जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण लेखन, लिखित भाषणों और बयानों को दस खण्डों में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो बिमल प्रसाद ने सम्पादित किया है। सम्पूर्ण क्रांति सम्बन्धी उनके चिंतन को ब्रह्मानंद ने चार खण्डों में संचयित किया है। अकेले बिहार आन्दोलन का वृत्तान्त समाजशास्त्री महेंद्र नारायण कर्ण ने 10 खण्डों में प्रस्तुत किया है। इस विस्तृत सामग्री के आधार पर यह देखना कठिन नहीं है कि जयप्रकाश नारायण के आरएसएस और जनसंघ सम्बन्धी विचारों में तीन मोड़ रहे हैं : (क) पूर्ण विरोध (1948 से अप्रैल,1974); (ख) आशावादी अनुमोदन (दिसम्बर ’74 – अगस्त, ’77), (ग) असंतोष और चिंता (सितम्बर,’77 – मार्च, ’79)।
1. पूर्ण विरोध काल (1948-’74)
जेपी 1934 से 1974 के बीच के सार्वजनिक जीवन में साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे। उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना की तुलना जहरीले साँप से करते हुए जिन्ना-सावरकर के मुस्लिम और हिन्दू धर्म के आधार पर प्रचारित दो-राष्ट्र सिद्धांत का प्रबल विरोध किया था। कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति की बहस में भारत विभाजन के विरोध में खान अब्दुल गफ्फार खान के अलावा जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया ही बोले थे। 30 जनवरी ’48 को दिल्ली में हिन्दू सांप्रदायिक गिरोह के द्वारा हुई गांधी-हत्या के बाद से वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रतिपादित ‘हिन्दू राष्ट्र’ की माँग के कट्टर विरोधी थे। आरएसएस भी जेपी की कश्मीर समस्या, नगा शांति मिशन और पाकिस्तान के प्रति दृष्टिकोण और मुसलमानों के प्रति हमदर्दी का प्रबल विरोधी रहा।
1968 में आयोजित साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि“आरएसएस के बारे में दो टिप्पणियाँ करना चाहता हूँ। जब गांधीजी की हत्या के बाद संदेह के घेरे में था तब वह बार-बार खुद को सांस्कृतिक संगठन बताता था। लेकिन धर्मनिरपेक्ष ताकतों की कायरता के चलते इसने अपना वह नकाब उतार दिया और भारतीय जनसंघ को परदे के पीछे से नियंत्रित करनेवाली शक्ति के रूप में सामने आया है। जनसंघ स्वयं को चाहे जितना धर्मनिरपेक्ष कहे, पर जब तक वह आरएसएस से अपने सम्बन्ध नहीं तोड़ता उसे गंभीरता से नहीं लिया जा सकता।”
2. आशावादी अनुमोदन के 37 महीने (जून ’74 – अगस्त ’77)
जेपी ने 5 जून,’74 और अगस्त,’77 के बीच जनसंघ को जरूर अपने प्रयोग का ‘सशर्त हिस्सेदार’ बनाया और आशावादी अनुमोदन के कुछ बयान दिये। विद्यार्थी परिषद तो गुजरात आन्दोलन और बिहार छात्र संघर्ष समिति में पहले से ही शामिल थी। इस दौर के बारे में वरिष्ठ पत्रकार और जयप्रकाश नारायण के जीवनीकार अजित भट्टाचार्य का मानना है कि जेपी बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता के आलोचक थे क्योंकि वह आसानी से भारतीय राष्ट्रीयता का रूप ले सकती है और अपने सारे विरोधियों को राष्ट्रविरोधी घोषित कर सकती है। उन्होंने ऐसे मुस्लिम संगठनों की भी आलोचना की, जो सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों के नाम पर मात्र मुस्लिम सम्प्रदाय के अलग होने की वकालत करते हैं। हिन्दुओं के बारे में शक-शुबहा बढ़ाते हैं और राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में मुख्य धारा से अलग चलते हैं। फिर भी वे राजनीति और धर्म को अलग करने के पक्ष में नहीं थे। उनको उम्मीद थी कि धर्म को कठमुल्लेपन से आज़ाद कराया जा सकता है। वे मानते थे कि अतिवाद को अलग छाँटने से या उससे किनारा करने-भर से काम नहीं चलेगा।
अपने समन्वयवादी दर्शन के अनुरूप उनका मानना था कि अगर ऐसे समूह एक साझा, शांतिपूर्ण और धर्मनिरपेक्ष संघर्ष में भागीदारी करते हैं तो उनके साम्प्रदायिक नजरिये में भी बदलाव आएगा। बिहार आन्दोलन से दो बरस पहले चम्बल में डाकुओं से हथियार डालने की उनकी अपील का जो असर हुआ था उसने इस विश्वास को मजबूत किया था कि उचित अवसर और लाभ की संभावना कठोर ह्रदय को बदल सकती है। इसी सोच के साथ उन्होंने भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ सम्बन्ध बनाये। इससे जेपी पर साम्प्रदायिक और फासिस्ट शक्तियों का पक्षधर होने का आरोप जरूर लगा और इस आलोचना ने उन्हें झकझोरा (देखें : जेपी : एक जीवनी अजित भट्टाचार्य (2006) (पूर्वोक्त; पृष्ठ 19-20)।
इस बारे में 5 मार्च ’75 को भारतीय जनसंघ द्वारा दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय अधिवेशन में दिये गये भाषण को पहले उद्धृत किया जा चुका है। इसी प्रकार इमरजेंसी के दौरान 28 अगस्त’ 76 को सहकर्मियों के नाम प्रकाशित एक चिट्ठी में उन्होंने लिखा– “जहाँ तक आरएसएस की बात है तो यह सही है कि पहले मैं इसका विरोधी था और मैंने इसकी तीखी आलोचना की थी। यकीनन दुनिया में कोई भी चीज जड़ और चिरन्तन नहीं है। संगठनों के सिद्धांतों और स्वरूप में बदलाव होता है और मुझे स्वीकार करना होगा कि आरएसएस बदला है और अभी भी बदल रहा है…सम्पूर्ण क्रांति के आन्दोलन में इन संगठनों को शामिल करके मैंने इन्हें सांप्रदायिकता के घेरे से बाहर करने का प्रयास किया है। और अब ये सांप्रदायिक नहीं हैं… इस प्रकार मैंने सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन में आरएसएस और जनसंघ को शामिल करके धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद को मजबूत किया है…” (देखें : जेपी : एक जीवनी – अजित भट्टाचार्य (2005) पूर्व उद्धृत; पृष्ठ 20-21)।
यह स्पष्ट है कि इस आशावादी दौर में जेपी को विद्यार्थी परिषद और जनसंघ से जुड़े व्यक्तियों के साथ काम करने के कई सकारात्मक अनुभव हुए। बिहार से पहले गुजरात का आन्दोलन हुआ था और गुजरात आन्दोलन में जनसंघ ने कांग्रेस (संगठन), भारतीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी के साथ जनता पक्ष के निर्माण में रचनात्मक सहयोग का उदाहरण पेश किया था। मध्यप्रदेश में हुए लोकसभा और विधानसभा के उपचुनाव में‘जनता उम्मीदवार’ के पक्ष में जुटे थे। राष्ट्रीय स्तर पर मोरारजी देसाई, चरण सिंह और मधु लिमये की तुलना में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की तरफ से कम ‘किन्तु’-‘परन्तु’ उठाये जाते थे। विद्यार्थी परिषद के महामंत्री रामबहादुर राय की बिहार आन्दोलन के दौरान प्रथम मीसाबंदी के रूप में गिरफ्तारी और नानाजी देशमुख द्वारा 4 नवम्बर के पटना प्रदर्शन में जेपी पर चलायी गयी लाठी को रोकने के लिए अपनी बाँह तुड़वाने का अद्भुत साहस दिखाना इन नये सम्बन्धों के बहुचर्चित उदाहरण थे। यह भी याद करना प्रासंगिक है कि 25 जून ’75 को दिल्ली के रामलीला मैदान की ऐतिहासिक जनसभा में घोषित जनसंघर्ष समिति के संयोजक मोरारजी देसाई, कोषाध्यक्ष अशोक मेहता और सचिव नानाजी देशमुख बनाये गये थे। इसकी तरफ से नानाजी देशमुख ने ही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के त्यागपत्र के लिए जेपी की उपस्थिति में अगले एक सप्ताह के जन अभियान का कार्यक्रम घोषित किया था।
लेकिन जेपी को इमरजेंसी के दौरान आरएसएस के सर्वोच्च नेतृत्व द्वारा 22 अगस्त ’75 से ही प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी और आरएसएस के बीच मेल-मिलाप के लिए निरंतर किये जा रहे संपर्क-प्रयासों और पत्राचार का कोई अनुमान नहीं था। उन्हें यह जानकारी नहीं थी कि देवरस 10 नवम्बर ’75 को श्रीमती इंदिरा गांधी को उनके निर्वाचन की वैधता सम्बन्धी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के लिए बधाई भी लिख चुके हैं। जयप्रकाश जी ने भी इमरजेंसी के बंदी-जीवन के दौरान प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी को 21 जुलाई, 2 सितम्बर और 17 सितम्बर ’75 को तीन पत्र लिखे थे। लेकिन उनका ध्यान सिर्फ देश की दुर्गति और लोकतंत्र के भविष्य पर केन्द्रित था। जेपी और आरएसएस के दृष्टिकोणों में तात्कालिक निकटता और बुनियादी फासले को समझने के लिए दोनों के पत्रों का तुलनात्मक अध्ययन दिलचस्प होगा। जेपी से सवाल पूछने की जरूरत महसूस करनेवालों को तो यह करना ही चाहिए।
3. असंतोष और निराशा के अंतिम 26 महीने (अगस्त ’77 –‘अक्टूबर ’79)
जेपी ने जनता पार्टी के रूप में कांग्रेस के राष्ट्रीय विकल्प की रचना की और इसे 1977 के ऐतिहासिक लोकसभा चुनाव में जबरदस्त विजय मिली। पंजाब में अकाली दल, तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कषगम और बंगाल तथा केरल में कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने जेपी की जनता पार्टी के साथ चुनाव समझौता किया था। फिर भी जनता पार्टी के 41.3 प्रतिशत वोट के मुकाबले कांग्रेस को 34.5 प्रतिशत वोट आए। 154 सीटें मिलीं। जनता पार्टी गठबंधन को 345 सीटें और कांग्रेस गठबंधन को 189 सीटें मिली थीं। केंद्र में इमरजेंसी विरोधी जनादेश के साथ पहली गैर-कांग्रेसी सरकार आयी और 1978 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की जगह जनता पार्टी की कई राज्य सरकारें बनीं।
लेकिन सत्ता में प्रवेश के साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ और विद्यार्थी परिषद का रुख बदलने लगा। जेपी की कार्ययोजना के विपरीत मुसलामानों के बारे में आरएसएस का रुख यथावत रहा। जनसंघ से जुड़े सांसदों और विधायकों के समूह ने ‘घटकवाद’ की आग में घी डाला। चरण सिंह और नानाजी देशमुख ने मिलकर लोकदल घटक के खाते में उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और ओड़िशा और जनसंघ घटक के हिस्से में मध्यप्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश की सरकारों को बाँट लिया (देखें : नाना देशमुख (1979) आर.एस.एस. – विक्टिम ऑफ़ स्लेंडर (नयी दिल्ली, विजन बुक्स; पृष्ठ 53)। विद्यार्थी परिषद ने जनता पार्टी के युवा मंच में अपना विलय करने से इनकार कर दिया। गैर-जनसंघी गुटों ने भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ जनता पार्टी के एक हिस्से के निकट संबंधों को विवाद का सबसे बड़ा मुद्दा बनाया। इसे ‘दुहरी सदस्यता विवाद’ कहा गया। जेपी की अनसुनी करते हुए एक के बाद एक आत्मघाती कार्यों का पहाड़ बन गया और जनता पार्टी और उसकी सरकार बालू के घरोंदे की तरह मिट गयी।
आरएसएस के विसर्जन का जेपी का सुझाव
इस सब से क्षुब्ध जेपी का अगस्त, ’77 तक धीरज समाप्त हो गया। ‘सामयिक वार्ता’ (लोहिया विचार मंच की पत्रिका; प्रधान सम्पादक – किशन पटनायक) के 13 सितम्बर, ’77 के अंक में प्रकाशित इंटरव्यू में जेपी ने पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सार्वजनिक सलाह दी कि बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए उसे अपना विसर्जन करते हुए जनता पार्टी के विविध संगठनों को अपनाना चाहिए या मुसलमान, ईसाई और अन्य गैर-हिन्दू समुदाय के लोगों को अपना सदस्य बनाना चाहिए। जेपी ने यह जोड़ा कि उनके संपर्क में आए नेताओं और कार्यकर्ताओं में अन्य सम्प्रदायों के प्रति वैरभाव नहीं देखा। लेकिन उनके अंत:करण में हिन्दू राष्ट्र में आस्था कायम है। उन्होंने आशा प्रकट की कि आर.एस.एस. हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को त्याग कर भारतीय राष्ट्रवाद को मानेगा और भारत में रहनेवाले सभी लोगों को अपनाएगा। यह जयप्रकाश नारायण की तरफ से आरएसएस और उससे सम्बद्ध संगठनों के प्रति असंतोष और निराशा का ऐलान था।
आरएसएस की ओर से जेपी के विचारों का प्रबल प्रतिवाद हुआ और विवादों का अध्याय शुरू हो गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से स्पष्ट ऐतराज जताते हुए सह-सरसंघचालक माधवराव मुले ने 23 सितम्बर,’77 को जयप्रकाश नारायण को लिखे पत्र में कहा कि एक तो जेपी को मीडिया को माध्यम बनाने की बजाय सीधे संघ नेतृत्व से अपनी बातें बतानी चाहिए थीं।
दूसरे, इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि जेपी को संघ के बारे में अधूरी जानकारियाँ हैं। यह मात्र युवाओं का संगठन नहीं है। इसमें सभी आयु-समूहों के लोग शामिल रहते हैं।
तीसरे, हमें आपकी इस टिप्पणी पर सख्त एतराज है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हाल में असाम्प्रदायिक हुआ है। आपको तो हमारे असाम्प्रदायिक चरित्र के बारे में बिहार अकाल के राहत कार्यों में प्रत्यक्ष अनुभव मिला ही था। संघ की ओर से रक्षाबंधन के पर्व के उत्सव में मुसलमानों और ईसाइयों को आमंत्रित किया जाता है और ईद के मौके पर मुस्लिम भाइयों को ईद की मुबारकबाद दी गयी है। इसी क्रम में आपने स्वयं स्पष्ट किया है कि छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी में भी मुसलमान कार्यकर्ताओं की अनुपस्थिति का कारण राष्ट्रीय प्रश्नों के बारे में हिचकिचाहट की मनोवृत्ति है। भूदान आन्दोलन और बिहार आन्दोलन में भी बहुत कम मुसलमानों ने भाग लिया। इसलिए इस बारे में जल्दीबाजी की बजाय धैर्यपूर्ण उपायों की जरूरत है।
चौथे, संघ के स्वयंसेवकों ने भ्रष्टाचार के विरोध में बिहार आन्दोलन में योगदान अवश्य किया और इमरजेंसी के प्रतिरोध में भी अगली कतार में थे। लेकिन यह संगठन मूलत: सत्ता की राजनीति से दूर रहकर अपने सदस्यों में भारतीय आदर्शों और मूल्यों का संवर्धन करने में संलग्न रहता आया है। आपने भी‘राजशक्ति’ से ‘जनशक्ति’ को जादा महत्त्वपूर्ण माना है। इस पृष्ठभूमि के कारण हम आपकी इस सलाह से विस्मित हुए हैं कि बदले हुए हालात में संघ को स्वयं को विसर्जित करके सत्ताधारी दल के विभिन्न मोर्चों से जुड़ जाना चाहिए।
पाँचवें, आपने ‘हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा की बात उठायी है। हमारे लिए यह एक सांस्कृतिक, न कि राजनीतिक, आदर्श है। इसका मात्र यह आशय है कि आधुनिक समय की जरूरतों से सामंजस्य रखते हुए भारतीय आदर्शों और मूल्यों में आस्था के आधार पर राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न अंगों को पुनर्गठित किया जाना चाहिए। हमें भरोसा है कि यह निंदनीय नहीं हो सकता क्योंकि आप भी महात्मा जी (गांधी जी) और पूज्य विनोबा जी की भांति भारतीय संस्कृति के आराधक हैं। हम राजनीतिज्ञों में‘हिन्दू’ शब्द के प्रति वितृष्णा को समझते हैं क्योंकि उनकी निगाह मूल सत्य की बजाय सिर्फ तात्कालिक वोट तक सीमित होती है। लेकिन हमें भरोसा है कि आप वस्तुगत दृष्टि अपनाएंगे और निहित स्वार्थी तत्त्वों के आरएसएस विरोधी प्रचार को अनायास महत्त्व नहीं देंगे।
जेपी ने इस प्रतिवाद के सन्दर्भ में संघ के सर्वोच्च नेतृत्व से 30 अक्टूबर और 1 नवम्बर, ’77 को हुई वार्ता में पुन: अपनी बातों को दुहराया। इस प्रतिनिधिमंडल में मधुकर दत्तात्रेय देवरस के साथ छोटे भाई भाउराव देवरस, भावी सरसंघचालक राजेन्द्र सिंह और अन्य वरिष्ठ नेता सम्मिलित थे। देवरस ने इसका विवरण पत्रकारों को भी दिया। इसी बीच आरएसएस ने मार्च, ’78 को नागपुर के जिला न्यायाधीश की अदालत में एक हलफनामा दाखिल करके इसको एक सांस्कृतिक-धार्मिक कार्यों से जुडी संस्था मानने के निर्णय को चुनौती दी। इससे पैदा विवाद के सन्दर्भ में प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने भी अप्रैल, ’79 के अंतिम दिनों में सरसंघचालक देवरस को पत्र लिखकर स्पष्टीकरण माँगा कि क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक राजनीतिक संगठन है? इस सन्दर्भ में अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा की गयी असफल कोशिशों का अपना इतिहास है (देखें : नूरानी (2019) पूर्वोक्त, पृष्ठ 195)।
एक साल बाद जेपी ने 27 अगस्त, 78 को जनता पार्टी और सरकार की कलहपूर्ण स्थिति पर एक सार्वजनिक वक्तव्य जारी करके फिर अपनी चिंता जाहिर की। जनता पार्टी सरकार के दो बरस पूरे होने पर जेपी ने 1 मार्च, ’79 को प्रधानमंत्री देसाई और जनता पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर को अलग अलग पत्र लिखकर एक तरह से अपना अंतिम मूल्यांकन और खुला असंतोष जाहिर किया। इन पत्रों में साम्प्रदायिकता और आरएसएस पर भी चिंताजनक बातें रखीं गयी थीं।
प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने 17 मार्च ’79 को एक लंबा उत्तर जरूर भेजा लेकिन जेपी को इससे कोई नयी उम्मीद नहीं मिली। 20 मार्च से 6 जुलाई तक स्वास्थ्य सुधार के लिए वह बम्बई के जसलोक अस्पताल में रखे गये। वहाँ भी उनकी चिंता बनी रही और 22 जून, ’79 को उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखकर हालात बेहतर बनाने के लिए प्रयास करने की अंतिम अपील की। फिर भी आरएसएस या जनसंघ घटक ने अनसुनी की। 8 अक्टूबर को जेपी का देहांत हो गया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे सम्बद्ध संगठनों को सर्वधर्म सद्भाव की राह पर लाने का उनका सपना अधूरा रह गया।