
— अरुण कुमार त्रिपाठी —
गांधीजी डा आंबेडकर से सतत संवाद चाहते थे और उन्हें अपने नेतृत्व में सक्रिय करना चाहते थे। पर ऐसा गांधीजी के चिंतन और उससे ज्यादा कांग्रेस के नेताओं की सोच के कारण नहीं हो सका। गांधी हिंदुओं और विशेषकर सवर्ण हिंदुओं का साथ छोड़ नहीं सकते थे और आंबेडकर उनके साथ जा नहीं सकते थे। दूसरी तरफ कांग्रेस के तमाम सवर्ण नेताओं को आजादी की लड़ाई के अलावा सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई की जरूरत ही नहीं महसूस होती थी। यही वजह थी कि गांधी के आंदोलन में आरंभ में शामिल होनेवालेरामास्वामी नायकर उर्फ पेरियार जैसे नेता कांग्रेस से अलग हो गए।
दूसरी तरफ सवर्ण और कट्टर हिंदुओं ने इस मुद्दे पर गांधी का कम विरोध नहीं किया। जब 1933 में येरवदा जेल से छूटने के बाद गांधी ने छुआछूत के खिलाफ पूरे देश में अभियान चलाया तो उनके खिलाफ नारे लगाए गए और सनातनियों ने उन्हें काले झंडे दिखाए। पुणे में एक कार पर यह सोचकर बम फेंका गया कि उसमें गांधीजी यात्रा कर रहे हैं। उस हमले में सात लोग घायल हो गए। परचों में उनकी निंदा की गई और बनारस में उनकी तस्वीरें जलाई गईं। कराची में कुल्हाड़ी लिये एक व्यक्ति पकड़ा गया जो उनपर हमले की तैयारी में था। उनके नजदीकी रिश्तेदारों और मित्रों ने उनसे संबंध तोड़ लिये और काफी बुरा-भला कहा।
गांधी ने 1933-34 के बीच नौ महीनों तक हरिजन यात्रा की और इस दौरान उन्होंने महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, असम, दक्षिण भारत और ओड़िशा को मिलाकर 12,504 मील की यात्रा की जिसका समापन काशी में हुआ। गांधी ने काशी में विशाल रैली को संबोधित किया। उन्होंने जनवरी 1934 में बिहार में आए भीषण भूकम्प के लिए छुआछूत के पाप का दंड बताया। टैगोर ने गांधी पर अतार्किकता को बढ़ाने का आरोप लगाया।
आंबेडकर के विशेषज्ञ डा एमएल कसारे के अनुसार 1 मई 1934 को महात्मा गांधी के बुलावे पर डा आंबेडकर वर्धा के आश्रम में आए और गांधी से लंबी वार्ता की। उस समय डा आंबेडकर के धर्म परिवर्तन के संकल्प की चर्चाएँ जोरों पर थीं। कहते हैं तब गांधी ने उनसे अनुरोध किया था वे ऐसे धर्म को अपनाएँ जिससे हिंदू धर्म और इस देश को कम से कम हानि हो। जब महात्मा गांधी की हत्या के आठ साल बाद डा आंबेडकर ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया तब उन्होंने गांधीजी को दिए वचन का स्मरण किया। उन्होंने कहा था कि जब समय आएगा तो वे देश के लिए सबसे कम हानिकारक पथ का चयन करेंगे। उन्होंने कहा कि बौद्ध धर्म अपनाकर उन्होंने यह सुनिश्चित कर दिया है कि इससे भारत खंडित नहीं होगा। (डा आंबेडकर : जीवन चरित – धनंजय कीर)।
गांधी की हत्या के दो माह बाद जब आंबेडकर ने एक ब्राह्मण डॉक्टर महिला से विवाह किया तो पटेल ने उनको लिखा, “मुझे यकीन है कि अगर बापू जिंदा होते तो वे आपको अपना आशीर्वाद जरूर देते।’’
जवाब में आंबेडकर ने लिखा, “मैं आपकी बात से सहमत हूँ कि अगर बापू जीवित होते तो वे जरूर हमें आशीर्वाद देते।’’
ऐसा इसलिए क्योंकि गांधी ने तय कर लिया था कि वे उस विवाह में नहीं जाएंगे और न ही आशीर्वाद देंगे जहाँ एक पक्ष हरिजन न हो।
महात्मा गांधी की जब हत्या हुई तो डा आंबेडकर को चलने-फिरने में दिक्कत थी। उन्होंने बिड़ला भवन पहुँच कर शोक जताया और गांधी के शव के दर्शन किए। वे उनकी शवयात्रा में कुछ दूर गए भी लेकिन भीड़ ज्यादा थी इसलिए बहुत दूर नहीं जा पाए और लौट आए। गांधी की हत्या पर छह फरवरी 1948 को उन्होंने अपनी मंगेतर के पत्र के जवाब में हत्या की कड़ी निंदा की और लिखा, “क्या मैं आपके इस विचार से पूर्णतः सहमत होऊँ कि महात्मा गांधी की हत्या एक मराठा के हाथों ही होनी चाहिए थी? नहीं। मैं तो इससे भी आगे जाकर कहना चाहता हूँ कि इस तरह की गंदी हरकत करना किसी के लिए भी गलत होगा। आप जानती हैं कि मिस्टर गांधी का मुझ पर कोई ऋण नहीं है और मेरे आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक निर्माण में उनका कोई योगदान नहीं है। अपने समूचे अस्तित्व के लिए जिस व्यक्ति का मैं ऋणी हूँ, वह गौतम बुद्ध हैं। उनके प्रति सहानुभूति न रखते हुए भी मैं शनिवार को बिड़ला हाउस गया और उनकी पार्थिव देह देखी। मुझे उनके घाव साफ दिखाई दे रहे थे। वे ठीक दिल के ऊपर थे। उनकी पार्थिव देह देखकर मैं अत्यंत द्रवित हुआ। मैं कुछ दूर तक शवयात्रा के साथ गया, क्योंकि मैं अधिक चलने-फिरने लायक नहीं था। अतः मैं घर लौट आया और फिर यमुना किनारे राजघाट पर गया। लेकिन मैं श्मशान स्थल पर नहीं पहुँच पाया क्योंकि मैं भीड़ के घेरे को तोड़ने में असमर्थ था।’’
हालाँकि डा आंबेडकर ने गांधी की हत्या को तमाम बाधाओं से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होने के रूप मे भी देखा और अपनी मंगेतर को लिखे खत में रोम साम्राज्य में जूलियस सीजर की हत्या के बाद व्यक्त सिसरो के उद्गार के माध्यम से अपनी बात कही। सिसरो ने कहा था, “अच्छा हुआ अब स्वतंत्रता का सबेरा उदय हुआ है।’’
महात्मा गांधी की हत्या के नौ माह बाद भारतीय संविधान सभा ने 29 नवंबर 1948 को अस्पृश्यता के उन्मूलन की घोषणा कर दी। उस समय संविधान सभा में यह घोष गूँजा -महात्मा गांधी की जय।
(जारी)
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