— कुमार कलानंद मणि —
सन 1922 में गांधीजी को यरवदा जेल में रखा गया था। जेल के सुपरिटेंडेंट मेजर जोंस को लगा कि गांधीजी के कमरे का फर्श थोड़ा नीचे होने के कारण गीला रहता है। यूरोपीय कैदियों को रखे जानेवाले कमरे में गांधीजी को रखा जाए। ऐसे कमरे का फर्श ऊंचा था। बरामदा था। सामने फूल लगे थे। मेजर जोंस ने प्रस्ताव रखा। गांधीजी ने स्वीकार किया। उनकी जगह बदल दी गई ।
उसी शाम गांधीजी ने अपने साथी शंकरलाल से कहा “हमें अपनी कोठरी में वापस जाना चाहिए। हमने यहां आकर अच्छा नहीं किया। सुपरिटेंडेंट के पास कैदियों की जगह के फेरबदल का अधिकार है। किंतु मेरे लिए नहीं है। मेरे लिए तो जगह सरकार ने निश्चित की होगी। उसे बदला नहीं जा सकता है। सुपरिटेंडेंट से जरूर गलती हुई है। सरकार को इसका पता चला तो उनपर मुसीबत आएगी। मेरा धर्म है उन्हें बचाना।”
यह बात सुपरिटेंडेंट के सामने रखी गई। पहले उनकी समझ में नहीं आया। वे बोले, मैं सुपरिटेंडेंट हूं, मेरे पास अधिकार है। सरकार को मेरा काम पसंद नहीं आएगा और वह मेरे काम में दखल देंगे तो मैं इस्तीफा दे दूंगा। गांधीजी “तुम कहते हो ऐसा अधिकार तुम्हारे पास है, किंतु सामान्य कैदियों के लिए। यदि मेरे लिए हो, तो भी हमें वापस पुरानी जगह रख दीजिए।” दोनों ही अपनी बात पर अड़े रहे।
अंत में गांधीजी ने कहा “मैं तुम्हारी भावना समझता हूं। उसकी कद्र भी करता हूं। परंतु सरकार की क्या इच्छा है, उसे जान लें तो अच्छा होगा। फिलहाल हमें वापस पुरानी जगह ले चलो। गृहमंत्री से बात करो। यदि हमारी चिंता बेवजह है, पता चले तो हमें वापस यहां ले आना।”
गांधीजी के इस प्रस्ताव से मेजर सहमत हुए। उन्हें कमरे में वापस भेजा गया। तीन-चार दिन बाद मेजर जॉन्स आए। गांधीजी की दृष्टि और चिंता के लिए आभार प्रदर्शित करने लगे। “आपकी बात सच निकली। यहां आपको रखना सरकार की ओर से निश्चित हुआ था। सरकार की मंजूरी के बिना यदि आपको दूसरी जगह रखा जाता तो मैं अच्छी खासी मुश्किल में पड़ जाता। मैं भी एक प्रकार का हठी आदमी हूं। सरकार मेरे निर्णय को ना मानती तो मुझे इस्तीफा ही देना पड़ता। आपकी सही सलाह के लिए मैं आपका बहुत-बहुत आभारी हूं।”
फादर स्टेन स्वामी अपनी गिरफ्तारी के पूर्व से पार्किन्संस नामक असाध्य बीमारी से ग्रसित थे। जेल मैन्युअल के आधार पर उनके जीवन की रक्षा करना यह जेल अधिकारी/सरकार/न्यायपालिका का काम था। न्यायपालिका नागरिक अधिकारों की सरंक्षक है। फादर स्टेन की मृत्यु संवैधानिक खोखलेपन को उजागर करती है।