अनुपम की पाँच कविताएँ

1

1. सर्वोदय दैनन्दिनी पर गांधी छवि 

 

हे महान !

क्या पड़ी थी आपको

उजड़े घर बसाने की

करुणा हो जाने की

बुद्ध मूसा, ईसा, मोहम्मद

सबको आत्मसात कर परमहंस

जहाँ पहुँचे ध्यान कर

वहाँ यों ही पहुँच जाने की

आधी पहने आधी ओढ़े एक ही धोती! रोज पूछता हूँ

इस चौकन्नी छवि से …

 

हाय! हाय!

यह गांधी है! महात्मा गांधी!

इस अति साधारण मुद्रा में

किसान लग रहा है

धुनिया, बुनकर, मेहतर, कमकर

लुहार लग रहा है :

मेरी नजर क्या विक्षिप्त हो गयी है?

बाबा रामदेव का सूरमा

भी इस सूरमा के आगे तेल हो गया?

मैं आँखें धोकर आता हूँ …

 

अब

यह मेरे मकान के पीछे का दलित कुम्हार

लग रहा है : जो धोती का कोर

कंधे पर छोड़

अजान बाहुओं से

चाक घुमा

चाक पर उठाकर पृथ्वी

रख रहा है …

 

कबीर मठ में बैठा

मैं अपनी आँखें मल कर नजर साफ करता हूँ

सामने टैगोर की मूर्ति

सिल्वर कलर की

शानदार शेरवानी में अदा से झुकी

जानदार रवानी में

बापू की सीधी साँवली मूर्ति से

जोरदार बहस कर रही है

आधी धोती को सम्हाल कर ओढ़े

बापू की मूर्ति

शिशुवत मुस्कुरा रही है

और यह मुस्कुराहट मुझे जीने नहीं देती

मरने नहीं देती

बेफिक्र हो कर कुछ करने नहीं देती

हाय! हाय! बापू

मैं तुमसे छूटना चाहता हूँ

 

इस कोशिश में

इतिहास खँगालता हूँ

कभी तो चुरायी होंगी बकरियाँ

दूध ही सही

उँचे दाम पर बेचा होगा दही?

कुछ हो तो मिले !

 

पी लिया शीशा पिघलता

सत्य का

वह मरा

न मरेगा

जो सत्य था

 

बुद्ध ने देखा सत्य

तो पाया अपनी देह का विस्तार

क्षितिज से क्षितिज तक :

आप तो धरती के नीचे

हथेली बनकर लेट गये

बिछ गये

नुच गये

गिलहरियों के घर बनाने के लिए

पाँवपोश की तरह

 

क्यों कहा सर्वोदय?

बहस कर रहे हैं बुद्धिमान

जबकि जानते थे आप

नीचे नदी की कहानियाँ

पहुँचती हैं

जो पीढ़ियों में

लोक कथाओं में विकसती हैं

और ऊपर ही रोक ली जाती है धार…

 

चल रही है बहस…

इनका सामने रहना खतरों भरा है

यह खतरा जरूरी है

ये याद दिलाते रहते हैं कि

इंसान कपड़ा नहीं है

और कपड़ों से पहचाने जाने वाले

सभी मनीषी

असमंजस में दिखने लगते हैं;

यह है आपकी धारदार अहिंसा!

 

जो मानवीय मुस्कान में जीत लेती थी अंग्रेजी सेना

और भस्म कर रही है

हैवानियत के निशान!

चलने दो बहस …

 

इस पुरनिया की तस्वीर को

सामने ही रहने दो !

 

यह याद दिलाती है

कि ये हैं

ऐसे ही हमारे सामने

ऐसे ही मुस्कुराते

सबसे निचले प्राणी की

कुचली वेदना का प्रतीक

असाधारण लम्बी भुजाओं

साधारण मजदूर

अँगुलियों को प्रणति मुद्रा में

एक दूसरे में फँसाये

नंगे सीने पर टिकाये

 

आधी धोती का छोर

दायीं कलाई पर सम्हाले

कुर्सी के काठ से कुहनी जमाये

गोल चश्मे के भीतर से

सत्य के भी

 

सत्य को देखने दो !

 

2. चीटियाँ

 

गफलत में

मिल गयी है सत्ता !

ये सरकार का वोट बैंक नहीं।

और गलतफहमी

जल्दी ही टूट गयी, जब कुर्सी के नीचे भूर फोड़ कर चीटियाँ निकलने लगीं;

 

बूटों तले मसल दो

रबर की गोलियाँ चलवाओ या बड़ी बोलियाँ

 

वे जो उच्च शिक्षा पा रहे हैं

उन पर जाहिल सिपाहियों से लाठीचार्ज कराओ।

 

कुछ भी कर लो

चीटियाँ रुकेंगी नहीं!

 

जमीन में धसक रहे हैं पाए

फर्श फोड़ कर निकल रही हैं,

दीवारों से

छत से

नींवों से चीटियाँ ही चीटियाँ।

 

3. पितृ पक्ष 

 

 

बचपन से एक मृत्यु बोध

मुझे जकड़े हुए है

जो उम्र के साथ

गहरा होता गया है

श्मशान

उद्यान से ज्यादा खींचते रहे हैं

जैसे कोई जख्म

हरा होता गया है।

 

सदा ही कल्याणमय पितर

इस समय

लौट आते हैं

भूमि पर।

 

जीवन

इतना सुन्दर नहीं

कि जिए जाएं

जहाँ कहीं

छाया हो

पेड़ की

या रेंड़ की।

 

इस साल माँ गयी

और गुजरे सालों में

गये पिता और भाई

और कुछ  मित्र भी

जाना भी कैसा

जाकर भी

जा न पाये कहीं।

 

तुम वादा करो

मेरे बाद जाओगे

मेरे बाद आए हो

वादा निभाओगे।

 

यह मृत्यु बोध

मुझे खुलकर जीने नहीं देता

जहर हो या अमृत

जी भर पीने नहीं देता।

 

यह न तो मुझे बुद्धू

बनने देता है

न बुद्ध

तेजाब सा मुझे

दिन रात जलाता है

करता रहता है

अति शुद्ध।

 

आओ जी लें

क्योंकि

मर जाना है

तुम्हें भी

मुझे भी।

4. चिड़िया 

 

चिड़िया गाएगी

तुम सुनो या न सुनो

 

गाना उसका काम भी है

और आराम भी

क्या पता

सिर्फ आराम ही हो

या काम ही

 

लेकिन चिड़िया गाएगी …

 

5. नाच्यो बहुत गुपाल

 

1.

 

वे अब नृत्य नहीं करेंगी

वे गीत नहीं गायेंगी

बोलना और मुस्कुराना

उन्होंने कब से छोड़ दिया है

 

2.

 

नाचना गाना बजाना

बोलना बाँचना

ये गैरकानूनी हरकतें हैं

निजाम की नजर में,

ऐसा हमारे देखे

पहली बार हुआ है

कुछ शिक्षिकाओं के नाचने से

इतना भूचाल आया कि

उन्हें निलंबित किया गया

उन्होंने माफी माँगी

उनपर जाँच हो रही है

 

3.

क्यों न

हर विद्यालय में कला की शिक्षा

बंद कर दें

हर लड़की नाच सीखना बंद कर दे

गीत संगीत साहित्य

सब बंद किए जाएँ

भरत के नाट्य शास्त्र को

पढ़ाना बंद किया जाए

 

4.

 

ये सब बंद कर के

एक खुले समाज की रचना की जाए

जहाँ सबकुछ हो

जिसमें कुछ न हो

देह हो

प्राण न हो

 

मूर्ति हो

कांसे की

पत्थर की

माँस की

 

5.

 

पूजना आसान है

जब सामने तस्वीर हो

जूझना मुश्किल है

अगर तस्वीर में प्राण हो

 

प्राण हो तो कम्पन होगा

कम्पन होगा तो नाचेंगे प्राण

नाचेगी देह के आईने में

आत्मा की छवि

नाचेंगी संगीत की शिक्षिकाएँ

और शिष्य शिष्याएँ

 

6.

 

सिर्फ पाँच महिलाओं ने

अपने अस्तित्व को जी लिया है

और व्यवस्था की नींद उड़ गयी है !

 

क्या उनके तलवे

लाल अलक्तक रँगे थे?

उन्होंने घूँघरू पहने थे?

क्या उनके साथ पूरी धरती ही नाचने लगी थी?

क्या सिंहासन

डोल गया शासन का?

 

तब से नाच रहे हैं नव ग्रह

और पृथ्वी के भीतर लावा उबलने लगा है

 

चन्द्रमा

मलिन मुख सुलगता मन लिये

सोच रहा है – जिस ग्रह पर

स्त्रियों को नाचने की भी

आजादी न हो; उससे ओझल हो जाने में

और कितना वक्त बाकी है।

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