— संजय गौतम —
‘राष्ट्रपिता की पत्रकारिता’ पत्रकारिता के अध्येता एवं व्याख्याता प्रो. अर्जुन तिवारी की लिखी एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। महात्मा गांधी की एक सौ पचासवीं जयंती के अवसर पर आई इस पुस्तक का खास महत्त्व है। गांधीजी की विभिन्न छवियों, आयामों, योगदानों को इस अवसर पर याद किया गया, लेकिन उनके पत्रकारीय सरोकारों को याद करना इसलिए अत्यंत जरूरी था कि लगातार फिसलन की शिकार हो रही पत्रकारिता को उस नैतिक आभा की याद दिलाई जा सके, जिससे जुड़कर गांधी ने न केवल अपना राजनैतिक, सामाजिक लक्ष्य प्राप्त किया, बल्कि दुनिया में अनूठे पत्रकार के रुप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
पुस्तक में गांधी की पत्रकारिता के पूर्व उनके विचारों की सरणि को रोचक तरीके से प्रस्तुत किया गया है, गांधी के प्रति देश और दुनिया के विचारकों की सोच प्रस्तुत की गई है, सत्य की खोज के गांधी के प्रयास की झांकी दिखाई गई है। जाहिर है, उनका पत्रकार रूप भी सत्य की खोज की यात्रा का ही पड़ाव था, इसलिए उन्होंने पत्रकारिता की तत्कालीन दुनिया में व्याप्त तमाम शैलियों को नकार दिया और सामान्य जन की लड़ाई में उसे माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया।
महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में ‘इंडियन ओपिनियन’ का प्रकाशन किया। भारत में ‘यंग इंडिया’, ‘नवजीवन’, ‘हरिजन’ एवं ‘हरिजन सेवक’ का। अपने पत्रों के संबंध में शुरू से ही उनकी दृष्टि स्पष्ट थी। वह अपने जीवन के लक्ष्य को अपने विचारों से प्राप्त करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने पत्रों का प्रकाशन किया। वह जनता के मत को सरकार तक दृढ़ता से पहुँचाना चाहते थे, जनता की कमजोरियों, बुराइयों को आत्मसुधार और आत्मचिंतन के माध्यम से दूर करना चाहते थे, जनता में स्वचेतना का निर्माण कर व्यापक जनमत तैयार करना चाहते थे, आजादी के मूल्य को जीवन का मूल्य बनाना चाहते थे। इसके लिए वे अपने पत्रों में निरंतर लिखते थे और जनता के विचारों को भी महत्त्व देते हुए प्रकाशित करते
थे। पत्रकारिता की तमाम बुराइयों के बावजूद पत्रकारिता की स्वतंत्रता के प्रति उनके मन में तनिक भी संदेह नहीं था। वह मानते थे कि पत्रकारिता कितनी भी स्वच्छंद हो जाए, स्वेच्छाचारी हो जाए, लेकिन सत्ता के द्वारा उसपर अंकुश नहीं लगाया जाना चाहिए। पत्रकारिता में यह अनुशासन उसके भीतर से आना चाहिए और यह कार्य आम जनता कर सकती है। उसके अंदर जागरूकता आएगी तो वह ऐसे पत्रों को नहीं पढ़ेगी, जो अतिरंजना के साथ बुराइयों को परोस कर जन-मन को विकृत करते हैं। गांधीजी ने अपने समय में विज्ञापन की बुराइयों को भी स्पष्ट देखा था और कहा था कि पत्रों में विज्ञापनों से बचना चाहिए, विज्ञापन ज्यादातर झूठे होते हैं और जनता के विचारों को गलत दिशा देते हैं। उनका मानना था कि अच्छे विचारों के विज्ञापनों को बिना शुल्क के प्रकाशित किया जाना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट कहा कि यदि जनता के सहयोग से प्रेस का संचालन संभव नहीं हो तो पत्र को बंद करना ही उचित है। समाचारों और लेखों की सत्यता से समझौता वह किसी कीमत पर नहीं करते थे। उनका मानना था कि पत्रकार को अपने मत का प्रकाशन खुले तौर पर करना चाहिए, उसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए, उसके लिए कोई सजा या जुर्माना सरकार निर्धारित करे तो उसे भुगतना चाहिए और इसके बाद भी सत्य का प्रकाशन संभव न हो तो पत्र बंद कर देना चाहिए। जनता तक सत्य का प्रसार बिना अखबार के भी संभव है।
गांधीजी पत्रकारिता की जादुई शक्ति को स्वीकार करते हुए उसके दुरुपयोग से भी पग-पग पर लोगों को आगाह करते रहे। लेकिन दुरुपयोग पर नियंत्रण के लिए वह एकमात्र जनता पर ही विश्वास करते थे। रहे। उनका दृढ़ मत था कि पत्र जन-सहयोग और जनता के अंशदान से ही निकलने चाहिए, ताकि जनता उसके बेजा इस्तेमाल पर अंकुश लगा सके। उन्होंने ‘कल्याण’ के संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार को तो विज्ञापन किसी भी रूप में न छापने का सुझाव दिया था। उन्होंने पुस्तकों की आलोचना भी न छापने का सुझाव दिया, ताकि लेखकों की प्रशंसा करने से बचा जा सके।
गांधीजी की भाषा नीति का इजहार भी उनके पत्रों के माध्यम से हुआ। ‘इंडियन ओपिनियन’ में चार पृष्ठ अंग्रेजी के, दो पृष्ठ हिंदी के, दो पृष्ठ गुजराती के और दो पृष्ठ तमिल के प्रकाशित होते थे। भारत आने पर ’यंग इंडिया’ अंग्रेजी में प्रकाशित किया तो ‘नवजीवन’ का प्रकाशन गुजराती में किया। ‘हरिजन’ का प्रकाशन हिंदी में पहले किया गया और अंग्रेजी में बाद में। उनका मानना था कि अंग्रेजी में जनमत का निर्माण नहीं किया जा सकता, इसलिए भारत की मातृभाषाओं और हिंदी में पत्रों का प्रकाशन जरूरी है। इसी यात्रा में उन्होंने हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दी और सभी देशवासियों से इसे सीखने का आग्रह किया। सन 1920 में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन हुआ जिसमें गांधीजी के नेतृत्व में हिंदी को राष्ट्रभाषा माना गया।‘ (पृ.197)
लगभग दो सौ पृष्ठों की इस पुस्तक में न सिर्फ गांधी के पत्रकारीय सरोकारों को समेटा गया है, बल्कि उनका पूरा जीवन दर्शन उद्घाटित हो गया है। गांधीजी के पत्रों में व्यक्त किए गए उनके विचार इस किताब में मोती की तरह संयोजित हैं। अपने समय के महत्त्वपूर्ण लोगों जैसे जमनालाल बजाज, मोतीलाल नेहरू, दादा भाई नौरोजी, व्योमकेश बनर्जी, मदन मोहन मालवीय, डॉ अंसारी, सर अकबर हैदरी, लाला लाजपत राय आदि पर गांधीजी के स्पष्ट और संवेदनपूर्ण विचार भी इसमें पढ़ने को मिलते हैं। ‘आजाद हिंद फौज’ के बारे में 24 फरवरी 1946 को लिखी गई टिप्पणी बहुत पठनीय है, “आजाद हिंद फौज का जादू हम पर छा गया है।
नेताजी का नाम सारे देश में गूंज रहा है। वे अनन्य देशभक्त हैं। (वर्तमान काल का उपयोग मैं जानबूझकर कर रहा हूं) उनकी बहादुरी उनके कार्यों में चमक रही है। उनका उद्देश्य महान था- पर वे असफल रहे। असफल कौन नहीं रहा? हमारा काम तो यह देखना है कि हमारा उद्देश्य महान हो और सही हो। सफलता यानी कामयाबी हासिल कर लेना हर किसी की किस्मत में नहीं लिखा होता।
मैं कैप्टन शाहनवाज के इस बयान का स्वागत करता हूँ कि नेताजी का योग्य अनुयायी बनने के लिए हिदुस्तान की धरती पर आने के बाद वह कांग्रेस की सेवा में एक विनीत, अहिंसक सिपाही बनकर काम करेंगे।” (पृ.159)
इस तरह यह किताब हमें स्वतंत्रता आंदोलन के विभिन्न पहलुओं से भी परिचित कराती है। पुस्तक के अंत में ‘इंडियन ओपिनियन’, ‘यंग इंडिया, ‘हरिजन’ और ‘हरिजनसेवक’ के कवर पृष्ठ प्रकाशित कर लेखक ने पाठकों को उन पत्रों के स्वरूप की एक झांकी दिखाई है।
ऐसे समय में जब पत्रकारिता प्रिंट मीडिया के घेरे से आगे जाकर इलेक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया के मैदान में स्वच्छंद कुलांचे भर रही हो; बेहिसाब पूंजी, विज्ञापन और ग्लैमर इसका गुणधर्म बन गया हो, सच्चे पत्रकारों को अपना धर्म निभाने में रोज–रोज मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा हो, राष्ट्रपिता की पत्रकारिता को याद करना उस नैतिक आभा से अपने को जोड़ना है, जो फिसलन भरी राह पर अपना पाँव टिकाए रखने में हमारे आत्मविश्वास को बनाए रखेगा।
पुस्तक – राष्ट्रपिता की पत्रकारिता
लेखक – प्रो. (डॉ) अर्जुन तिवारी
प्रकाशक – वाणी प्रकाशन
21 ए दरियागंज, नई दिल्ली-110002
मूल्य- 145 रु. (पेपरबैक)