— रामप्रकाश कुशवाहा —
गाँव पर केन्द्रित चंद्रदेव यादव की तेरह कविताओं का अनूठा संग्रह है गाँवनामा। चंद्रदेव यादव के अब तक तीन संग्रह ‘देस-राग’, ‘गाँवनामा’ और ‘पिता का शोकगीत’ गाँव पर विषय-केन्द्रित कविताओं के प्रकाशित हो चुके हैं। सामान्यतः गाँव को सरल व कृषि आधारित जन-जीवन का पर्याय समझा जाता है। इस संग्रह के शीर्षक से गाँव के आंचलिक परिदृश्य और यथार्थ के चित्रण का पूर्वानुमान भी होता है। लेकिन इन तीनों संग्रहों को एक ही कवि की निरंतर चलते रहनेवाली रचना-यात्रा के तीन पड़ाव के रूप में देखना होगा। कारण यह है कि ‘पिता का शोकगीत’ भी पिता के माध्यम से मूलत: गाँव का शोकगीत ही है।
इन तीनों संग्रहों को एकसाथ देखने पर गाँव के यथार्थ, दशा-दिशा और नियति को लेकर चिंतित एवं समर्पित कवि की दीर्घकालिक महाकाव्यात्मक परियोजना सामने आती है। यद्यपि इन संग्रहों में शामिल कविताओं की अलग-अलग समूहगत एवं निजी विशेषताएँ भी हैं। उदहारण के लिए ‘गाँवनामा’ की लम्बी कविताएँ भी तीन पंक्तियों वाले ऐसे स्वरचित छन्द में कवि ने लिखी हैं जो अपने समग्र प्रभाव में सूक्तियों की शृंखलाबद्ध प्रस्तुति लगती हैं। कवि ने तीन पंक्तियों वाले इन लघु छन्दों का उपयोग वर्णनात्मक प्रवाह में नहीं किया है। वे अपनी कलात्मक व्यवस्था और भूमिका की दृष्टि से सूर के प्रबंध मुक्तकों और बिहारी के दोहों में मिलनेवाली भावान्विति व संक्षिप्ति के अधुनातन संस्करण की याद दिलाती हैं ।
‘गाँवनामा’ की पहली कविता ‘मेरी स्मृतियों में गाँव’ अपने अभिभावक गाँव के प्रति कवि का कृतज्ञता-ज्ञापन है। यह कविता आत्मपरक ढंग से गाँव को यादों में जीते हुए लिखी गयी है। दूसरी कविता ‘गाँव में मैने गाँव को देखा’ ग्राम्य यथार्थ के सकारत्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों का सम्यक चित्रण करती है। ग्रामीण जीवन की समस्याओं और विषमताओं पर कवि बेबाक टिप्पणी करता है-
“निम्न जातियाँ नरक भोगतीं/ दाना -पानी सब सपना था/ कहने को समाज अपना था” तथा “झूठ-मूठ कहने को समता/ बंटे हुए थे सभी वहां पर/ इक जैसे लगते थे बेघर ”
वर्ण व्यवस्था से प्राप्त प्रतिष्ठा और वास्तविक यथार्थ के बीच के विडम्बनात्मक अन्तराल का भी चित्रण वे करते हैं- “मूँछें मगर तनी रहती थीं/ लेकर के झूठी डकार वे/ दिखलाते हैं जमींदार वे ।” (पृष्ठ 12)
“अब भी हैं यहां पराये” कविता में भारतीय समाज में हिन्दू और मुसलमान के बीच विविधवर्णी पारस्परिक निर्भरता का चित्रण करने के बाद कवि यह प्रश्न उठाता है कि- “इतनी अधिक निकटता, फिर भी/ जाने इतनी क्यों दूरी थी?/ धर्म भेद ही मजबूरी थी।”
कवि का यह निष्कर्ष है कि- “दोनों के हित यहां एक हैं।/ वर्तमान दोनों के साझे/ फिर क्यों मूसल इन पर बाजे।”
कवि का ध्यान इसपर भी गया है कि भारत और पाकिस्तान के विभाजन में मुसलमान कौम की भूमिका ने उन्हें शर्मिन्दा किया है- “एक बात जो सब कहते हैं/ वह यह कि देश-विभाजन/ हुआ मुसलमानों के कारण।” ( पृष्ठ 41) इस तरह की टिप्पणियों को सामने लाते समय कवि ग्रामीण समाज के अबोध खरेपन की एक झाँकी प्रस्तुत करता चलता है।
‘गाँवनामा’ की एक लम्बी कविता “इतिहास चीख कर बोला” समकालीन अनेक समस्याओं को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखती और दिखाती है। यह कविता ग्रामीण समाज के बहाने भारतीय सभ्यता, उसकी रीति-नीति और रूढ़ियों की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में की गयी एक गम्भीर किन्तु विहंगम पड़ताल है। अपनी सूक्तिपरक त्रिपदियों में कवि ने नवजागरण तथा आधुनिक शिक्षा के प्रभाव में संस्थागत संगठित अज्ञान के कारागार से लोक की मुक्ति का अत्यंत सूक्ष्मता से किया गया अवलोकन प्रस्तुत किया है-
“दलित जगे,देखा था गौर से- हम हैं जहाँ, वो क्यों हैं अब तक?/ हम सदियों से गए सताए/ आगे हम क्यों बढ़ न पाए?” (पृष्ठ 43)
इसी कविता में मार्क्स के साम्यवाद, आधुनिक मानवतावाद, भेदभाव और शोषण व्यवस्था वाला भरतीय समाज तथा स्त्री की मुक्ति और समानता के प्रश्न भी कवि विभिन्न त्रिपदियों में उठाता है। जैसे कि –
साम्यवादी विचारधारा-
“सुखभाग अधिक कुछ ने लेकर/ औरों को दास बनाया था/ अपने से दूर बसाया था।”
वर्ण व्यवस्था पर-
“हर एक मनुज को वर्णों में/ कुछ एक मनुष्यों ने बांटा/ ऊँचा-नीचा करके छांटा।”
आधुनिक मानवतावाद-
“मानव ने मनुज जाति को ही/ धर्मों में,जातियोँ में बांटा/ मारा खुद के मुँह पर चाँटा।”
शोषण एवं भेदभाव-
“बोकर समाज में काँटों को/ जिनने सुखभोग,विलास किया/ मानवता के प्रति पाप किया।
स्त्री-मुक्ति एवं समानता-
“नर-मादा दोनों पूरक हैं/ लेकिन नर ने चालाकी की/ अपनी प्रभुता उँ पर थोपी।” (पृष्ठ 45)
इस कविता में ग्यारह त्रिपदियाँ स्त्री यथार्थ और उसकी मुक्ति का विमर्श उपस्थित करती हैं। ‘गाँवनामा’ की इस इतिहास विषयक कविता में साम्प्रदायिकता पर भी कवि ने तीन त्रिपदियाँ दी हैं-
“हैं पन्थ निराले कई यहाँ/ लेकिन प्रपंच में सब डूबे/ जीवन से जैसे वे ऊबे।” यह पंक्ति जीवन-विमुखता पर अत्यंत व्यंग्य-विचारपूर्ण टिप्पणी करती है।
‘गाँवनामा’ की ‘गाँव गया था जब जाड़े में’ कविता अपने शीर्षक के विपरीत चौंकाती है। यह गाँव और किसान के यथार्थ का आजादी के पहले से नेहरू और लालबहादुर शास्त्री तथा इन्दिरा गांधी के आपातकाल पूर्व के गरीबी हटाओ नारे से आगे वर्तमान की जीवन-दशा तक ले आती है-
“वह सबसे है कता हुआ अब/ नेह-छोह को भूल गया वह/ खण्ड-खण्ड में बंट हुआ अब।”
तथा “रुपया प्यारा बाप न भैया,/ अपनों का सब गला काटते/ नव युग की यह रीति है दैया”
इसी तरह ‘शहरी बना गाँव में देखा’ कविता में कवि पर्यावरण का विनाश करनेवाली आधुनिकता,बाजारवाद और पूंजी-प्रेरित अलगाव-बोध के खतरों से आगाह करने का प्रयास करता है और प्रतिरोध रचता है। शहर यहां बाजारवाद और भूमंडलीकरण का प्रतीक है।
‘गाँवनामा’ संग्रह की कविताओं की अन्तर्वस्तु गाँव से लेकर संसद तक फैली हुई है। कवि एक सन्देशवाहक या सेतु की भूमिका में स्वयं को देखना चाहता है। इस संकलन की ‘गाँव की कथा-कहानी’ शीर्षक भूमिका को पढ़ें तो कवि की चिन्ता का पता चलता है। एक ओर गाँववालों के लिए आर्थिक मुक्ति के सारे रास्ते बन्द हैं तो दूसरी ओर संचार माध्यमों की उपलब्धता के कारण वैश्विक पूँजी के प्रचार-तन्त्र से आक्रांत है। भूमंडलीकरण की आँधी उसकी अस्मिता को ही समाप्त करने की ओर अग्रसर है। गाँव सम्पूर्ण पर्यावरण विनाश के एक हिस्से के रूप में स्वयं ही पर्यावरण-विनाश का शिकार है।
दूसरी ओर पंचायतीराज वयवस्था में गाँव विभेदकारी राजनीति की प्राथमिक इकाई और अखाड़ा बन चुका है। उसने सहयोग की संस्कृति समाप्त कर बंटवारे और प्रतिस्पर्धा की अपसंस्कृति गाँववासियों को सौंपी है। कवि चंद्रदेव यादव कविता को एक सचेत क्रिया-व्यापार मानते हैं। इस संकलन की कविताओं को कवि ने विगत चालीस-पचास वर्षों की स्मृतियों और अनुभूतियों से बुना है।
कुछ टिप्पणी कवि द्वारा इस संकलन में प्रयुक्त त्रिपदियों पर आवश्यक है क्योंकि कवि ने इसे स्वयं द्वारा गढ़ा गया नया छन्द कहा है। इसमें पहली और तीसरी, दूसरी और तीसरी या फिर तीनों ही पंक्तियों में तुक निर्वाह का प्रयास किया जाना बताया है। जो बात कवि ने नहीं बतायी है वह यह कि कवि ने तीन पंक्तियों वाले पद को मुक्तकों जैसी अर्थ की स्वायत्तता प्रदान करने का प्रयास किया है। इससे सरलता और संक्षिप्ति दोनों ही काव्यगुण एक साथ कविता में उपस्थित हुए हैं। इस संग्रह की लम्बी कविताएँ मुक्तकों की शृंखलाबद्ध प्रस्तुति के शिल्प में रची गयी हैं। इनमें अर्थ और प्रसंग की पूर्वापर संगति तो है ही; इस संग्रह में प्रयुक्त त्रिपदियां लघु टिप्पणियों तथा सूक्ति-सौन्दर्य का भी गुण समेटे हुए हैं।
इन कविताओं में कवि संवेदना और बोध, दोनों ही छोरों को एकसाथ छूने में सफल हुआ है। ग्रामीण समाज की समस्याओं की शोधपरक अन्तर्वस्तु इन कविताओं को विमर्शात्मक आयाम प्रदान करती है। विशेषज्ञ एवं खोजी विचारशीलता के प्रतिभ संश्लेष ने ‘गाँवनामा’ को गाँव और किसान समस्या पर विषय केन्द्रित कविताओं का महत्त्वपूर्ण संग्रह बना दिया है।
किताब : गाँवनामा
कवि : चन्द्रदेव यादव
प्रकाशक : अक्षर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, एल-9 ए, गली नंबर 42, सादतपुर एक्सटेंशन, दिल्ली-110090 ; मूल्य : 195 रु.
चन्द्रदेव सर की दोनों पुस्तक महत्वपूर्ण है–“गाँवनामा” और पिता का शोक”। सर का ग्रामीण बोध अद्भुत है। इनकी रचनाओं को पढते हुए पाठक डूब जाते हैं।