ट्रंप को नोबेल क्यों नहीं मिला ? – परिचय दास

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Parichay Das

डोनाल्ड ट्रंप, संयुक्त राज्य अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति, एक ऐसा व्यक्तित्व हैं जिनके समर्थक उन्हें “राष्ट्रवादी उद्धारक” मानते हैं, जबकि आलोचक उन्हें “लोकतंत्र के लिए खतरा” बताते हैं। उनके कार्यकाल में कई ऐसी घटनाएँ हुईं जिन्होंने वैश्विक राजनीति को झकझोर दिया किंतु इन सबके बावजूद, जब कई लोगों ने उनके लिए नोबेल शांति पुरस्कार की संभावना जताई तो वास्तविकता यह रही कि उन्हें यह सम्मान कभी नहीं मिला। इस न मिलने के पीछे न केवल राजनीतिक कारण थे बल्कि नैतिक, ऐतिहासिक और वैश्विक दृष्टिकोण से जुड़े अनेक गहरे प्रश्न भी छिपे हैं।

ट्रंप के समर्थकों का एक बड़ा वर्ग यह मानता था कि 2020 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिलना चाहिए था क्योंकि उनके प्रयासों से इज़राइल और अरब देशों—विशेषतः संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मोरक्को और सूडान—के बीच ऐतिहासिक “अब्राहम समझौते” हुए थे। यह समझौता अरब-इज़राइल संबंधों में दशकों बाद एक नई शुरुआत थी। यह निस्संदेह एक बड़ी कूटनीतिक सफलता थी जिसने मध्य पूर्व की राजनीति में नया अध्याय खोला लेकिन नोबेल समिति ने इस क़दम को “स्थायी शांति” की दिशा में पर्याप्त नहीं माना क्योंकि इसके साथ ही ट्रंप प्रशासन ने ईरान, फिलिस्तीन और अफगानिस्तान जैसे देशों में ऐसी नीतियाँ भी अपनाईं, जिनसे अस्थिरता बढ़ी।

ट्रंप की विदेश नीति का सबसे बड़ा विरोधाभास यही था कि वे एक ओर कुछ देशों के बीच मेल-मिलाप की कोशिश करते दिखे तो दूसरी ओर उन्होंने वैश्विक सहयोग और मानवता की संस्थाओं से दूरी बना ली। उन्होंने पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका को बाहर किया जो विश्व की सबसे बड़ी पर्यावरणीय शांति पहल थी। उन्होंने वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (WHO) पर चीन समर्थक होने का आरोप लगाकर उसके फंड रोक दिए। यह कदम एक महामारी के दौर में उठाया गया था, जब वैश्विक एकजुटता की सबसे अधिक आवश्यकता थी। इस प्रकार, उन्होंने विश्व समुदाय में शांति और सहयोग की बजाय राष्ट्रवादी अलगाववाद को बढ़ावा दिया। नोबेल शांति पुरस्कार, जिसका मूल दर्शन “वैश्विक सहअस्तित्व और मानवीय करुणा” पर आधारित है, ट्रंप की इस नीति से मेल नहीं खाता था।

उनके राष्ट्रपति काल में अमेरिका के भीतर भी असहिष्णुता और विभाजन का स्तर असाधारण रूप से बढ़ा। “अमेरिका फर्स्ट” की नीति ने राष्ट्रीय पहचान की भावना को पुनर्जीवित किया किंतु यह पुनर्जीवन एक पक्षीय था—सफेद नस्लीय श्रेष्ठता के विमर्श को हवा देने वाला। ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के दौरान ट्रंप की प्रतिक्रिया, उनके ट्वीट्स और भाषण, शांति की भाषा नहीं बल्कि टकराव की भाषा थे। उन्होंने विरोध प्रदर्शनों को “कानून और व्यवस्था के खिलाफ युद्ध” कहा और सेना के इस्तेमाल तक की बात की। एक नेता का आचरण तब शांति का प्रतीक माना जाता है जब वह असंतोष को सहानुभूति और संवाद से संभाल सके लेकिन ट्रंप का व्यवहार अक्सर आक्रोश, व्यंग्य और उत्तेजना से भरा था।

नोबेल पुरस्कार का इतिहास यह बताता है कि यह सम्मान केवल किसी एक घटना या समझौते पर नहीं बल्कि व्यक्ति की संपूर्ण मानवीय दृष्टि, उसके नेतृत्व की नैतिकता और उसके द्वारा उत्पन्न स्थायी प्रभाव पर दिया जाता है। ट्रंप के नेतृत्व में दुनिया ने ऐसी स्थायित्व की जगह अस्थिरता देखी। उन्होंने उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग-उन से मुलाकात कर एक ऐतिहासिक कदम जरूर उठाया पर वह प्रयास अंततः असफल रहा। ट्रंप और किम के बीच की वार्ता ने एक अस्थायी उत्साह तो पैदा किया परंतु कोरियाई प्रायद्वीप में परमाणु हथियारों का खतरा जस का तस रहा।

कई विशेषज्ञों का मत है कि ट्रंप की राजनीति में “शांति” का अर्थ वास्तव में “सौदेबाज़ी” था। उन्होंने हर अंतरराष्ट्रीय संबंध को आर्थिक लाभ और चुनावी प्रचार के नजरिए से देखा। उनकी कूटनीति में मानवीय करुणा की बजाय व्यापारिक व्यवहार का वर्चस्व था। उन्होंने यूरोपीय संघ से लेकर नाटो तक, हर गठबंधन को “अमेरिकी खर्च का बोझ” बताया और वैश्विक सहयोग की भावना को कमजोर किया। नोबेल समिति, जो अल्फ्रेड नोबेल की वसीयत के अनुसार “उन लोगों को सम्मान देती है जिन्होंने राष्ट्रों के बीच भाईचारे को बढ़ाया,” ट्रंप के इस दृष्टिकोण को इस आदर्श के विरुद्ध मानती थी।

ट्रंप के खिलाफ घरेलू मोर्चे पर भी कई ऐसे विवाद रहे जिन्होंने उनकी नैतिक स्थिति को कमजोर किया। 2019 में उन पर यूक्रेनगेट मामले में महाभियोग लगाया गया था, जिसमें उन पर एक विदेशी देश से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ जानकारी जुटाने का दबाव डालने का आरोप था। भले ही वे इस आरोप से मुक्त हो गए पर यह प्रकरण उनकी नैतिक छवि पर धब्बा छोड़ गया। और 6 जनवरी, 2021 को अमेरिकी संसद पर हुए हिंसक हमले ने तो इस छवि को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। उस दिन ट्रंप के समर्थकों ने चुनाव परिणामों के विरोध में कैपिटॉल हिल पर कब्ज़ा करने की कोशिश की। कहा गया कि ट्रंप ने अपने भाषणों से भीड़ को भड़काया। यह घटना अमेरिकी लोकतंत्र के इतिहास की सबसे काली घटनाओं में से एक मानी जाती है। ऐसे में, एक ऐसे व्यक्ति को शांति का प्रतीक मानना नोबेल समिति के मूल सिद्धांतों के विपरीत था।

ट्रंप ने खुद को कई बार “शांति का निर्माता” बताया, और उनके समर्थकों ने भी नॉर्वे, जापान और यहाँ तक कि अमेरिका में भी उनके नाम की अनुशंसा की लेकिन नोबेल समिति ने हमेशा राजनीतिक प्रचार से दूरी बनाए रखी। समिति के सदस्यों ने सार्वजनिक रूप से कहा कि शांति पुरस्कार “राजनीतिक लोकप्रियता का नहीं बल्कि नैतिक परिवर्तन का पुरस्कार” है। ट्रंप के मामले में यह परिवर्तन स्थायी नहीं बल्कि अस्थायी और स्वार्थप्रेरित था।

नोबेल शांति पुरस्कार पाने वालों की सूची पर नजर डालें—मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, मलाला यूसुफजई, बराक ओबामा—तो एक बात स्पष्ट होती है: इन सबने हिंसा या असमानता के विरुद्ध नैतिक संघर्ष किया, सत्ता में रहते हुए नहीं, बल्कि सत्ता के प्रतिरोध में। ट्रंप इसके विपरीत थे—वे सत्ता के केंद्र में थे और उस सत्ता के माध्यम से अपने विचारों को थोपा करते थे। उनका व्यवहार एक राजनीतिक आंदोलन जैसा था, जिसमें “हम बनाम वे” की भाषा बार-बार दोहराई जाती थी।

बराक ओबामा को 2009 में नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया था, और ट्रंप ने कई बार सार्वजनिक रूप से कहा कि “ओबामा को तो बिना कुछ किए पुरस्कार मिल गया जबकि मैंने इतने समझौते किए।” लेकिन यह तुलना सतही थी। ओबामा का सम्मान भविष्य की संभावनाओं पर आधारित था जबकि ट्रंप के मामले में उनकी नीतियों ने विभाजन की रेखा गहरी की थी। शांति का पुरस्कार केवल समझौते की सफलता से नहीं बल्कि मनुष्य के विवेक, विनम्रता और करुणा की गहराई से जुड़ा होता है—जो ट्रंप की राजनीतिक भाषा में अनुपस्थित थी।

ट्रंप का एक और विरोधाभास यह था कि उन्होंने शक्ति और राष्ट्रीय गौरव को शांति के साधन के रूप में प्रस्तुत किया। उनका मानना था कि “शक्ति ही शांति है”—यह विचार शीतयुद्ध काल की राजनीति से प्रेरित था किंतु नोबेल समिति की दृष्टि में यह विचार शांति का नहीं, प्रभुत्व का प्रतीक है। एक ऐसी दुनिया जहाँ शक्ति के नाम पर दूसरे देशों पर दबाव बनाया जाए, वहाँ शांति नहीं, असंतुलन जन्म लेता है।

इस संदर्भ में यह भी महत्त्वपूर्ण है कि नोबेल शांति पुरस्कार केवल राजनीतिक कार्यों के लिए नहीं बल्कि मानवीय दृष्टिकोण के लिए दिया जाता है। ट्रंप के प्रशासन ने अमेरिका में शरणार्थियों, मुसलमानों और प्रवासियों के खिलाफ कठोर नीतियाँ अपनाईं। ट्रैवल बैन और मेक्सिको बॉर्डर वॉल जैसी योजनाओं ने लाखों परिवारों को प्रभावित किया। इन नीतियों को दुनिया भर में अमानवीय कहा गया। क्या ऐसा व्यक्ति जो अपने देश की सीमाओं के भीतर भी विभाजन की दीवार खड़ी करे, शांति का दूत कहा जा सकता है?

शांति का अर्थ केवल युद्ध न होना नहीं, बल्कि न्याय और सम्मान का वातावरण बनाना है। नोबेल समिति ने यह माना कि ट्रंप की नीतियाँ शांति की स्थायित्व की जगह अस्थिरता और अविश्वास को बढ़ाती हैं। उन्होंने कई अंतरराष्ट्रीय संधियों को रद्द किया, ईरान परमाणु समझौते से हटे और विश्व स्वास्थ्य संगठन से दूरी बनाई। यह सब अंतरराष्ट्रीय सहयोग को कमजोर करने वाले कदम थे।

ट्रंप की शैली में जो आत्मविश्वास था, वह कई बार अहंकार में बदल जाता था। वे आलोचना को स्वीकार नहीं करते थे और प्रेस तथा बुद्धिजीवियों को “जनता का दुश्मन” कहते थे। यह रवैया लोकतंत्र और संवाद की भावना के विरुद्ध था, जबकि नोबेल शांति पुरस्कार का मूल तत्त्व संवाद और सहिष्णुता है।

डोनाल्ड ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार न मिलना केवल एक निर्णय नहीं था बल्कि एक संदेश था। यह संदेश यह था कि शांति केवल समझौते से नहीं आती बल्कि उस आंतरिक विनम्रता से आती है जो मनुष्य को मनुष्य के दुःख से जोड़ती है। ट्रंप की राजनीति में यह मानवीय बोध अनुपस्थित था। वे परिवर्तन तो लाए पर वह परिवर्तन भय, राष्ट्रवाद और असुरक्षा के आधार पर था, न कि विश्वास, समानता और करुणा के।

उनका कार्यकाल एक प्रयोग था—यह दिखाने का कि क्या एक राष्ट्रवादी नेता भी वैश्विक शांति का प्रतीक बन सकता है। परिणाम यह रहा कि शांति और शक्ति का यह मेल टिक नहीं सका। नोबेल समिति ने शायद यही देखा—कि ट्रंप के हर “समझौते” में एक स्वार्थ छिपा था, हर “सफलता” में एक प्रचार की छाया थी।

इसलिए डोनाल्ड ट्रंप नोबेल शांति पुरस्कार के योग्य नहीं माने गए क्योंकि शांति के लिए केवल सौदे नहीं बल्कि आत्मा की शुद्धता चाहिए। शांति हथियारों के मौन से नहीं, बल्कि हृदय के मौन से उपजती है और यह मौन, यह करुणा, यह विश्वबंधुत्व—ट्रंप की राजनीति में कहीं नहीं था। उन्होंने इतिहास में अपनी पहचान अवश्य बनाई पर वह पहचान एक विवादास्पद व्यक्ति की रही, न कि एक शांति दूत की।

ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार न मिलना कोई पक्षपात नहीं लगता बल्कि उस पुरस्कार की गरिमा का संरक्षण~सा लगता है ! क्योंकि शांति का सम्मान उसी को मिलना चाहिए, जिसकी नीतियाँ मनुष्य को जोड़ें, तोड़ें नहीं; जो सत्ता के शोर में नहीं बल्कि मौन की करुणा में विश्वास रखे। डोनाल्ड ट्रंप, अपने समूचे नेतृत्व और शब्दों के संसार में, इस करुणा के सर्वथा विपरीत खड़े थे।


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