मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है…
फिर भी मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूं
विष से अप्रसन्न हूं
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए.
- मुक्तिबोध
हुई है हज़रत-ए-नासेह से गुफ्तगू जिस शब,
वो शब जरुर सर-ए-कू-ए-यार गुजरी है.
वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था,
वो बात उनको नागवार गुजरी है.
- फैज़ अहमद ‘फैज़’
सम्पूर्ण क्रान्ति के मंत्रदाता जयप्रकाश नारायण (जेपी) की जीवन कथा (1902-’79) बीसवीं सदी की सबसे रोमांचक जीवनियों में से रही है। क्योंकि उन्होंने स्वतंत्रता और क्रांति को चिन्तन और कर्म के स्तर पर सम्पूर्णता में जीने का अविश्वनीय साहस दिखाया। वह अकेले जननायक थे जिन्होंने अपनी लोकप्रियता को दांव पर लगाकर लगातार तीन पीढ़ियों को नेतृत्व प्रदान किया। किसी भी परिवर्तनकामी व्यक्ति में राग (लगन), मात्राभेद (देश-काल-पात्र सापेक्षता) और जिम्मेदारी की भावना (निर्णयों के परिणामों की तैयारी) का संतुलन जरुरी होता है और जेपी में इन तीनों का अद्भुत समन्वय था।
सभी पीढ़ियों के अलग-अलग सपने और सवाल होते हैं। फिर भी जेपी में कुछ बात थी कि हर पीढ़ी ने अपने सपने और सवालों के समाधान के लिए उन्हें भरोसे का नायक माना। आजादी की लड़ाई में 1942–’46 की ‘अगस्त-क्रांति’, आजादी के बाद 1954-71 के बीच का भूदान अभियान और 1974-‘79 का सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन तीनों ही जेपी के नेतृत्व कौशल के विख्यात उदाहरण बने।
वैचारिक दृष्टि से जेपी ने एक विद्यार्थी के रूप में साम्राज्यवाद के निर्मूलन, राष्ट्रीय आजादी, वर्ग-संघर्ष सिद्धांत और ऐतिहासिक भौतिकवाद में आस्था के आधार पर अपनी क्रांति-साधना शुरू की और कांग्रेस के कार्यकर्ता बनकर आजादी की लड़ाई में 1929 में शामिल हुए और इसमें उन्हें गांधी और नेहरु दोनों से प्रोत्साहन मिला। ब्रिटिश राज ने उन्हें 1932 की सिविल नाफरमानी के दौरान मद्रास में गिरफ्तार करके एक साल की कैद की सज़ा के साथ नासिक जेल में बंद रखा। नासिक जेल में बंदी रहते हुए उनका अच्युत पटवर्धन, मीनू मसानी, अशोक मेहता, चार्ल्स मास्करेन्हास, एम.एल. दांतवाला, सी.के. नारायणस्वामी, और एन.जी. गोरे जैसे प्रगतिशील युवाओं से निरंतर वैचारिक आदान-प्रदान हुआ। जीवन भर की निकटता बनी।
भारत में समाजवादी आन्दोलन के एक महानायक यूसुफ मेहरअली ने जयप्रकाश नारायण के बारे में लिखा है कि वह ब्रिटिश राज की कैद से 1933 में एक सपने, भरोसे और मकसद के साथ बाहर आए और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का 1934 में निर्माण हुआ। इसमें आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ. संपूर्णानंद, श्रीप्रकाश, डॉ.के. बी. मेनन, अब्दुल बारी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, डॉ. लोहिया, अच्युत पटवर्धन, मीनू मसानी, गंगाशरण सिन्हा, फरीदुल हक़ अंसारी, नम्बूदरीपाद आदि का शुरू से सहयोग था। इस संकल्प से उत्पन्न आत्म-विश्वास से ‘समाजवाद क्यों?’ जैसी रचना सामने आयी। जेपी की सतत प्रयत्नशीलता ने गांधी, नेहरु और नम्बूदरीपाद से लेकर अच्युत पटवर्धन और राममनोहर लोहिया तक को आजीवन सहमति-असहमति के बावजूद उनके (जेपी के) प्रति मोहित रखा।
अच्छाई की प्रेरणा की तलाश
1934-’54 के बीच दलगत राजनीति, विशेषकर 1946 के बाद पैदा सत्ता-संक्रमण के अच्छे-बुरे अनुभवों ने भौतिकवादी दर्शन और मार्क्सवादी राजनीति में ‘अच्छाई की प्रेरणा’ के अभाव की समस्या के प्रति सजग किया। जेपी एक दोराहे पर पहुँच गये थे– संसदवादी बहुदलीय चुनावी लोकतंत्र या जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज रचना के लिए दलविहीन लोकतंत्र? उन्हें भय था कि स्वतंत्रता के बाद स्थापित संसदीय लोकतंत्र में हमेशा एकदलीय अधिनायकवाद का खतरा बना रहेगा।
इस बारे में आत्म-चिन्तन के लिए उन्होंने जून, 1952 में तीन सप्ताह का आत्मशुद्धि उपवास किया और समाज में नैतिकता की अनिवार्यता पर आधारित गांधी मार्ग की ओर बढ़ने की प्रेरणा महसूस की। जनवरी, ’53 में रंगून में हुए प्रथम एशियाई सम्मेलन में इस विचार को विस्तार से रखा।‘गांधीवाद के लिए आवाहन’ शीर्षक लेख समाजवादी साप्ताहिक ‘जनता’ (अंग्रेजी) में प्रकाशित किया।
अंतत: अप्रैल, ’54 में बोधगया में आयोजित सर्वोदय सम्मेलन में खुद को‘जीवनदानी’ घोषित किया। इससे प्रभावित होकर आचार्य विनोबा समेत 600 स्त्री-पुरुषों ने अपनी जिंदगी भूदान आन्दोलन को समर्पित की। आचार्य नरेन्द्रदेव के निधन के बाद जेपी ने प्रजा समाजवादी पार्टी की सामान्य सदस्यता भी छोड़ दी। इस प्रक्रिया का उन्होंने ‘समाजवाद से सर्वोदय की ओर’ में चित्रण किया। यह आलेख किसी भी परिवर्तनकामी युवक-युवती के लिए आज भी पठनीय है।
एक भूदानी के रूप में 15 बरस के समर्पित जीवन के बाद 1969-71 में बिहार में माओवादियों की चुनौती का मुकाबला होने पर उन्हें भूदान आन्दोलन की दशा-दिशा की समीक्षा की जरूरत महसूस हुई। उन्होंने इस आत्म-मंथन को दिसम्बर ’70 में ‘आमने-सामने’ शीर्षक से एक गुटका के रूप में प्रस्तुत किया। वह नये उपायों, वाहनों और अभियानों के लिए प्रेरित हुए। इस विश्लेषण ने सत्तर के दशक के युवा क्रांतिकारियों को जेपी की तरफ आकृष्ट किया। ग्रामीण समाज के संकट के इस अद्वितीय चित्रण को प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी ने भी सराहा।
स्वराज, सर्वोदय और सत्ता के सच का सामना
1969 पूरे देश में गाँधी जन्म शताब्दी वर्ष के रूप में मनाया गया। लेकिन यह एक तरफ देश की सबसे पुरानी और बड़ी लोकतांत्रिक पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विघटन और गैर-कांग्रेसी प्रादेशिक सरकारों की विफलता और दूसरी तरफ साम्प्रादायिक दंगों और नक्सलवादी हिंसा के फैलाव का भी साल था। इससे व्यथित जेपी ने दिल्ली में ‘लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता’ विषय पर प्रमुख बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और नेताओं का सर्वदलीय संवाद आयोजित किया। गांधी के अधूरे सपनों के लिए दूसरी क्रांति की जरूरत को उन्होंने पटना, वाराणसी, और जादवपुर से लेकर काबुल और कैनबरा के भाषणों में दुहराया।
इसी साल 8 जून को दिल्ली में आयोजित स्वयंसेवी संगठनों के राष्ट्रीय सम्मेलन में जेपी ने एक बेहद चौंकानेवाला भाषण दिया : ‘नक्सलवादी हिंसक हैं लेकिन मेरी उनसे सहानुभूति है। अगर कानून लोगों को सामाजिक और आर्थिक न्याय नहीं दिला सकता है, अगर जो बातें कागज पर आ चुकी हैं उन्हें भी लागू नहीं कराया जा सकेगा तो आपको नहीं लगता कि सभी जगह से हिंसा फूटने के अलावा और कुछ नहीं हो सकता? क्या आपको लगता है कि इस स्थिति में सिर्फ शांति-शांति का मंतर पढ़ने से वे राजनीतिक पार्टियां ऐसे ही बची रहेंगी जिन्होंने ये कानून बनवाये हैं? …मेरे सर्वोदयी साथी और मेरे गांधीवादी मित्र मेरी अब कही सार्वजनिक बातों को पढ़कर हैरान होंगे। मैं पूरी जिम्मेवारी से कह रहा हूँ कि अगर लोगों को हिंसा के अलावा किसी और तरह से राहत नहीं मिलती तो जयप्रकाश नारायण भी हिंसा का रास्ता अख्तियार कर लेगा। अगर लोगों के सवाल लोकतांत्रिक तरीकों से नहीं सुलझाये सकते तो मुझे भी हिंसा अपनानी पड़ेगी…’
इस बयान को 1975 में हुए विनोबा–जेपी संवाद से जोड़कर देखा जाए तो जयप्रकाश नारायण की चिन्तन प्रक्रिया का व्याकरण समझना कठिन नहीं रह जाता। 14 मार्च, ’75 को आचार्य विनोबा के पवनार आश्रम में सर्व सेवा संघ का अधिवेशन हो रहा था। यह विनोबा जी के मौन-वर्ष के बीच आयोजित किया गया था और इसमें पहले विनोबा– जेपी के बीच लिखकर संवाद चला। कुछ देर बाद, बिलकुल ही अनपेक्षित, 25 दिसम्बर से चल रहे मौन का भंग करते हुए अचानक विनोबा जी बोल उठे– ‘अब जरा सुनिए। सालभर के लिए मैंने मौन लिया है, उसे दो मिनट तोडकर आपके साथ बात कर रहा हूँ। आपकी संघर्ष की जो कल्पना है वह मुझे मालूम है। वह जारी रहे, अच्छी चीज है। बाबा उसे पसंद करता है। उसमें बाबा की मदद भी आपको मिल सकती है। सिर्फ एक बात है, राजसत्ता के विरोध में जो संघर्ष है वह छोड़िए। यही मेरा कहना है। अन्य संघर्ष जारी रहे। आपकी संपूर्ण क्रान्ति की जो कल्पना है वह एक-दो साल में तो पूरी होगी नहीं। वह लम्बी प्रक्रिया है। उसे छोड़ने को मैं नहीं कहता हूँ। देशहित में अभी आपको राजसत्ता के विरोध का संघर्ष छोड़ना चाहिए…’
जेपी ने क्या उत्तर दिया? जेपी ने शांतिमय परिवर्तन के समाज विज्ञान के आधार पर एक अनमोल विचार प्रस्तुत किया। जेपी ने लिखवाया– ‘बाबा ने इस अवसर को इतना महत्त्व दिया कि दो मिनट के लिए अपना मौन तोड़ा, यह उनकी महानता है। मेरे कारण उनको अपना मौन तोड़ना पड़ा, इसका खेद है। परन्तु मुझे दो बातें कहनी हैं। एक तो यथासंभव मैं भी जागतिक दृष्टि से सोचता रहता हूँ। मुझे ऐसा नहीं लगता कि आंतरिक प्रश्नों को लेकर सत्ता के साथ शांतिमय संघर्ष अगर होता है तो उससे भारत राष्ट्र दुर्बल बनता है। देश की आतंरिक स्थिति भयंकर है। इसमें निकट भविष्य में परिवर्तन होगा– बेकारी, महँगाई, गरीबी, भ्रष्टाचार आदि में– ऐसा मुझे नहीं लगता। इस परिस्थिति में, मुझे भय है कि, यदि जनता की समस्याओं के हल के लिए कोई शांतिमय आन्दोलन नहीं चलता तो देश में हिंसा होगी, जिससे कि राष्ट्रबल पर चोट पहुंचेगी और जागतिक दृष्टि से भारत कमजोर बनेगा।
दूसरी बात मुझे यह कहनी है कि आज की अवस्था में सत्ता का जन-जीवन पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए समाज परिवर्तन में सत्ता का सहयोग मिले तो बहुत ही सुंदर बात होगी। परन्तु यदि न मिले तो सत्ता के साथ संघर्ष मुझे अनिवार्य लगता है। वह संघर्ष यदि शांतिमय और शुद्ध रहता है तो सत्तावालों का हृदय परिवर्तन भी हो सकता है। यदि यह संभव नहीं होता तो सत्ता में ही परिवर्तन होगा। यह सामाजिक विकास की एक आंतरिक प्रक्रिया है। मुझे लगता है कि इसी से देश बलवान होगा। जनता और सत्ता एक दूसरे के नज़दीक आएंगे और देश आगे बढ़ेगा।’ (देखें : कुसुम देशपांडे (2010) (परमधाम प्रकाशन, पवनार; पृष्ठ 183-84)
दूसरे शब्दों में, जयप्रकाश नारायण के चिंतन और सरोकारों को समझने के लिए उनके विचार-प्रवाह और अनुभव संसार को जोड़कर देखना जरूरी है। वह विचारों से प्रकाश पाते थे। तर्कसंगत दृष्टि अपनाते थे। तात्कालिकता की बजाय दूरदर्शिता को महत्त्व देते थे। लेकिन किसी एक विचारक के भक्त या विचार-सम्प्रदाय के बंधक नहीं बने। वह मूलत: एक सुशिक्षित सरोकारी समाजवैज्ञानिक थे। प्रगतिशील परिवर्तन के सुप्रशिक्षित साधक तो थे ही। विचार और अनुभव के बीच के सच को उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन की बुनियाद बनाया। इसे उन्होंने स्वयं ‘मेरी विचार यात्रा’ के रूप में प्रस्तुत किया है।
अक्तूबर, 1969 में राजगीर (बिहार) में एक भव्य सर्वोदय सम्मेलन भी सम्पन्न हुआ था। 22,000 प्रतिनिधि उपस्थित थे। राष्ट्रपति वी.वी. गिरि और दलाई लामा मुख्य अतिथि थे। 2 लाख लोगों की जनसभा में बिहार का ‘प्रदेश-दान’ भी घोषित किया गया। लेकिन यह चिंताग्रस्त गान्धीमार्गियों का सम्मेलन था। सर्व सेवा संघ द्वारा 1965-’69 के बीच चलाये गये ‘तूफ़ान अभियान’ की प्रभावहीनता और नक्सलवाद की फैलती आँधी की पृष्ठभूमि में हो रहे इस सम्मेलन में ही आचार्य विनोबा ने ‘सूक्ष्मतर कर्मयोग’ में प्रवेश के लिए बिहार से पवनार आश्रम (वर्धा) वापस जाने और बिना किसी को अपना दायित्व सौंपे सार्वजनिक जीवन से हटने का निर्णय घोषित किया था। दिसम्बर, 69 में हुए विचार-विमर्श तक सर्वोदय आन्दोलन में गतिरोध के सभी लक्षण सामने आ चुके थे।
1951 से आचार्य विनोबा भावे (1895-’82) के नेतृत्व में चल रहे भूदान आन्दोलन के 18 बरस बाद भी लगभग 3,000 लोकसेवक इसके वाहक बन पाये थे। पचहत्तर बरस के आचार्य विनोबा स्वयं बिहार छोडकर ‘सूक्ष्मतर कर्मयोग’ में प्रवेश का निश्चय कर चुके थे। जेपी ने 1954 से ही अपने अनुयायियों को इससे लगातार जोड़ा था। स्वयं नवादा (बिहार) के सोखोदेवरा गाँव में एक केंद्र बनाकर भूदान में लगे थे। वह भी सर्वोदय के अंदर पनप रही गतिहीनता को लेकर चिंतित थे। निजी जमीन के 1/6 हिस्से की बजाय 1/20वें अंश का दान करने को पर्याप्त मानने की ढिलाई के बावजूद भारत के साढ़े छह लाख गाँवों में से एक चौथाई गाँव (1,50,000) ही भूदान-ग्रामदान के सन्देश से जुड़ सके थे। 6,000 प्रखंडों में से कुल 200 प्रखंडों में सर्वोदय मंडल अस्तित्व बना पाये थे। भूदान की अपनी उपलब्धियां जरूर थीं- 41,95,000 एकड़ जमीन मिली थी और इसमें से 5 लाख भूमिहीन परिवारों को 13,00,000 एकड़ जमीन वितरित हुई थी। बिहार के 67,000 गाँवों में से 60,000 गाँवों ने अपने को ग्रामदान में शामिल कर लिया था। युवजनों में तरुण शांति सेना का अपना महत्त्व था।
निस्संदेह भूदान आन्दोलन गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों के लिए प्रतिबद्ध सबसे प्रामाणिक राष्ट्रीय अभियान था। लेकिन देश की बदलती राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से यह सब अपर्याप्त हो चुका था। आचार्य विनोबा ने स्वयं सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए चेतना निर्माण और लोकहित में प्रशासन पर दबाव बनाने की जरूरत के लिए सर्व सेवा संघ को ‘लोक सेवक संघ’ के रूप में बदलने की चर्चा की।
जयप्रकाश नारायण ने राजगीर के भव्य अधिवेशन के बाद ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के 1970 के दीक्षांत भाषण में अपनी मुख्य चिंताओं को प्रकट किया – राजनीतिक भ्रष्टाचार, शिक्षा की दिशाहीनता, चुनाव-सुधार, व्यापक निर्धनता, सामाजिक हिंसा। ‘70 में ही देशभर में चले कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट दलों के ‘भूमि बाँटो!’ आन्दोलन को जेपी ने सही माना। इससे आगे जाकर 1971 में मुसहरी (मुजफ्फरपुर) में हुए सघन अनुभवों को उन्होंने ‘आमने-सामने’ पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया। वह दिसम्बर, ’70 में ही नक्सलवादी नायक नागभूषण पटनायक की फाँसी की सजा के खिलाफ बयान जारी कर चुके थे। सभी सांसदों और सरकार का ध्यानाकर्षण कराया। विशेषज्ञों की मदद से इलाज सुझाये। लेकिन अधिकांश राजनीतिज्ञ आत्ममुग्ध और उदासीन मिले।
(जारी)