— प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन —
दिसंबर की रात के 12 बजे, हाड़ कंपकंपाती सर्दी, कड़कती हुई बिजली, घनघोर बारिश के बीच कम्बल ओढ़े, एक हाथ में छतरी खोले और दूसरे में टार्च जलाए हुआ इंसान ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ दे रहा था कि भाई …… तुम्हारा टेलीफोन आया है।
पुरानी दिल्ली के, एक दूसरे से सटे हुए शामलात मकान जहाँ रात को आवाज़ किसी को भी दो, आस-पड़ोस में रहने वाले सारे बाशिंदे जाग जाते थे। ज्यों ही उनके कान में आवाज़ पड़ती थी कि टेलीफोन आया है, तो बिना जाने ही वे समझ जाते थे कि कोई ‘गम’ की ख़बर आयी है। जिसका टेलीफोन आया था घबराहट में वो आदमी जो भी कपड़ा सामने दिखाई दिया, लपेटकर हांफता हुआ गली में पहुँच जाता था।
बुलाने वाला आदमी कहता, बेटा घबराने की कोई बात नहीं। छतरी के तले, आधा खुद भीगता हुआ कहता छतरी के नीचे आ जाओ, सुधबुध खोता साथ में चलने वाला इंसान कहता नहीं ‘बाऊजी’ आप मत भीगो।
बाऊजी की बैठक में पुराने जमाने का बड़ा सा काला रंग और तार वाला टेलिफोन का चोगा जो अलग से रखा था उस पर साथ आया आदमी ज़ोर-ज़ोर से बोलता ‘हैलो-हैलो’, उधर से ख़बर मिलने पर इधर से बात करने वाला आदमी सुबकने या रोने लगता था। साथ में खड़े हुए बाऊजी उसके सर या पीठ पर हाथ फिरा कर तसल्ली देते हुए कहते थे, ‘बेटे घबराओ नहीं भगवान सब ठीक करेगा। बारिश हो रही है चलो तुम्हारे घर छोड़ दूँ।’ ‘नहीं बाऊजी मैं चला जाऊँगा।’ बाऊजी कहाँ मानने वाले थे, उनको घर पहुंचाकर ही अपने घर पहुँचते थे।
यह किस्सा किसी एक दिन का नहीं था। अक्सर यह दोहराता था। यह मैंने किसी फ़िल्म, उपन्यास, नाटक, अफसाने के मंज़र का ज़िक्र नहीं किया है। यह सचमुच की जीती-जागती हक़ीक़त बयां करती हुई घटना है।
आज से लगभग साठ साल पहले दिल्ली-6 यानी शाहजहानाबाद बादशाहों की रही राजधानी जो ऊँची दीवारों से घिरी हुई, जिसके चारों ओर दिल्ली गेट, तुर्कमान गेट, अजमेरी गेट, लाहौरी गेट, मोरी गेट, कश्मीरी गेट नाम के बुलंद दरवाज़े हिफाजत के लिए बने हुए थे। जिसे शहर की जबान में फसील कहा जाता है। इसके अंदर ही लालकिला, जामा मस्जिद, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन आते हैं। मज़हबी एकता की शानदार मिसाल जो लालकिले के परकोटे के सामने से शुरू होते हुए चाँदनी चौक में एक क़तार में जैन लाल मंदिर, गौरीशंकर मंदिर, चर्च, गुरद्वारा सीसगंज साहिब, फतेहपुरी मस्जिद तक जाती है।
गली, मोहल्ले, कूचे, बाड़ा, कटरों, सराय, पुरानी इमारतों, हवेलियों, लखौरी छोटी ईंटों से बने, एक दूसरे से सटे हुए छोटे-बड़े, दो सौ-तीन सौ साल पुराने मकानों की गलियाँ जिनमें दो आदमी एक साथ निकल नहीं सकते। उस वक़्त मोबाइल, इंटरनेट, कम्प्यूटर वगैरह की ईजाद नहीं हुई थी। संपर्क के केवल दो साधन, एक लैंडलाइन टेलीफोन, दूसरा शहर का तारघर, जहाँ से तार व टेलीफोन किये जा सकते थे। पूरे शहर में गिने-चुने घरों में टेलीफोन लगे होते थे। मेरा घर जो चाँदनी चैक की एक गली में था उसके पास रायजी चौक, नई सड़क में एकमात्र टेलीफोन ‘बाऊजी’ अर्थात् रामचंद भंसाली के घर में लगा था। इनका मकान इलाके़ के बड़े रकबे या यों कहें, छोटे-मोटे रजवाड़े जैसा था।
आसपास के कई फर्लांग इलाके़ में टेलीफोन सबसे पहले इनके घर ही लगा था। इज्जतदार व मालदार होने के बावजूद इनकी विनम्रता का कोई सानी नहीं था। मोहल्ले के हर आदमी को कहते थे तुमने टेलीफोन का नंबर लिख लिया है ना, बिना हिचक के मेरे यहाँ टेलीफोन करवा देना, रात हो या दिन, इसकी परवाह मत करना। इलाके़ के लोग उनके टेलीफोन नंबर को बहुत सहेज कर, मोटे-मोटे अक्षर में लिखवाकर अपने घर में एक कोने में लटका लेते तथा अपने सभी जानकार, रिश्तेदारों को उनका टेलीफोन लिखवा दिया करते थे। उस समय लोग बड़ी शान से पी॰पी॰ लिखकर टेलीफोन नं. अपने विजिटिंग कार्ड पर लिखवा लेते थे।
बाऊजी का टेलीफोन सारे मोहल्ले का अपना टेलीफोन बन गया था। दिन में वे अपने दोनों बेटों प्रकाश तथा ज्ञान व कर्मचारियों को, जिनका टेलीफोन आया होता, उनके घरों पर सूचना देने भेज देते थे।
यह भी संयोग है कि हमारे आसपास सबसे पहले, एम्बैसडर कार भी बाऊजी ने ही खरीदी थी। उस जमाने में कार का बहुत बड़ा रुतबा होता था। पर इस मामले में भी बाऊजी का कोई सानी नहीं था। उनकी विनम्रता इस हद तक थीं कि हर मिलनेवाले से कहते ‘लाला’ तुम्हारी कार दरीबा के बाहर चार हाथीखाना में खड़ी है। उस लोहे के डिब्बे में पैर रखकर उसको पवित्र तो कर दो। उस समय एक रिवाज़ ओर था, शादी में अगर दूल्हन कार से विदा होती थी, तो उसको बड़ी इज्जत से देखा जाता था। बाऊजी पहले से कह रखते थे, ‘बहू’ कार में ही आएगी। सुबह ही गेंदे के फूल से सजाकर कार तैयार रहती थी।
छोटी-मोटी चोट, कटने-फटने पर मलहम-पट्टी करने के लिए एक अलमारी में फर्स्ट एड का पूरा सामान भी रखा हुआ था। घायल के आते ही बाऊजी अपना सारा काम छोड़कर डॉक्टर बन जाते थे।
बाऊजी का छोटा बेटा ज्ञान मेरा बचपन का दोस्त है, हम दोनों एक साथ ही दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने गए थे। ज्ञान ने श्रीराम कॉलेज ऑफ कामर्स में बी. काम. ऑनर्स तथा मैंने किरोड़ीमल कॉलेज में हिस्ट्री ऑनर्स में दाखिला ले लिया था। बाऊजी ने ज्ञान को कॉलेज जाने के लिए सफे़द रंग की एक खूबसूरत मोटर साइकिल ख़रीद कर दी थी। इसके बाद उन्होंने मुझे बुलाकर कहा, तुम दोनों एक साथ यूनिवर्सिटी जाया करो तथा साथ ही हिदायत भी दी, मोटर साइकिल तेज़ मत चलाना, बड़े ध्यान से चलाना वगैरह-वगैरह। परंतु अपने-अपने कारणों से मैं और ज्ञान अक्सर ही यूनिवर्सिटी अलग जाते थे। ज्ञान जवानी भरे उन दिनों के मुताबिक जाया करता था।
पर अलग जाने का मेरा दूसरा ही कारण था, एक तो सोशिलस्ट अहं तथा दूसरे लालकिले के सामने बने हुए बस स्टैंड का आकर्षण।
उस समय पुरानी दिल्ली में रहनेवाले छात्रों को यूनिवर्सिटी ले जाने के लिए वहाँ पर बस स्टैंड बना हुआ था। गिनती की बसें चलती थीं, बस में बहुत भीड़ रहती थी। 4ए, 9ए, 9 बी, 21, 21बी नंबर की जनरल बसें तथा कुछ यूनिवर्सिटी स्पेशल मिलती थीं। वहाँ का नज़ारा देखने लायक होता था। पूरे शहर के छात्र-छात्राएँ लाइन लगाकर खड़े होते थे, लाइन इतनी लंबी होती थी कि वह कई बार दोहरी-तिहरी हो जाती थी। दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ का उपाध्यक्ष होने के नाते दिल्ली यूनिवर्सिटी में होनेवाले छात्र आंदोलनों, धरने, घेराव, जुलूस गिरफ्तारियों सभाओं में मैं हमेशा हरावल दस्ते में रहता था। उत्तेजक भाषण देने में भी माहिर हो चुका था।
उन दिनों इंटर कॉलेज डिबेट का भी ज़बरदस्त क्रेज था। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में कॉलेज के हॉल भरे रहते थे, अक्सर कोई न कोई पुरस्कार मेरे हाथ लग जाता था। इस कारण शहर के अधिकतर छात्र मुझे जानते थे, मेरे बस स्टैंड पर पहुँचते ही मेरे इर्दगिर्द छात्रों का मजमा लग जाता था। यूनिवर्सिटी में क्या हो रहा है हमारी मांगों का क्या हुआ, क्या हड़ताल होगी वगैरह सवालों का जवाब मैं देता था। उस समय बस स्टैंड की अहमियत की एक और वजह होती थी। उस दौर में लड़के-लड़कियों के आपस में घुलने-मिलने, बात करने की गुंजाइश बहुत कम होती थी। मिलने का यही एक स्थान होता था। शहर की भाषा में इसे ‘आँख मटक्का’ चल रहा है कहा जाता था।
बाऊजी अक्सर पूछते रहते थे, साथ जा रहे हो ना, मैं बिना पल गँवाए झूठ बोलता, हाँ बाऊजी।
बाऊजी मारवाड़ी रईस परिवार से थे। 1853 में बनी, गोटे-किनारी बनानेवाली कदीमी फर्म, ‘कन्नूजी माठूमल एण्ड कंपनी’ की खासियत इस बात से पता चलती है कि दिल्ली में 1927 में पहला ‘इलैक्ट्रिकल,इण्डस्ट्रियल कनैक्शन’ इनकी फर्म को मिला था।
खद्दर की सफे़द धोती, कुर्ता, टोपी पहनने वाले भंसाली जी, इलाके़ के मौजिज कांग्रेसी भी थे। कांग्रेस अथवा मोहल्ले के किसी भी कार्यक्रम का आयोजन इनके घर पर ही होता था। इलाके़ के निवासियों ने बाऊजी के बार-बार मना करने के बावजूद उनको मोहल्ला सुधार कमेटी का सदर बनाए रखा।
होली के मौके पर बाऊजी के घर पर जो समां बँधता था वह देखने लायक होता था। हवेली में खूबसूरत इटालियन टाइल से बना एक हौज (एक प्रकार का छोटा घरेलू स्वीमिंग पूल) बना हुआ था, होली के पहले ही एक बोरी केशू के फूल की आ जाती थी, उन फूलों को रात में ही पानी भरे हौज में डाल दिया जाता था, सुबह पानी में पड़े हुए केशू के फूल का रंग केसरिया और खुशबूदार हो जाता था। होली वाले दिन सुबह ही सिल-बट्टे पर चंदन की घिसाई होती थी। मोहल्ले के बाशिंदे किसी भी जात, पेशे के हों, उनकी माली हालत कैसी भी हो, होली खेलने के लिए हवेली के मैदाननुमा आँगन में पहुँच जाते थे।
हौज में पिचकारी, लोटे,बाल्टी से केसरिया पानी लेकर लोग एक दूसरे पर जी भर के फेंकते थे। ज़ाहिर है कि शहर की लजीज मिठाई, विशेषकर गुजिया के बिना तो ये त्योहार बेमजा रह जाता। ठंडाई तो बनती ही थी, आनेवाले इसका लुफ्त उठाते। और अंत में बाऊजी हर एक के माथे पर चंदन का टीका लगाकर, गले लगाकर विदा करते।
सवा आठ बज गए हैं, “यह आकाशवाणी है, अब आप देवकीनंदन पांडेय से समाचार सुनिए।” इससे ही पहले आठ बजे गली-मोहल्ले के क़रीब-क़रीब सभी बुजुर्ग बैठक में इकट्ठा हो जाते थे, जिस रेडियो पर समाचार सुने जाते थे उसके आकार-प्रकार, रंग-रूप को देखकर लगता था कि शायद जब पहले-पहले रेडियो आया होगा तो यह उसी जमाने का है। खबरों के बाद बैठक में आजकल के हालात पर तप्सरा शुरू हो जाता था।
हवेली के सामने का चौक इलाके़ का सबसे बड़ा खाली मैदान था। वक़्त-वक़्त पर होनेवाली कथा-सांग, सभा में बिजली-पानी का इंतज़ाम बिना कहे बाऊजी के यहाँ से ही होता था।
कितना बदलाव आया है तब में और अब में। उस वक़्त का रईस आदमी अपने पुरखों की याद में अपनी दौलत से स्कूल, कॉलेज, धर्मशालाएं, प्याऊ, औषधालय, कुआँ इत्यादि बनवाना अपनी फर्ज़ अदायगी समझता था। दौलत के बल पर अपनी शान-शौकत का इज़हार करने से परहेज़ करता था। परंतु आज हम देखते हैं कि नये-नये मालदार बने ये धन-पशु दूसरों की इज्जत, मदद तो छोड़िए दूसरों को बेवकूफ, बेसहूर, अपढ़, गंवार कमतर सिद्ध करने का प्रयास भी करते हैं।
परंतु समाज हमेशा रामचंद भंसाली अर्थात् बाऊजी जैसे सहज, सबकी कद्र करने वाले, दयालु, नेकदिल इंसान को आदर देता आया है।