— राममनोहर लोहिया —
हथियारों के अलग-अलग स्वरूप को न बताकर, खाली इतना कह दूँ कि आज 8 खरब रुपया हर साल दुनिया हथियारों पर खर्च कर रही है। अगर पारस्परिक संदेह और शक की यही हालत रही, तो वह बढ़ेगा ही, घटेगा नहीं। इसके साथ-साथ एक अजीब बात और आ गयी है। 1945 के पहले तो हथियार कारगर होते थे, उनसे हार-जीत हुआ करती थी। अच्छे लोग, बड़े लोग, बड़े लोग मतलब सचमुच महात्मा के अर्थ में, जैसे ईसा मसीह, महात्मा गांधी, हथियारों को गंदा कहा करते थे और हर अच्छा आदमी हथियारों को गंदा मानता था। हथियार गंदे हैं, हथियार खराब हैं, हथियार अनुचित हैं, यह भावना तो बहुत जमाने से मनुष्य समाज के दिमाग में रही है। लेकिन उस देश की जीत हो जाया करती थी जिसके पास ज्यादा कारगर हथियार होते थे बनिस्बत ऐसे देश के जिसके पास कम कारगर हथियार होते थे, इसलिए हथियारों का इस्तेमाल हमेशा होता था। चाहे नैतिक दृष्टि से हथियार हमेशा बुरे रहे हों लेकिन भौतिक दृष्टि से 1945 तक हथियार हमेशा अच्छे रहे। 1945 में अणु बम फूटा और उसके बाद से उद्जन और अब ये जो फेंके जानेवाले हथियार हैं, प्रक्षेपास्त्र, और न जाने क्या-क्या चीजें सुनने में आ रही हैं, बनने लगे।
आज स्थिति पैदा हो गयी है कि अब चाहे कोई नए हथियार बनें या न बनें, रूस और अमरीका अगर चाहें तो दोनों एक दूसरे का और संसार का नाश कर सकते हैं। अगर युद्ध शुरू हो और दोनों में से किसी एक को ऐसा लगे कि अब तो हमारी हार हो रही है तो फिर वह आखिरी हथियार इस्तेमाल कर ले तो दुश्मन का नाश कर देगा और फिर खुद का भी नाश हो जाएगा और दुनिया भी नष्ट हो जाएगी। तीन अरब आदमियों में से दो-ढाई अरब आदमियों का खात्मा हो जाएगा और दुनिया में जो भी बड़े-बड़े शहर हैं वे तो बिल्कुल खत्म हो जाएंगे। वहाँ राख भी नहीं रहेगी क्योंकि इतनी गरमी निकलेगी कि उसमें सब उड़-उड़ा जाएंगे और गड्ढे वगैरह बन जाएंगे।
इसलिए अब हथियार न सिर्फ नैतिक दृष्टि से बुरे हैं, बल्कि भौतिक दृष्टि से भी निकम्मे हो गए हैं। उसमें हार-जीत कहाँ रह गयी? यह बात सबको मालूम है इसलिए युद्ध भी नहीं हो रहा है। केनेडी साहब और ख्रुश्चेव साहब को सबसे ज्यादा यह बात मालूम है। इसीलिए रूस और अमरीका चाहे जितना एक-दूसरे से दुश्मनी करें लेकिन उनको आत्महत्या किए बिना दूसरे का गला काटने का उन्हें मौका मिले, तो काट लेंगे। एक अजीब चीज है कि चाहे आपस में बैठकर समझौता न हुआ हो, लिखकर न हुआ हो, लेकिन रूस भी अपने किसी साथी को अपना आणविक रहस्य बताने को तैयार नहीं है। चीन उसका साथी है पर उसे भी नहीं बताएगा। अमरीका भी फ्रांस को बताने को तैयार नहीं है। उसका जो परम मित्र है, अंग्रेज उसको भी थोड़ा-सा शुरू-शुरू में बताया, उनका संबंध अब भी चल रहा है लेकिन असली रहस्य बताने को तैयार नहीं।
ऐसी अवस्था में हथियार निकम्मे हो गए हैं। निकम्मी चीज को आदमी कब तक बटोरता रहेगा? जिसका इस्तेमाल हो, उसको बटोरने का तो कुछ मतलब भी होता है। मजदूर, किसान, नेता, अध्यापक, पढ़े-लिखे लोग, सभी दिन-रात देखते रहते हैं, सोचते रहते हैं कि हम निकम्मी चीजों पर अपनी आमदनी का इतना जबरदस्त हिस्सा खर्च करते चले आ रहे हैं और इन चीजों का कभी कोई प्रयोग ही नहीं होगा। प्रयोग होना तो प्रायः असंभव है क्योंकि अमरीका और रूस दोनों जानते हैं कि अणु बम का प्रयोग करेंगे तो सर्वनाश होगा। ऐसी स्थिति में कुछ आशा की चीज निकली है। लोग सोचने लगे हैं कि संसार से हथियार खत्म होंगे, और नहीं तो, दुनिया खत्म होगी। दुनिया खत्म होगी उसी अर्थ में कि दो-तिहाई आबादी खत्म हो जाएगी, सब बड़े शहर खत्म हो जाएंगे, जिसे लोगों ने अब तक सभ्यता समझा है वह खत्म हो जाएगी।
मैं इन सब चीजों पर चिल्ल-पों तो नहीं मचाता, न इसके ऊपर खुश होता हूँ। मैं खाली एक तथ्य बता रहा हूँ कि जो बड़े-बड़े शहर हैं जिनमें अच्छी भी चीजें हैं, और जो गैरबराबरी के स्मारक भी हैं, वे खत्म हो जाते हैं। मेरी ऐसी बात सुनकर गोरे के मन में लगता है कि इसको तो अच्छा लग रहा है। अगर एक दफे दुनिया खत्म हो जाए तो फिर बराबरी के आधार पर निर्माण होगा, ऐसी बात नहीं है, मैंने तो दोनों बातें रखी हैं। इन दोनों में से कौन-सी बात होगी?
इसमें आशा और निराशा दोनों हैं, लेकिन उसके साथ-साथ एक और बात भी है। अभी तक तो मैंने इसकी मोटी लकीरें बतायी हैं। उनको जरा और सूक्ष्म बनाने लगते हैं, तो यह मामला खाली अणु का या बड़े-बड़े नये हथियारों का नहीं है। नए हथियार के साथ आणविक हथियार, आखिर निकले तो बंदूक और पिस्तौल से ही हैं। दोनों में कोई विशेष फर्क नहीं हैं। मान लो रूस और अमरीका- असल में मामला इन दोनों पर ही टिकता है- तय भी कर लेते हैं कि अणु हथियार खत्म कर दिए जाएं, और बंदूक और पिस्तौल जैसे हथियार बने रह जाते हैं, और उधर, साथ-साथ अणु विद्या बनी रह जाती है तो कोई नतीजा नहीं निकलेगा।
ये लोग इन सब चीजों को खत्म करने वाले हैं नहीं। बिजली बनाने में अणु से काम लेंगे, चंद्रमा में हवाई जहाज भेजने में उसका इस्तेमाल होगा और हर चीज में वह विद्या चलती रहेगी और इधर बंदूक और पिस्तौल और तोपें रहेंगी। समझौता हो जाए कि अब तक इन हथियारों का जो जमाव है वह सब नष्ट कर दिया जाएगा, नए बनाए नहीं जाएंगे तो फिर भी, जहाँ कहीं मामला आखिरी तौर पर बिगड़ेगा, 2-3 महीने के अंदर ये बन जाएंगे। उसमें तो कोई खास तब्दीली नहीं आएगी।
इसलिए असल में इन छोटे हथियारों को या जो परंपरागत हथियार हैं उनको भी तो भी खत्म करने का सवाल है। मेरे दिमाग में कोई शक नहीं है कि हथियारों के खात्मे का मतलब, खाली अणु हथियार का खात्मा नहीं होता है, बल्कि इन परंपरागत हथियारों के खात्मे का भी मामला आ जाता है। ये कैसे खत्म होंगे? इतनी अच्छी दुनिया कब बन जाएगी कि बंदूक और लाठी की भी जरूरत न रहे। खैर, लाठी तो प्रायः खत्म हो ही गयी है। यूरोप में पुलिस वाले के हाथ में खाली छोटा-सा डंडा रहता है। वह लंबी लाठी गाय, बैल को हाँकनेवाली, खाली हिंदुस्तान में रहती है। यहाँ जनता गाय, बैल है इसलिए शायद लंबी लाठी की जरूरत पड़ती हो। गोरे देशों में पुलिस वाले की लाठी खाली एक हाथ भर की होती है और उसका इस्तेमाल प्रायः नहीं ही होता है। अगर कभी जुलूस प्रदर्शन में हो भी जाता है तो जनता की ओर से भी घूँसे-मुक्के का इस्तेमाल हो जाता है और वहाँ हड़ताली लोग कभी मुक्कों में लोहे-वोहे का कुछ पहनकर भी जाया करते हैं। दोनों तरफ से थोड़ा-बहुत कुछ हो जाता है। खैर, इन हथियारों की बात भी सोचना जरूरी हो जाता है।