— परिचय दास —
गोरखनाथ की भाषा कोई सामान्य भाषा नहीं है। वह अनुभव की मिट्टी से निकली हुई, असंख्य अस्मिताओं से रगड़ खाई हुई, आंतरिक ताप और अनवरत जिज्ञासा से तपकर बनी एक आत्मभाषा है—जो बोलने से पहले सुनती है जो कहने से अधिक जानने का यत्न करती है। वह भाषा जिसे गढ़ा नहीं गया, बल्कि वह स्वयं गढ़ती गई अपने साधक को—हर बार, जब उसने मौन को स्पर्श किया। गोरखनाथ की वाणी केवल कहने का उपक्रम नहीं है, वह एक उपस्थिति है जो चेतना के तल पर घटती है, जहाँ शब्द बहुधा मौन के माध्यम से संवाद करते हैं। उस भाषा को समझना, अनुभव के उस तल तक पहुँचना है जहाँ सामान्य तर्क और पांडित्य की सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं।
गोरखनाथ के पदों में भाषा ऐसे फटकारती है जैसे भीतर कोई खलल करता हो—जैसे कोई लहर आत्मा को झिंझोड़ती हो। वहाँ शब्द ‘साधना’ का पर्याय नहीं, उसकी छाया हैं। वह छाया जो आत्मा पर पड़ती है तब, जब वह अपने भीतर उतरती है और वहां उसे केवल स्वयं का अनुग्रह नहीं मिलता, एक असहनीय निर्वात भी मिलता है। गोरखनाथ उस निर्वात की भाषा रचते हैं। वह जो भरा हुआ नहीं, बल्कि रिक्त है। गोरखनाथ की भाषा उस विरलता की भाषा है जो भीड़ में नहीं गूँजती, वह अपनी पूर्णता में तब प्रकट होती है जब साधक अकेला हो जाता है—भीतर तक।
इस भाषा में प्रश्न हैं किंतु वे सामान्य अर्थों में प्रश्न नहीं हैं। वे अस्तित्व के द्वार पर खड़े हुए आह्वान हैं। उनकी सबदी व्याकरण नहीं, चेतना का झटका है। यह जीवन के स्थूलपन पर पड़ी हुई एक चेतावनी है। इस एक पंक्ति में वह सब कुछ है जो हमारी समयबद्ध और पदार्थ-केंद्रित दृष्टि पर सवाल उठाती है। यह कोई उपदेश नहीं, न ही कोई तर्कसंगत विमर्श—यह एक काव्यात्मक आघात है, जो पाठक के अनुभव-क्षेत्र को भीतर से आंदोलित करता है।
गोरखनाथ की भाषा अपने समय की भाषा नहीं है। वह समय के विरुद्ध भी नहीं है। वह समय को पार कर जाने की आकांक्षा से जन्मी है। इसीलिए उसके पद वर्तमान के किसी भी आलोचनात्मक ढाँचे में पूरी तरह फिट नहीं बैठते। वे आधुनिकता के औजारों से नापे नहीं जा सकते और परंपरा की सीमाओं में बाँधे नहीं जा सकते। यह भाषा ठहराव की नहीं, आत्म-अन्वेषण की है। यह भाषा है जो जल की तरह बहती है, पर जल की तरह पारदर्शी नहीं—वह चित्त के तल पर जाकर वहाँ हलचल मचाती है। यह भाषा कुएँ की नहीं, समुद्र की है; उसकी गहराई नापने का प्रयास एक जोखिम है और उसी में उसका आकर्षण भी।
इस भाषा में शिल्प है, पर वह शिल्प जान-बूझकर गढ़ा नहीं गया। वह साधना की प्रक्रिया से स्वतः जन्मा हुआ शिल्प है। उसमें छंद हैं, पर वे लय की आज्ञा नहीं मानते। वे उस अनुभूति की धड़कन पर चलते हैं जो शरीर से नहीं, साधना से संचालित होती है। यह भाषा आंतरिक हो उठती है—कभी उपहास की तरह, कभी आग की तरह, कभी प्रश्नचिह्न की तरह और कभी एकदम शून्य की तरह। यह भाषा हमें अटकाती है, और उसी अटकाव में हम अपने भीतर झाँकते हैं।
गोरखनाथ की भाषा केवल ‘कहने’ की प्रक्रिया नहीं है; वह स्वयं एक ‘प्रवेश’ है—एक द्वार, एक गर्त, एक सुरंग, जहाँ से गुजरने पर मनुष्य फिर पहले जैसा नहीं रह जाता। यह भाषा रूपांतरण की नहीं, रूपांतरण की प्रक्रिया का प्रत्यक्ष अनुभव है। वह पाठक को साधक बनाती है, श्रोता को साक्षी में बदल देती है। वह पूछती नहीं, केवल उपस्थित हो जाती है और उपस्थिति की यह ताक़त इतनी गहन है कि वह आत्मा के सबसे चुप कोने को भी जगा देती है।
उस भाषा में न तो संतोष है और न ही असंतोष—केवल एक असहनीय खिंचाव है, जो मनुष्य को उसके मूल की ओर खींचता है। वह मूल जहाँ कोई उत्तर नहीं, केवल मौन है। गोरखनाथ की भाषा उस मौन की दहलीज़ पर बैठी वह अनुभूति है, जो स्वयं को शब्दों में प्रकट करते-करते भी अपूर्ण रह जाती है—और उसी अपूर्णता में पूर्ण प्रतीत होती है।
गोरखनाथ की भाषा को केवल आंतरिक साधना और अद्वैत-प्रवृत्त आत्मानुभव की भाषा कह देना उसके एक पक्ष को ही उजागर करना है। उसका एक दूसरा पक्ष—जो उतना ही मौलिक, उतना ही जीवंत है—वह है प्रतिरोध और विखंडन का। गोरखनाथ की वाणी केवल आत्मा की ऊर्ध्व गति का सूचक नहीं है, वह सामाजिक नियंताओं की दीवारों पर भी चोट करती है। यह वह भाषा है जो जमी-जमाई धार्मिकता, कर्मकांड और पाखंडी साधु-संस्कृति पर खिंचती है, उसे उलटती है, प्रश्न करती है और कभी-कभी मुँह चिढ़ाती है। गोरखनाथ की यह भाषा सिर्फ आध्यात्मिक नहीं, ऐंद्रिक भी है—उसमें जीवन की लपट है, देह की आग है, भूख की अनसुनी थरथराहट है।
जब वह कहते हैं—”मच्छिन्द्र मत लाग्यो पारा”—तो यह एक परंपरा के भीतर से उपजी असहमति है, एक ऐसी वाणी जो अपने ही आचार्य से मतांतर करती है। यहाँ कोई भक्तिपरक भक्ति नहीं, यहाँ एक स्वतंत्र चेतना है जो अपनी राह स्वयं बनाती है जो गुरु को मानती है पर गुरु के मत को अंतिम नहीं मानती। यही वह साहस है जो गोरखनाथ की भाषा को तात्त्विक आत्मकथ्य से आगे ले जाकर एक सामाजिक वक्तव्य में बदल देता है। वे शिष्य नहीं, एक उत्तर-गुरु हैं। वे उसी परंपरा के भीतर रहते हुए, उसके मूल तत्वों का पुनर्लेखन करते हैं—जैसे कोई स्थापत्यशास्त्री पुराने पत्थरों को नष्ट नहीं करता बल्कि उनसे एक नया मंदिर बनाता है जिसमें विधियों का पुनरर्थांकन हो।
उनकी भाषा जन-भाषा है—वह राजभाषा नहीं, पांडित्य की भाषा नहीं, बल्कि उन लोकों की है जहाँ शब्द खेतों में जन्मते हैं और मन में पकते हैं। वह भाषा कभी भी चमत्कारी नहीं बनना चाहती, वह सहज होना चाहती है। गोरखनाथ ‘हठयोग’ का उद्घोषक होते हुए भी हठ को केवल शरीर पर केंद्रित नहीं रखते—वे सामाजिक और भाषिक व्यवस्था के विरुद्ध भी एक हठ की रचना करते हैं। यह हठ एक प्रकार का ‘लोकतांत्रिक तप’ है, जहाँ साधक ब्रह्म से अधिक ब्रह्म की निगरानी करने वाली संस्थाओं पर प्रश्न करता है।
“का मरै का जीयै, का बोलै का खाय?”—यह प्रश्न केवल आध्यात्मिक नहीं, यह उस व्यवस्था पर चोट है जो शरीर और आत्मा को बाँटकर शासन करना चाहती है। यह भाषा उस विभाजन को नहीं स्वीकारती। वह देह को द्वार मानती है, और आत्मा को उसका यात्री। और यही वह दुस्साहस है जो उसे परंपरा में रहते हुए भी परंपरा का संशोधक बना देता है।
गोरखनाथ की यह भाषा स्त्री के प्रश्न से भी मुँह नहीं मोड़ती। वहाँ स्त्री केवल देह नहीं, वह एक अवस्था है—जिससे साधक को संघर्ष करना है, संवाद करना है, और पार भी जाना है। यह भाषा स्त्री की कामनाओं को रेखांकित करती है, न कि उन्हें नकारती है। यहाँ कोई अति नैतिकता नहीं, बल्कि अनुभव की स्वीकृति है—जैसे कोई नदी जो पहाड़ों से होकर, रेतीले मैदानों से होकर, अंततः समंदर में मिलती है और फिर भी अपनी पहचान नहीं खोती।
गोरखनाथ की भाषा में जो व्यंग्य है, वह किसी ‘व्यक्तिगत’ विद्वेष से नहीं उपजता, बल्कि उस ऐतिहासिक निराशा से पैदा होता है जिसमें मनुष्य को बार-बार एक मुक्ति का भ्रम दिया गया, पर वह मुक्ति कभी भी उसकी देह, उसकी भूख, उसकी जात, उसकी आकांक्षाओं तक नहीं पहुँची। वह भाषा एक काव्यात्मक विस्फोट है जो किसी धर्म के विरुद्ध नहीं, धर्म के नाम पर खड़ी की गई दीवारों के विरुद्ध है।
इस भाषा में हास्य भी है, व्यंग्य भी, विडंबना भी, करुणा भी। यह भाषा किसी एक ‘भाव’ में नहीं ठहरती, वह एक ‘भाव-संघात’ है—एक ऐसी टकराहट जहाँ अर्थ स्थिर नहीं रहते, लगातार फिसलते रहते हैं और पाठक या श्रोता को बाध्य करते हैं कि वह स्थिर निष्कर्ष की लालसा छोड़ दे।
यह भाषा केवल अनुभव की नहीं, प्रयोग की भी है। यह भाषा रचती है—शब्दों को, प्रतीकों को, संवादों को, शिल्प को। वह स्वयं अपना व्याकरण है, स्वयं अपना अपवाद। वह भाषा जो अंधकार को भी शब्द देती है और ज्योति को भी संशय के घेरे में खड़ा करती है।
गोरखनाथ की भाषा हमें न केवल भीतर ले जाती है, वह हमें बाहर भी फेंक देती है—एक ऐसे संसार में, जहाँ पुनः भाषा की ज़रूरत है, लेकिन वह भाषा अब तक की किसी भी ज्ञात भाषा से अलग होगी। यह भाषा एक चुनौती है—सिर्फ साहित्यिक नहीं, बल्कि अस्तित्व की।
गोरखनाथ की भाषा समकाल में एक अद्भुत चुप्पी के बीच एक बोलती हुई पुकार की तरह उपस्थित होती है। यह वह भाषा है जिसे आज की शोरगुल और औपचारिकता में दबा देने की कोशिश की गई है फिर भी वह कहीं भीतर बजती रहती है—सदियों पुरानी बांसुरी की तरह, जिसकी धुन पुरानी होकर भी नई है। यह भाषा आज के पाठक को उस रिक्त स्थान की याद दिलाती है जिसे वह जानबूझकर अनदेखा करता रहा है।
आज जब भाषा या तो विज्ञापन बन गई है या विमर्श का छद्म, तब गोरखनाथ की वाणी उस असंभव ईमानदारी की तरह लगती है, जो न किसी प्रबंधन की भाषा है, न किसी पंथ की प्रवक्ता। यह न संत की भाषा है, न विद्रोही की—बल्कि यह उन दोनों के बीच की वह रेखा है जिस पर चलना मनुष्य के लिए एक जोखिम भी है और एक मुक्ति भी।
समकालीन बौद्धिकता में जहाँ भाषाएँ अक्सर वर्ग, जाति, लिंग और सत्ता के पर्यायवाची रूपों में उलझी रहती हैं, वहाँ गोरखनाथ की भाषा इन समस्त ढाँचों को उलटकर रख देती है। वह सीधे उस मूल पर प्रश्न करती है जहाँ से ये सारी व्यवस्थाएँ जन्म लेती हैं। वह किसी ‘इज़्म’ की भाषा नहीं, बल्कि अनुभव और अंतर्दृष्टि की भाषा है—जिसे कोई वाम, कोई दक्षिण, कोई मध्यमार्ग नहीं बाँध सकता।
आज जब कवि आत्म-प्रदर्शन में व्यस्त हैं और आलोचक पद्धतियों के कुहासे में, गोरखनाथ की वाणी किसी प्राचीन वन की तरह सामने आती है—जहाँ कोई रास्ता नहीं दिखता पर चलते जाने से रास्ता बनता है। उनकी भाषा आज के लिए ‘पुरानी’ नहीं है, वह आज की भाषा के खोखलेपन पर सबसे तीखा कटाक्ष है।
गोरखनाथ की वाणी समकालीनता को बाहरी आवरण नहीं, भीतरी आकुलता से मापती है। वह न तकनीक में रुचि रखती है, न तकनीक से उपजी अभिव्यक्ति में। उसका आग्रह उस मानवीय स्थिति पर है जहाँ मनुष्य को ईश्वर से पहले अपने ‘स्व’ को जानना है। वह किसी विमर्श का हिस्सा नहीं बनती, वह स्वयं एक जीवित विमर्श है, जिसे आज का समय अक्सर असुविधाजनक मानकर दरकिनार करता है।
इस वाणी में कोई सत्तात्मक शैली नहीं है। उसमें आदेश नहीं हैं, संवाद है—कभी-कभी खुरदरा, कभी ठिठकता हुआ, पर हर बार दिल से निकला हुआ। यह समकालीन विमर्श की उस भाषा के विरुद्ध खड़ी है जो तथ्यों की भाषा बन चुकी है, लेकिन सत्य की नहीं।
गोरखनाथ की भाषा समकालीनता में आकर सवाल पूछती है—तुम इतने सारे विमर्शों में डूबे हो, लेकिन स्वयं को कहाँ छोड़ा? तुमने कितनी भाषा अर्जित की लेकिन कितनी भाषा भीतर सुनी? वह आज के मनुष्य से आग्रह नहीं करती कि वह किसी दर्शन को अपनाए, वह बस इतना कहती है—सुन और यदि सुन ले तो मौन में उतर जा। आज जब मौन भी एक फैशन हो गया है, तब गोरखनाथ का मौन एक पुकार है—जो तुम्हें तुम्हारे भीतर से बाहर तक खींच लाता है।
इस प्रकार, गोरखनाथ की भाषा न तो पुरानी है, न नई। वह एक चिरंतन संवाद है—जिसे समकालीनता बार-बार टालती है, लेकिन हर पीढ़ी में कोई-न-कोई साधक उसे फिर से सुनता है और उसे जीता है—भाषा से परे, भाषा में होकर भी।