्हें प्रणाम करते हुए अपने भीतर के जयप्रकाश को खोजता है। वे कोई स्मारक नहीं चाहते थे, वे जागरूक नागरिक चाहते थे। शायद यही कारण है कि उनके जाने के इतने वर्षों बाद भी उनका नाम किसी राजनीतिक घोषणा में नहीं बल्कि लोगों के दिलों की अनकही आकांक्षाओं में जीवित है।

जयप्रकाश नारायण—वे लौटकर नहीं आएँगे, पर उनका स्वप्न लौटता रहता है, हर उस क्षण जब कोई अन्याय के सामने सत्य बोलता है, जब कोई व्यक्ति सत्ता से अधिक सत्य को चुनता है। यही उनकी सच्ची उपस्थिति है—नारे में नहीं, नैतिकता में; इतिहास में नहीं, वर्तमान में। उनके लिए एक पंक्ति ही पर्याप्त श्रद्धांजलि है—
“वे गए नहीं, बस अपना रूप बदलकर जन-चेतना में उतर गए हैं।”

।। दो ।।

जयप्रकाश नारायण की पुण्यतिथि पर उनका स्मरण केवल उनके व्यक्तित्व तक सीमित नहीं है, यह एक विचार यात्रा है — एक ऐसा अनुभव जिसमें राजनीति, समाज, संस्कृति और आत्मा का एक अद्वितीय मिश्रण होता है। वे अपने समय के उन दुर्लभ व्यक्तियों में थे जिन्होंने जीवन को केवल सत्ता के खेल के रूप में नहीं देखा बल्कि उसे एक नैतिक प्रयोगशाला के रूप में स्वीकार किया। उनके लिए राजनीति केवल व्यवस्था बदलने का माध्यम नहीं थी, बल्कि यह चरित्र, चेतना और संस्कृति का विस्तार था।

उनके विचार में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का मतलब केवल प्रशासनिक या आर्थिक सुधार नहीं था; यह एक ऐसी क्रांति थी जो व्यक्ति के भीतर और समाज के भीतर एक साथ हो—जहाँ गरीबी, अज्ञान, अन्याय और भ्रष्टाचार मिटें, और उसके स्थान पर स्वतंत्रता, ज्ञान, समानता और न्याय की जड़ें मजबूत हों। वे समझते थे कि व्यवस्था की गहरी जड़ को काटने के लिए केवल कानून नहीं, आत्म-परिवर्तन की आवश्यकता है। यही कारण है कि उन्होंने शिक्षा, जन चेतना, ग्राम स्वराज और नैतिक मूल्यों को अपने विचारों का केन्द्र बनाया।

जयप्रकाश नारायण का जीवन संघर्षों का प्रतीक था। वे जानते थे कि समाज को जागृत करने के लिए संघर्ष ही सबसे बड़ा उपहार है। उन्होंने जीवनभर सत्ता के सामने खड़े होकर सत्य का दंड दिया। जेल की सजा उनके लिए केवल व्यक्तिगत पीड़ा नहीं थी, यह सत्य की एक नई राह थी, जिसे उन्होंने अपने कंधों पर उठाया। उनका यह साहस और दृढ़ता आज भी पीढ़ियों को प्रेरित करती है।

उनका व्यक्तित्व साधारण था, पर उनकी सोच विशाल थी। उन्होंने राजनीति को धर्म के रूप में देखा और धर्म को राजनीति में परिणत किया। उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था—सत्ता का उद्देश्य सेवा है, सत्ता का आधार जनता है, और सत्ता का मूल्य नैतिकता है। यही विचार उन्हें राजनीति के एक साधारण क्रांतिकारी से महान विचारक बना गया।

उनके जाने के बाद यह प्रश्न हमेशा बना रहता है—क्या हमने उनका सपना पूरा किया? क्या राजनीति आज भी उस नैतिक धरातल पर है जिसे उन्होंने स्थापित करने का आग्रह किया था? वर्तमान में सत्ता का खेल अक्सर दलगत विरोध और व्यक्तिगत लाभ का रूप ले लेता है, जहाँ जनता के हित की अपेक्षा सत्ता की बचत अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। इस यथार्थ ने जयप्रकाश नारायण के विचार को और भी प्रासंगिक बना दिया है।

वे चाहते थे कि लोकतंत्र केवल चुनावी प्रक्रिया न हो, बल्कि वह जनमानस की एक सतत प्रक्रिया हो—जहाँ हर नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो, अपने कर्तव्यों के प्रति सजग हो। वे मानते थे कि लोकतंत्र केवल मत देने तक सीमित नहीं रहना चाहिए; यह नागरिकों के भीतर चेतना, नैतिकता और सेवा की भावना पैदा करने का मार्ग होना चाहिए। यही कारण है कि उनका नाम आज भी ‘जननेता’ से ऊपर है—वे एक चेतना निर्माता थे।

जयप्रकाश नारायण के विचार हमें यह स्मरण कराते हैं कि लोकतंत्र केवल सत्ता का वितरण नहीं है, बल्कि यह समाज की आत्मा का विस्तार है। उन्होंने अपने जीवन में यह साबित किया कि यदि सत्य और नैतिकता की नींव मजबूत हो, तो सत्ता का कोई भी रूप जनहित का साधन बन सकता है। उन्होंने जो मार्ग दिखाया, वह केवल उनके समय का नहीं, आज के समय का भी है—एक ऐसा मार्ग जो प्रत्येक नागरिक को अपनी जिम्मेदारी याद दिलाता है।

उनकी पुण्यतिथि पर हमें यह सवाल खुद से पूछना चाहिए—क्या हम अपने भीतर की उदासीनता और भ्रष्टाचार को दूर करने का साहस रखते हैं? क्या हम समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को केवल शब्दों में नहीं, कर्म में निभा रहे हैं? जयप्रकाश नारायण हमें यह चुनौती देते हैं कि हम न केवल सत्ता के स्वरूप को बदलें, बल्कि अपने भीतर के सत्ता-संस्कार को भी बदलें।

उनकी स्मृति हमें एक नई चेतना की ओर ले जाती है—एक ऐसी चेतना जो केवल राजनीतिक परिवर्तन तक सीमित नहीं है, बल्कि वह सामाजिक और नैतिक पुनर्जागरण तक फैलती है। वे हमें याद दिलाते हैं कि सच्ची क्रांति केवल बाहरी बदलाव से नहीं, बल्कि आंतरिक परिवर्तन से होती है। उनके विचारों की प्रासंगिकता आज उतनी ही तीव्र है जितनी उनके समय में थी।

जयप्रकाश नारायण का जीवन और उनका विचार हमें यह सिखाता है कि मृत्यु केवल शरीर का अंत है, विचारों का नहीं। उनका संदेश आज भी हमारे भीतर गूंजता है—न्याय, समानता, सेवा और सत्य की पुकार। उनकी पुण्यतिथि हमें एक नई यात्रा पर निकलने का अवसर देती है—एक ऐसी यात्रा जो केवल उनके आदर्शों का स्मरण नहीं करती, बल्कि उन्हें जीवन में उतारने की दिशा में अग्रसर होती है।

वे आज हमारे साथ नहीं हैं, पर उनका सपना हमारे भीतर जीवित है। यह सपना किसी एक व्यक्ति का नहीं, यह भारत की आत्मा का सपना है—एक ऐसा भारत जो न्याय, समानता और स्वतंत्रता की गहराई में सांस लेता है। जयप्रकाश नारायण की पुण्यतिथि केवल स्मरण का दिन नहीं है, यह उनके विचारों को पुनः जीने का दिन है। उनके द्वारा दी गई प्रेरणा हमें याद दिलाती है कि सच्चा देशभक्त वह है जो सत्ता से डरता नहीं, सत्य के लिए खड़ा होता है।

उनका जाना इतिहास का एक अध्याय नहीं, बल्कि एक नए अध्याय की शुरुआत है—जहाँ हर नागरिक अपने भीतर के जयप्रकाश को पहचानता है और अपने देश को एक सम्पूर्ण क्रांति की ओर ले जाता है। उनकी स्मृति हमारे लिए एक जीवन-दर्शन है, और उनका आदर्श हमारे लिए एक अमिट प्रेरणा।

इस पुण्यतिथि पर उनका स्मरण न केवल श्रद्धा का विषय है, बल्कि यह एक प्रतिज्ञा है—एक प्रतिज्ञा कि हम सत्य, न्याय और सेवा के मार्ग पर चलते रहेंगे और उनके सपनों को साकार करेंगे। जयप्रकाश नारायण का जीवन यही बताता है कि राष्ट्र केवल मिट्टी और सीमा नहीं है, यह विचारों और आदर्शों का निर्माण है।

उनकी पुण्यतिथि पर यह सुनिश्चित करना हमारा कर्तव्य है कि उनका सपना सिर्फ स्मृति न बनकर, वास्तविकता का रूप ले। यही होगा उनकी पुण्यतिथि का सच्चा सम्मान—जब हर नागरिक अपने भीतर के जयप्रकाश को जगाकर, एक नया भारत निर्माण करेगा।

।। तीन ।।

जयप्रकाश नारायण केवल एक राजनीतिक विचारक या जननेता नहीं थे, वे एक गहन संस्कृति चिंतक थे, जिन्होंने अपने चिंतन और संघर्ष में भाषा और संस्कृति को लोकतंत्र की आत्मा से जोड़ा। उनके विचार में भाषा और संस्कृति केवल संचार के साधन नहीं थे, बल्कि एक राष्ट्र की आत्मा और उसकी पहचान के मूलाधार थे। वे मानते थे कि भाषा किसी समाज की आत्मा का दर्पण है और संस्कृति उसका प्राण। इस दृष्टि से उनका दृष्टिकोण भाषा और संस्कृति को केवल संरचना नहीं, बल्कि संवेदना और चेतना का हिस्सा मानता था।

उनके लिए भाषा का अर्थ केवल व्याकरण, शब्द और उच्चारण नहीं था। भाषा उनके विचार में समाज की सोच, उसकी भावनाएँ, उसकी चेतना और उसकी स्वाधीनता का प्रतीक थी। वे जानते थे कि जब तक कोई भाषा जीवित है, तब तक उस भाषा में पल रही संस्कृति जीवित रहती है। इसीलिए उन्होंने यह बार-बार कहा कि भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं है, यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अनुभव, विचार और संवेदना पहुँचाने का आधार है। उनका मानना था कि मातृभाषा ही व्यक्ति को उसकी सांस्कृतिक जड़ से जोड़ती है और वह जड़ जब टूटती है, तो समाज का मनोबल क्षीण हो जाता है।

जयप्रकाश नारायण के दृष्टिकोण में संस्कृति केवल कलाओं, रीति-रिवाजों या परंपराओं का संग्रह नहीं थी। संस्कृति उनके लिए जीवन का जीता जागता स्वरूप थी—एक ऐसी जीवनशैली जिसमें समाज के मूल्य, नैतिकता, आपसी संवाद, और सामाजिक उत्तरदायित्व शामिल होते हैं। वे मानते थे कि संस्कृति केवल संरक्षण की वस्तु नहीं है, वह परिवर्तनशील होती है, पर उसका मूल आत्मा अपरिवर्तित रहता है। यही कारण है कि वे भाषा और संस्कृति को स्थिर नहीं, बल्कि गतिशील मानते थे—एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें परंपरा और नवीनता दोनों का संतुलन बना रहे।

उनका मानना था कि भाषा और संस्कृति एक राष्ट्र के लोकतांत्रिक स्वास्थ्य का सूचक हैं। उन्होंने कहा था कि जब तक भाषा जन-जन की पहुँच में नहीं होगी, तब तक लोकतंत्र अधूरा रहेगा। इसलिए उन्होंने शिक्षा और जनचेतना के माध्यम से मातृभाषा को संरक्षित करने पर जोर दिया। वे जानते थे कि शिक्षा केवल ज्ञान का आदान-प्रदान नहीं है, वह संस्कृति के हस्तांतरण का माध्यम है। भाषा के बिना संस्कृति का संवाहन संभव नहीं। इसलिए उनका प्रयास था कि भारतीय भाषाएँ सिर्फ बोली या लिखी जाने वाली चीज़ न रहें, बल्कि वे समाज के हर क्षेत्र में सक्रिय हों—शिक्षा में, साहित्य में, विज्ञान में और सार्वजनिक संवाद में।

जयप्रकाश नारायण के विचार में संस्कृति का एक आयाम और भी गहन था—यह समाज की नैतिक चेतना थी। वे मानते थे कि संस्कृति का मूल्य केवल अपनी पहचान बनाए रखने में नहीं, बल्कि उसमें न्याय, समानता और सहिष्णुता के मूल्यों को बनाए रखने में है। यही कारण है कि उन्होंने भाषा और संस्कृति को लोकतंत्र के लिए अनिवार्य माना। उनका दृष्टिकोण यह था कि यदि भाषा और संस्कृति कमजोर हो जाएं, तो लोकतंत्र भी खोखला हो जाता है।

वे जानते थे कि आज के युग में भाषा और संस्कृति पर संकट मंडरा रहा है—वैश्वीकरण, तकनीकी प्रगति और एकरूपता की धारा में भाषाएँ और संस्कृति जोखिम में हैं। इस संकट का सामना करने के लिए उन्होंने स्थानीय भाषाओं और सांस्कृतिक धरोहरों को सशक्त करने की आवश्यकता पर बल दिया। उनका यह विश्वास था कि जब तक समाज अपनी भाषा और संस्कृति को जीवित रखता है, तब तक वह अपनी स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय की भावना को भी जीवित रखता है।

जयप्रकाश नारायण का दृष्टिकोण भाषा और संस्कृति को केवल संरक्षण की वस्तु मानने से आगे था—वे इसे लोकतंत्र की आत्मा का अभिन्न हिस्सा मानते थे। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भाषा और संस्कृति को सिर्फ संग्रहालयों में बंद नहीं रखना चाहिए, बल्कि उन्हें जीवंत बनाए रखना चाहिए—रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में, सार्वजनिक जीवन में और नागरिक संवाद में। उनके अनुसार भाषा और संस्कृति केवल अतीत का स्मारक नहीं हैं, वे भविष्य की नींव हैं।

उनकी यह सोच हमें यह समझने पर मजबूर करती है कि भाषा और संस्कृति केवल साहित्य या कला के मुद्दे नहीं हैं, वे सामाजिक न्याय, समानता और लोकतंत्र के सबसे गहरे आधार हैं। जयप्रकाश नारायण ने इस दृष्टि से भाषा और संस्कृति को नागरिक अधिकार का रूप दिया—एक ऐसा अधिकार जो हर नागरिक को अपनी जड़ से जोड़ता है और उसे लोकतंत्र में सक्रिय भागीदार बनाता है।

उनका यह भी मानना था कि भाषा और संस्कृति का अधिकार केवल संरक्षण का मामला नहीं है, बल्कि यह एक सक्रिय प्रयास है—एक प्रतिबद्धता है जो प्रत्येक पीढ़ी को अपनी पहचान, अपनी अस्मिता और अपने भविष्य के लिए निभानी होती है। इसीलिए उन्होंने भाषा और संस्कृति के सवाल को राजनीतिक और नैतिक दोनों रूपों में उठाया।

उनके लिए भाषा और संस्कृति केवल शब्दों और परंपराओं का विषय नहीं थे, वे एक जीवन दृष्टि थे। उनका यह दृष्टिकोण हमें याद दिलाता है कि भाषा और संस्कृति की रक्षा केवल सांस्कृतिक प्रेम नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की रक्षा है। जयप्रकाश नारायण का जीवन और उनके विचार हमें सिखाते हैं कि भाषा और संस्कृति केवल इतिहास का हिस्सा नहीं हैं—they are the living voice of a nation’s soul.

उनकी पुण्यतिथि पर उनका स्मरण हमें यह प्रश्न देता है—क्या हम अपनी भाषा और संस्कृति को सिर्फ स्मृति में रखते हैं, या उन्हें जीकर भविष्य की नींव बनाते हैं? जयप्रकाश नारायण का उत्तर स्पष्ट था—भाषा और संस्कृति को जीवित रखना ही लोकतंत्र को जीवित रखना है। और यही उनका सबसे बड़ा उपहार है, जिसे हमें संवेदनाओं के साथ स्वीकार करना है और आगे बढ़ाना है।


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